Romance प्यासी शबनम

मां को उसने एक क्षण के लिए भी न छोड़ा। इसलिए उसे गांव के अन्य बालकों का सुधार करने या शिक्षा देने का समय ही नहीं मिला। ठाकुर नरेन्द्र सिंह तथा उनकी पत्नी ने अपनी बहू के दूसरे पति – अंग्रेज पति – को पहली बार देखा था। पति अंग्रेज था परन्तु सगी बहू के कारण उसके दूसरे पति को देखने के बाद उन्हें अपना बेटा याद आना स्वाभाविक था। उन्होंने उसका ऐसा स्वागत किया मानो उनका अपना बेटा वर्षों बाद लंदन से आया है। मां ने उसकी बलाइयां लीं। ठाकुर नरेन्द्र सिंह ने उसको जी भरकर आशीर्वाद दिया। उसके लम्बे जीवन की कामना की। उसके स्वागत में उन्होंने दो दिन बाद एक शानदार पार्टी दी जिसमें गांव के ही नहीं शहर के भी प्रतिष्ठित लोगों को आमंत्रित किया। शाम को अपने निश्चित समय पर जब पार्टी आरम्भ हुई तब देखते ही लगता था। रंगीन बल्बों से कोठी इस प्रकार सजी थी कि आंखें चौंधिया जाती थीं। पार्टी में गांव के गिने-चुने प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ मोहनसिंह का परिवार भी आमंत्रित था। जिस समय मोहनसिंह अपनी धर्मपत्नी के साथ पार्टी में पधारे तो द्वार पर स्वागत करते समय ठाकुर नरेन्द्र सिंह उपस्थित थे। उस समय वन्दना भी वहीं समीप ही अपनी सहेली के साथ खड़ी बातें कर रही थी। ठाकुर नरेन्द्र सिंह

ने मोहन सिंह तथा उनकी पत्नी को पार्टी में सम्मिलित होते देखा तो स्वागत करने के बाद पूछा, ‘अरे, केवल आप ही दोनों आए हैं क्या? आपका लड़का नहीं आया?’ नरेन्द्र सिंह ने अमर के लिए इधर-उधर देखा। ‘क्या बताएं जागीरदार साहब, अब वह सुबह तो सुबह, शाम को भी कुश्ती लड़ने अवश्य जाता है।’ मोहन सिंह ने विवशता प्रकट की। बोले, ‘कहता है कि अब दूर-दूर के गांव तो क्या दूर-दूर के शहर भी मेरे साहस, मेरे दांव-पेंच तथा बल का मुकाबला नहीं करने पाएंगे। जब तक मैं इस लगन को पूरा नहीं कर लूंगा, चैन की सांस नहीं लूंगा।’ वन्दना के कान मोहन सिंह के इस वाक्य को सुने बिना नहीं रह सके। परन्तु उसके दिल में किसी प्रकार की धड़कन नहीं उत्पन्न हुई। दस वर्ष की लड़की वह अवश्य थी। प्यार का थोड़ा-बहुत अर्थ तो समझती थी, परन्तु प्यार की भावना लेकर उसका दिल एक बार भी नहीं धड़क सका। उसे खुशी हुई – केवल खुशी, जिसका प्यार से कोई सम्बन्ध नहीं था। उसने सोचा अगले दिन वह अवश्य गांव के अन्य बालकों में ऐसी ही जागृति उत्पन्न करने का प्रयत्न करेगी। परन्तु तभी प्रसन्नता के सुनहरे मौके पर अचानक गम का एक तूफान उमड़ पड़ा। शेर सिंह के आदमियों ने नरेन्द्र सिंह की कोठी पर चढ़ाई कर दी। यानी एक युद्ध छिड़ गया। गोलियां

चलीं। मोहन सिंह ही नहीं उसकी बहादुर पत्नी ने भी नरेन्द्र सिंह के घराने की रक्षा करने में पूरा साथ दिया। दोनों ही मारे गए। वन्दना के सौतेले तथा विदेशी पिता ने एक डाकू पर काबू पाना चाहा तो घायल हो गया। गोली बाएं कन्धे पर लगी इसलिए जान बच गई। डाकुओं को मुकाबला उनकी ताकत से अधिक मिला था। नरेन्द्र सिंह की दी गई पार्टी में गांव के साहसी व्यक्ति भी सम्मिलित थे इसलिए डाकू भाग खड़े हुए। परन्तु कोठी में कोहराम मच गया था, कोहराम मचा रहा। चीखें-चिल्लाहट जारी रहीं। मोहन सिंह की हत्या क्या हुई मानो नरेन्द्र सिंह का ही नहीं गांव का भी दाहिना हाथ कट गया। अमर सिंह को पता चला तो वह दौड़ा-दौड़ा कोठी पहुंचा। आकर पिता की छाती से लिपट गया। फूट-फूट कर वह रो पड़ा। बच्चा ही तो था। अब उसका इस संसार में कौन था जो उसे पालता-पोसता? कुछेक मेहमान उसे तसल्ली दे रहे थे परन्तु उसे तसल्ली मिलती भी कैसे? वह तो अनाथ हो चुका था। वन्दना वहीं भयभीत-सी खड़ी अमर को देख रही थी। उसका सौतेला पिता घायल हुआ था। मां दूसरे कमरे में उसकी मरहम पट्टी कर रही थी। वहीं ठाकुर नरेन्द्र सिंह तथा उनकी पत्नी भी थी। परन्तु वन्दना अमर के पास से नहीं

हटी। उससे अमर के आंसू देखे नहीं जा रहे थे। अब यह अनाथ बालक अपने जीवन में क्या करेगा? कहीं यह अपने बढ़ते साहस के पगों को पीछे न खींच ले? अपने उद्देश्य से मुंह न मोड़ ले? बुरे रास्ते की ओर फिर न चल पड़े? वन्दना अमर की रोती स्थिति को देखकर यही सोच रही थी। ‘वन्दना डार्लिंग-’ तभी उसकी मां ने उसका हाथ पकड़ कर उसे अपनी ओर खींचते हुए मिली-जुली हिन्दी तथा अंग्रेजी में कहा, ‘कम ऑन, अब हम इस घर में एक मिनट भी नहीं रहेगा।’ ‘जी मम्मी?’ वन्दना मानो कुछ समझी नहीं। ‘हम इसी वक्त लन्दन के लिए यह जगह छोड़ देगा।’ उसकी मां ने कहा, ‘और साथ में तुमको भी ले जाएगा। तुम्हारे डैडी को हम पहले ही खो चुके हैं। अब यहां छोड़ तुम्हें नहीं खो सकता। वन्दना की मां दुःखी हुई थी। आज वह उसी ढंग पर अपना दूसरा पति भी खो सकती थी जिस ढंग पर उसने अपना पहला पति लगभग दस वर्ष पहले यहीं खोया था। आज वह एक बार फिर विधवा बन सकती थी जैसे दस वर्ष पहले विधवा बनी थी।

वन्दना ने जाते-जाते पलटकर अमर को देखा। वह अपनी मां के पगों पर आंसू बहाता हुआ सिसक रहा था। वन्दना के मन में टीस उठी – ऐसी टीस जिसमें अमर के प्रति सहानुभूति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। वह अपनी मां के साथ दूसरे कमरे में चली गई। उसके पिता के कंधे पर पट्टी बंध चुकी थी। उसने अपने दादा-दादी जी को देखा। सारा बचपन उसने उनकी छाया में बिताया था। उनसे बिछड़ने का अहसास करके वह अपने दादाजी से लिपट गई। दादी ने भी उसे अपनी छाती से लगा लिया। दादाजी ने उसके सिर पर प्यार से हाथ रखा। फिर भर्राए स्वर में कहा, ‘तेरा जीवन लंदन में ही सुरक्षित है बेटी, वर्ना मैं स्वयं बहू से तेरी भीख मांग लेता। जा, और सुखी रहना।’ उन्होंने उसे दिल की गहराई से आशीर्वाद दिया। वन्दना अगली सुबह ही अपने माता-पिता के साथ शहर के लिए रवाना हो गई थी ताकि हवाई अड्डे से लन्दन जाने वाला पहला जहाज पकड़ सके। लंदन पहुंचने के बाद जिस प्रकार की शिक्षा उसने प्राप्त की उसने उसे बिल्कुल ही अंग्रेज बना दिया। आरम्भ से ही अंग्रेज मां पर उसका रंग-रूप गया था, आयु के साथ रंग-रूप उभरा तो वह मिसरी की सफेद डली बन गई। सत्रह

वर्ष की आयु में उस पर दृष्टि ठहरना कठिन हो गया। दृष्टि ठहरती तो फिर चिपक कर ही रह जाती। लम्बा कद, छरेरा शरीर, अंग-अंग फूटता हुआ, सुनहरी रेशमी लटें, नीली आंखें इस प्रकार मानो नील नदी का गहरा पानी, सुर्ख कलियों जैसे पतले होंठ, गोल मुखड़ा, पतली गर्दन भगवान ने मानो स्वयं अपनी कला का प्रदर्शन करते हुउ उसे सफेद संगमरमर में छांटकर मूर्ति बनाने के बाद उसमें आत्मा फूंक दी थी। वन्दना के दिल में प्यार की पहली कली ने उस समय अंगड़ाई ली जब वह एक शाम वर्डलैण्ड (होटल) में अपने माता-पिता के साथ नृत्य उत्सव में सम्मिलित होने गई हुई थी। यूं तो वहां लगभग सभी दिन संगीत तथा नृत्य का प्रोग्राम होता था परन्तु वह रात चौबीस दिसम्बर की रात थी जिसके बारह बजने के बाद क्रिसमस (ईसाइयों का त्योहार, बड़ा दिन) आरम्भ होता है। उस दिन होटल के नृत्य हॉल में जैम सैशन था। भीड़ इतनी थी कि ऑर्केस्ट्रा की धुन पर नृत्य करते जोड़े एक-दूसरे से कदम-कदम पर टकरा जाते थे। यही कारण था कि वन्दना अपने माता-पिता के साथ एक किनारे खामोश बैठी हुई थी। उसके पिता के सामने मेज पर व्हिस्की का जाम रखा हुआ था। मां के सामने भी वाइन (सॉफ्रट ड्रिंक) का जाम था। परन्तु वन्दना केवल

कॉफी द्वारा ही अपना काम चला रही थी। अंग्रेज मां से उत्पन्न होने तथा इतने वर्षों लन्दन में रहने के पश्चात् वह उस वस्तु को होंठों से लगाना पाप समझती थी जिसमें नाममात्र भी मदिरा मिली हो। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उसे ऊंचा समाज पसन्द नहीं था। ऊंचा समाज किसे पसन्द नहीं यदि वह वास्तव में एक ऊंचा समाज है। ऊंचा समाज वास्तव में केवल वही होता है जिसमें ऊंची हस्तियों का संगठन होता है चाहे वह मनोरंजन के लिए हो या किसी और बात के लिए। ऑर्केस्ट्रा की सुरीली धुन हॉल के वातावरण में तैर रही थी। जवान जोड़े एक-दूसरे की बांहों में बांहें डाले थिरक रहे थे। हॉल के अन्दर का प्रकाश अपने नए-नए सुन्दर रगों का लिहाफ बदल रहा था। रात के बारह बजने में अभी काफी देर थी। अचानक प्रकाश नीला हुआ – फिर गहरा नीला। नृत्य करते जोड़े छाया बन गए। अचानक ऑर्केस्ट्रा की धुन ड्रम की तेज गूंज में परिवर्तित हो गई। फिर अचानक ही संगीत ठहर गया। इसके साथ ही हॉल जगमगाहट से प्रकाशमान हो उठा। हॉल के अन्दर लोगों की आंखें चकाचौंध हो उठीं। बहुत जोर की ताली बजी। नृत्य का यह भाग समाप्त हो चुका था। लोग अपनी-अपनी जगहों पर वापस चले गए।

कुछ देर बाद ऑर्केस्ट्रा की धुन फिर आरम्भ हुई। स्वर में साज की प्राथमिकता सेक्सोफोन की थी। सेक्सोफोन की मधुर धुन ने जोड़ों को फर्श पर आकर हल्का नृत्य करने के लिए आमंत्रित किया। नवयुवक अपने हसीन साथियों के साथ फर्श की ओर बढ़ गए। वन्दना उसी प्रकार खामोश बैठी हुई थी। अचानक अपने समीप एक स्वर सुनकर वह चौंक गई। ‘मे आई हैव द प्लेजर ऑफ डांस विद यू?’ कोई उससे कह रहा था। वन्दना ने देखा, उसके सामने एक भारतीय नवयुवक खड़ा है। वह झुककर बहुत अदब के साथ, अपना एक हाथ शहजादों के समान अपनी कमर के सामने फैलाते हुए उसने निवेदन किया था। देखने में भी वह किसी राजकुमार से कम नहीं था। लम्बा कद, घनी लटें, चौड़ी कलमें, बिल्कुल गोरा-चिट्टा । उसकी आंखों में एक मुस्कराती चमक थी, होंठों पर हल्की परन्तु बड़ी सुन्दर और आकर्षक मुस्कान जिससे वन्दना प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी। उसने नवयुवक को ऊपर से नीचे तक देखा, उसके शरीर पर राजकुमारों जैसा ही कोट था, लाल, गुलाब समान, जिसके कॉलर पर एक सफेद गुलाब टंका हुआ था। क्रीम रंग की पैंट, क्रीम रंग के पेरिस के बने जूते वह पहने हुए

था जिनका सारे संसार में कोई मेल नहीं। उसकी पैंट के रंग से ही मेल खाती गर्दन की टाई थी जिस पर लहरदार पतली धारियों का रंग उसके कोट समान लाल था। ऐसे सुन्दर तथा ‘मैचिंग’ पहनावे में उस नवयुवक का व्यक्तित्व निखरकर और प्रभावशाली बन गया था। वन्दना के शरीर में भारतीय पिता का रक्त था। इतने सुन्दर भारतीय नवयुवक को देखकर उसकी इच्छा हुई कि वह तुरन्त उसके साथ नृत्य के लिए खड़ी हो। परन्तु उसके अन्दर एक भारतीय नारी की आत्मा के साथ लाज भी जीवित थी। वह तुरन्त नहीं उठ सकी, उसने अपनी मां की ओर देखा। ‘गो अहेड माई डॉटर।’ अंग्रेजी सभ्यता में रंगी वन्दना की अंग्रेज मां ने वन्दना को उत्साहित किया। वन्दना उठी, बिल्कुल इस प्रकार मानो कली बहारों का हल्का-सा झोंका पाकर फूल बन जाना चाहती हो। खड़ी होने पर वन्दना का कद उस नवयुवक को शायद कुछ ऐसा ही लगा था। वन्दना ने बड़ी कोमलता के साथ अपने कंधे पर से ‘केप’ उतारकर कुर्सी पर टांगा। फिर नवयुवक के साथ वह नृत्य के लिए फर्श की ओर बढ़ गई। नवयुवक ने भी बड़ी कोमलता से अपने हाथों को आगे फैलाया तो फूलों से लदी टहनी के समान वन्दना नवयुवक की बांहों में चली गई। नवयुवक ने उसके मुखड़े के फूल को अपने कोट

के कॉलर से लगा लिया। बांहों में लेकर वह उसे बहुत प्यार के साथ हल्के-हल्के ‘फोक्स-ट्राट’ करने लगा। नवयुवक की सांसों की गर्मी वन्दना को बहुत अच्छी लगी। ‘क्या मैं आपका शुभ नाम जान सकता हूं?’ कुछ देर उसी प्रकार नृत्य के बाद नवयुवक ने पूछा। ‘वन्दना।’ वन्दना ने छोटा-सा उत्तर दिया। ‘मुझे रोहित कहते हैं।’ नवयुवक ने अपना परिचय दिया। ‘आप भारत से आए हैं?’ वन्दना ने अपने स्वर में कंपन के साथ पूछा। ‘जी नहीं। रोहित ने कहा, ‘मैं तो लन्दन का ही निवासी हूं यहीं उत्पन्न हुआ, यहीं पढ़ा-लिखा तथा जवान हुआ हूं। हां, मेरे माता-पिता कभी अवश्य भारतवासी थे। परन्तु अब उन्होंने भी यहां की राष्ट्रीयता प्राप्त कर ली है।’ ‘परन्तु मैं तो भारत की उत्पत्ति हूं।’ वन्दना ने कहा। ‘अरे!’ रोहित ने आश्चर्य प्रकट किया। बोला, ‘देखने में तो आप बिल्कुल अंग्रेज लगती हैं। क्या आपके माता-पिता भारत के दौरे पर थे जब आप वहां उत्पन्न हुईं?’ ‘जी नहीं। मेरे पिताजी भारतीय थे। भारत में ही रहते थे वह-’ वन्दना ने अपने विदेशी तथा सौतेले पिता की ओर

इशारा करते हुए कहा, ‘मेरी मम्मी के दूसरी पति हैं। यह मेरा दुर्भाग्य है कि मेरे उत्पन्न होने से पहले ही मेरे पिता इस संसार से चल बसे।’ वन्दना गम्भीर हो गई। ‘आई एम सॉरी।’ रोहित ने खेद प्रकट किया। फिर नृत्य के मध्य उसने वन्दना को अपनी छाती के और भी करीब कर लिया। ऐसा न हो कि वन्दना ऐसे सुन्दर उत्सव में अपने पिता की याद द्वारा दुःखी हो जाए। वन्दना से उसे एक अलग सहानुभूति भी हो गई। नृत्य के मध्य दोनों बहुत घुलमिल गए। बॉल-डांस अपरिचित लोगों में परिचय बढ़ाने का बहुत बड़ा कर्त्तव्य अदा करता है। शायद खाने के बाद टहलने का बहाना नृत्य द्वारा पूरा करके स्वास्थ्य बनाने का मकसद पूरा करने के साथ-साथ परिचय बढ़ाना भी बॉल-डांस का एक विशेष मकसद है। ऑर्केस्ट्रा की मीठी धुन हॉल के वातावरण में तैर रही थी। रंगीन वस्त्रों में हसीन जोड़े एक-दूसरे की बांहों में बांहें डाले बहुत प्यार से नृत्य कर रहे थे। ऐसा लगता था मानो आकाश से अप्सराएं उतरकर धरती के युवकों के साथ नृत्य कर रही हों। पहले समान हॉल के अन्दर धीमे-धीमे रंगों का वातावरण फिर नीला हुआ – नीला – और नीला –

और गहरा नीला। एक बार फिर नृत्य करते जोड़े छाया बन गए। एक ओर दीवार पर टंगी घड़ी की दोनों सुइयां अंक बारह की ओर बड़ी अधीरता के साथ बढ़ रही थीं। उत्सव रात की अंगड़ाई लिए अपने भरपूर यौवन पर था। रोहित ने वन्दना को अपनी छाती के बिल्कुल ही समीप कर लिया। वन्दना के दिल की धड़कनें ऑर्केस्ट्रा की धुन की गति के साथ बहुत तेज हो गईं। वन्दना ही क्या, रोहित तथा सभी जोड़ों के दिल की धड़कनें ऐसे रंगीन वातावरण में अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुकी थीं। वन्दना की इच्छा हुई कि यह समय कभी समाप्त न हो। धुन इसी प्रकार बजती रहे। समय अपने स्थान पर ठहर जाए। परन्तु समय कभी अपने स्थान पर नहीं ठहरता। इस बात को ज्ञात करके वन्दना को अधिक देर नहीं लगी। घड़ी की दोनों सुइयां एक बनकर अंक बारह पर पहुंच चुकी थीं। दिन समाप्त हो चुका था जिसकी घोषणा ऑर्केस्ट्रा की तेज धुन तथा क्षण भर के उस घने अंधकार ने कर दी जिसे हॉल के अन्दर सारी ही बत्तियां बुझाकर प्रवेश करने का अवसर दे दिया गया था। इस क्षण भर के अंधकार में किस किस कली या फूल से कुछ कहा या चुम्बन लिया किसी को अपने अतिरिक्त दूसरे के विषय में कुछ पता नहीं चला। परन्तु वन्दना को अपने विषय में इतना अवश्य ज्ञात हो गया कि उसके भंवरे

ने उससे कुछ न कहकर भी बहुत कुछ कह दिया था। उस क्षण भर के अंधकार में रोहित की बांहें केवल क्षण भर के लिए ही उसके शरीर पर सख्त होकर रह गई थीं। तभी ऑर्केस्ट्रा की धुन एक गूंज के साथ समाप्त हो गई। इसके साथ ही हॉल नीअन लाईट्स से प्रकाशमान हो उठा। नृत्य करते जोड़े अचानक चौंककर एक-दूसरे से अलग हो गए। बड़े दिन का प्रारम्भ हो चुका था। लोगों ने दिल खोलकर जोर और शोर से ताली बजाते हुए इस शुभ दिन का स्वागत किया। उसके बाद नृत्य के और भी अनेक दौर चले। वन्दना हर क्षण रोहित की बांहों में ही रही। दोनों एक-दूसरे के और भी समीप आ गए, इस प्रकार मानो वर्षों से एक-दूसरे को जानते हों। नृत्य रात के दो बजे तक चलता रहा परन्तु वन्दना के पग इतना समय होने के पश्चात् जरा भी नहीं थके। फिर जब नृत्य समाप्त हो गया तो वन्दना को रोहित ने उसकी मेज के समीप छोड़ा। वन्दना के लिए रोहित ने उसकी कुर्सी कुछ पीछे खींचकर मेज से अलग की। वन्दना ने कुर्सी पर रखा ‘केप’ उठाकर अपने शरीर पर डाला। फिर कुर्सी पर बैठ गई और मुस्कराती दृष्टि से रोहित को देखा।‘थैंक यू वेरी मच फॉर द कम्पनी।’ रोहित ने उसी सभ्यता के साथ झुककर कहा जिस प्रकार उसने आकर उसे नृत्य के लिए पूछा था। वन्दना कुछ कहना चाहकर भी कुछ नहीं कह सकी। शायद दिल में अचानक समाई मीठी धड़कन ने उसके अन्दर लाज भर दी थी। उसके स्थान पर उसकी मम्मी को रोहित से कहना पड़ा, ‘यू आर वेल्कम माई बॉय।’ रोहित चला गया। उस दिन के बाद वन्दना की रोहित से इसी होटल में इकत्तीस दिसम्बर, अर्थात् नए वर्ष से एक रात पहले फिर मुलाकात हुई। वह रात भी जश्न की थी जो अपने यौवन पर आने की प्रतीक्षा कर रही थी ताकि नए वर्ष का शुभ दिन प्रारम्भ करे। उस दिन भी वन्दना हर क्षण रोहित की बांहों में रही। उस रात रोहित ने दूसरे ढंग का रंगीन वस्त्र पहन रखा था। परन्तु उसके कॉलर पर लगे गुलाब का रंग वही सफेद था जो इस बार उसकी सफेद रंग के फूल में रुचि का प्रमाण दे रहा था। यद्यपि आज के सूट में उसका वह व्यक्तित्व नहीं झलक रहा था जो एक सप्ताह पहले इसी होटल में चौबीस दिसम्बर की रात को लाल कोट तथा क्रीम रंग की पैंट के साथ लाल तथा पतली लहरदार टाई में झलका था फिर

भी देखने में यह किसी भारतीय राजकुमार से कम नहीं था। वन्दना को उसकी संगति में प्यार का अगाह सागर प्राप्त हो गया था। फिर मुलाकातें बढ़ीं, बढ़ती ही चली गईं, हर आने वाले दिनों में, कुछ इस प्रकार कि अब दोनों एक-दूसरे के बिना रह ही नहीं पाते थे। मुलाकातों के मध्य वन्दना को पता चला कि रोहित का इस संसार में कोई नहीं है। मां का निधन बहुत पहले हुआ था। पिता का निधन छह मास पहले ही हुआ था। कभी उसके पिता का अच्छा बड़ा कारोबार था। लन्दन में इमारतें बनाने वाली एक कम्पनी के वह छोटे-से भागीदार थे परन्तु आमदनी अच्छी थी। अपने बेटे रोहित को वह इंजीनियरिंग दिलाकर आर्कीटेक्ट की स्पेशल ट्रेनिंग दिलाना चाहते थे, क्योंकि रोहित को बचपन से ही इसका बहुत शौक था। रोहित की शिक्षा पूरी होने के बाद वह लन्दन की कम्पनी में अपना शेयर समाप्त करके स्वाधीन काँट्रैक्टर बनना चाहते थे। रोहित से उन्हें बहुत सारी आशाएं बंधी हुई थीं। रोहित ने अपनी शिक्षा के मध्य अपनी योग्यता का कमाल ऐसा दिखाया था कि उसके अंग्रेज शिक्षक भी दंग रह जाते थे। प्रायः इमारत के जिस नक्शे को वह एक बार देख लेता था उसे दोबारा देखने की आवश्यकता उसे कम ही पड़ती थी। आवश्यकता

उस समय देखने की पड़ती थी जब उसके ‘ट्रेसर्स’ नक्शे की कापियां बनाकर अन्तिम मिलान के लिए उसके सामने रखते थे। रोहित की तेज बुद्धि में एक विशेष गुण था। वह गुण यह था कि किसी भी नक्शे को देखने के बाद नक्शे की कापी उसके दिल और दिमाग के कैनवास पर अंकित हो जाती थी। ऐसे लोग संसार में बहुत कम होते हैं। ऐसे बुद्धिमान लोगों को युद्ध में अच्छी पदवी के लिए विशेष प्राथमिकता दी जाती है। इन्हें शत्रु के या नष्ट करने वाले अड्डे का नक्शा अच्छी तरह दिखाकर उनकी बटालियन के साथ युद्ध में भेजा जाता है। रास्ते में यदि सतर्क शत्रु के अचानक हमले के कारण नक्शा नष्ट हो जाता है तो बटालियन का वह बुद्धिमान इंजीनियर अपनी स्मृति के सहारे अपनी बटालियन के बचे-खुचे फौजियों को शत्रु के अड्डे तक ले जाने में कामयाब हो जाता है क्योंकि नक्शा नष्ट होने के पश्चात् नक्शे की छाप उसके दिल और दिमाग पर उसी प्रकार बनी रहती है। छह मास पहले पिता की मृत्यु हुई तो रोहित ने स्वयं को संसार में पहली बार बिल्कुल अकेला पाया। परन्तु फिर परिस्थितियों पर काबू पाकर उसने लन्दन की कम्पनी में अपने पिता का शेयर समाप्त कर लिया। जो धन मिला उसे बैंक में डाल दिया और अपनी शिक्षा जारी रखी। शिक्षा

समाप्त करने के बाद वह अब भी अपने स्वर्गवासी पिता की इच्छा का आदर करते हुए एक स्वाधीन काँट्रैक्टर बनना चाहता था तथा इमारतों के नक्शे अपनी पसन्द से बनाना चाहता था। यह उसका एक बहुत बड़ा स्वप्न था जिसे वह अपनी तेज बुद्धि के कारण बहुत आसानी से पूरा कर सकता था। यही कारण था कि वह लंदन की बड़ी-बड़ी फर्मों में नौकरी का प्रस्ताव आकर्षक होते हुए भी सदा ठुकराता चला आया था। वन्दना को पता चला कि रोहित अनाथ है तो उसे उससे सहानुभूति भी हो गई। उसकी योग्यता के विषय में जब उसे जानकारी प्राप्त हुई तो उसने अपने भाग्य को धन्य कहा। उसने ही नहीं उसकी अंग्रेज मां ने भी ईश्वर को धन्य कहा जिसने वन्दना के जीवन में प्रेम की डोर रोहित जैसे गुणी नवयुवक से बांध दी थी। रोहित को उसने मां का प्यार दिया। यूं भी रोहित के विषय में सब-कुछ जने बिना उसकी अन्तरात्मा रोहित को बेटी के लिए पहले ही पसन्द कर चुकी थी। वन्दना के सौतेले पिताजी भी वन्दना तथा अपनी पत्नी की प्रसन्नता में पूर्णतया सम्मिलित थे।

धूप और चढ़ गई। दुर्गापुर गांव में अपनी कोठी की ऊपरी मंजिल पर वन्दना को अच्छी धूप लग रही थी परन्तु उसका दिल बहुत उदास था। पिछली बातें याद करके जब उसका मन और भी भारी हो गया तो उसने मंजिल से नीचे उतर जाना चाहा। अभी वह सीढ़ियों की ओर पलटी भी नहीं थी कि तभी उसने देखा एक नवयुवक बहुत ध्यान से उस ताड़ के तने की चोटी को देख रहा है जिससे वन्दना के बचपन की एक मासूम याद सम्बन्धित थी। युवक अपरिचित था। वह गांव में पहली बार दिखाई दे रहा था। लंदन से दस वर्ष बाद वहां लौटने पर गांव के सभी वासियों ने उससे मुलाकात भी की। भारत को स्वतन्त्र हुए एक युग बीत गया था फिर भी ‘छोटी रानी-छोटी रानी’ कहकर सभी ने उसका आदर किया था। उससे हार्दिक सहानुभूति प्रकट की थी। सहानुभूति दिखाने उसके यहां आने के अगले ही दिन से उससे उसके गम कम हो गए थे। गम? कैसा गम था उसको? उसने वहां क्या खो दिया था? अपने जीवन की सारी प्रसन्नताएं। लंदन से दस वर्ष बाद लौटी थी, अकेली नहीं, रोहित के साथ, अपने दादाजी के सैक्रेटरी का तार प्राप्त करके, क्योंकि उसकी दादी का निधन हो गया था। उधर उसके सौतेले पिताजी का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं था इसलिए मां नहीं आ सकी थी। सौतेले पिता का स्वास्थ्य

अचानक ही खराब हो जाने के कारण ही मां संसार की लंबी यात्रा पर भी नहीं निकल सकी थीं जिसका प्रबन्ध वह पहले ही पासपोर्ट तथा वीसा लेकर कर चुकी थीं। यात्रा के मध्य भिन्न-भिन्न देशों में ठहरने का समय सीमित था इसलिए वह इस सीमित समय का उपयोग अपने पति के स्वस्थ होते ही तुरन्त करने के पक्ष में थी। पता नहीं फिर संसार की ऐसी सुन्दर यात्रा का अवसर कब मिलता या कभी नहीं भी मिलता? इस संसार में कुछ ऐसे ऐतिहासिक देश हैं जहां यात्रा का नियम बदलते अधिक देर नहीं लगती। वन्दना की विदेशी मां भारत नहीं आई परन्तु उदार मन की होने के कारण वन्दना के कहने से उसने रोहित को उसके साथ जाने की आज्ञा दे दी थी। यूं भी वन्दना की मां को अपने भारतीय सास ससुर से कोई लगाव नहीं था जिनकी व्यक्तिगत शत्रुता के कारण उसने भारत आते ही अपना पहला पति खो दिया।’ दस वर्ष बाद वन्दना रोहित के साथ दुर्गापुर पहुंची थी तो शाम ढल चुकी थी। गहरा अन्धकार था। गहरी खामोशी थी। गांववासी बहुत संतोष की नींद सो रहे थे। वन्दना अपनी दादी की मृत्यु के दस दिन बाद ही दुर्गापुर पहुंची थी क्योंकि लंदन में अनथक प्रयत्न करने के पश्चात् पासपोर्ट या अन्य आवश्यक कागजात प्राप्त करने में इतना समय लग

गया था। तब तक तो उसकी दादी की चिता की राख भी ठण्डी हो चुकी थी। दुर्गापुर में आकर वन्दना जब अपनी कोठी में प्रविष्ट हुई तो उसके दादाजी बेहोश थे, जीवन से थके-हारे। कोठी का वही पुराना सैक्रेटरी था जो वर्षों से उसके दादाजी की सेवा बहुत वफादारी से कर रहा था। दादाजी की दिन-रात देखभाल के लिए सैक्रेटरी ने एक नर्स भी रखी थी जो नियमित समय से उन्हें दवा और इंजेक्शन देती रहती थी। परन्तु वन्दना के दादाजी को कोई भी लाभ अब तक नहीं हुआ था। बेहोशी में वह अपनी पत्नी के साथ बेटे का नाम भी ले रहे थे। बेहोशी में कभी-कभी दांत पीसकर वह शेर सिंह से भी बदले की भावना प्रगट कर रहे थे। शायद ऐसा इसलिए था क्योंकि उनकी पत्नी ने मरने से पहले स्वयं भी बेटे को बहुत याद किया था जिसकी हत्या का सदमा उन्हें बहुत बड़ा पहुंचा था। बेटे की हत्या के बाद वह सदा अन्दर ही अन्दर घुटती रहती थीं। नर्स के साथ सैक्रेटरी भी कोठी के अलग कमरे में दिन-रता रहता था। कोठी में तो वह आरम्भ से ही रहता आया था परन्तु उसका परिवार शहर में उसके सास-ससुर के यहां था, जहां कभी-कभी वह अपने परिवार से मिलने चला जाता था क्योंकि उसके बच्चे शहर के ही स्कूल में पढ़ते थे। कोठी में खाना पकाने के लिए एक

महाराजिन भी थी, जो सुबह आती थी और शाम को चली जाती थी। वन्दना ने अपने दादाजी की दयनीय स्थिति देखी तो दिल फट गया। दादाजी की छाती से लिपटकर वह फूट-फूटकर रो पड़ी। उसने तय कर लिया कि वह अपने दादाजी को एक बड़े शहर के बड़े अस्पताल में ले जाकर उनका पूरा इलाज करवाएगी, रोहित से भी वन्दना के दादाजी की हालत देखी नहीं गई। उसने वन्दना के इरादों में पूरा साथ देना आवश्यक समझा। वन्दना के दिल की शांति में ही उसका अपना प्यार सुरक्षित था। उसी रात जब वन्दना अपने दादा के कमरे में लेटी हुई थी तो एक युग के बाद डाकू शेरसिंह के आदमियों ने अचानक हमला किया। हमला करने का कारण था, शेर सिंह को अपने सूत्रों द्वारा पता चल गया था कि ठाकुर नरेन्द्र सिंह की खूबसूरत पोती अपने दादा से मिलने आई है। यही कारण था कि उसने उसका अपहरण करने के लिए अपने आदमियों को सुबह होने से पहले ही भेज दिया था। हमला अचानक था। इतने वर्षों बाद था। फिर भी गोलियों का धमाका सुनकर गिने-चुने साहसी युवक कोठी की ओर दौड़ पड़े थे। हमले का मुकाबला रोहित तथा नरेन्द्र सिंह के सैक्रेटरी ने भी बन्दूकों द्वारा किया, जिसमें निर्दोष नर्स भी

अकारण ही मारी गई। नरेन्द्र सिंह के सैक्रेटरी को भी अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। फिर भी अपहरण असफल रहा। डाकू भाग खड़े हुए तो रोहित ने उनका पीछा किया लेकिन बहुत दूर से। उस दिन के बाद से रोहित कभी नहीं जीवित लौटा। आक्रमण के दो दिन बाद एक गली-सड़ी लाश समीप की नदी में पाई गई थी जिसका सिर काटकर धड़ से अलग कर दिया गया था। यदि उसके शरीर पर रोहित के कपड़े नहीं होते तो वन्दना भी उसे नहीं पहचान सकती थी। रोहित के लिए वन्दना ही सब कुछ थी और वन्दना के लिए रोहित। वन्दना को इस बात ने बहुत सहारा दिया कि रोहित के लिए आंसू बहानेवाला इस संसार में उसके अतिरिक्त कोई नहीं था। संसार में रोहित का और था भी कौन? वन्दना अपने दिल पर सब्र का मनोबोझ पत्थर रखकर चुप हो गई थी। उसे तसल्ली देने के लिए वहां केवल गांववासी ही रह गए थे, दादाजी तो अब अर्द्ध बेहोश थे। उन्हें तो यह भी पता नहीं था कि उनके सिर पर से कयामत का इतना बड़ा तूफान निकल गया है। यदि वन्दना के सामने शेर सिंह पड़ जाता तो वह अपनी जान की चिन्ता न करते हुए उसका मुंह नोच लेती। उसे पेड़ से बंधवाती और फिर अपने हाथों से उस पर पैट्रोल छिड़ककर आग लगा देती। कमबख्त के बाप ने

उसके पिता को उसके उत्पन्न होने से पहले ही मृत्यु के घाट उतार दिया था। उसी के कारण ही आज उसके दादाजी एक जीती-जागती लाश बने हुए थे। और अब उसके बेटे शेर सिंह के कारण उसके प्रेमी, उसके होने वाले मंगेतर को भी अपनी जान से हाथ धोना पड़ गया था। वन्दना के अन्दर शेर सिंह के प्रति इतनी अधिक घृणा भर गई थी कि वह उसे मरवाने के लिए अब अपने जीवन की हर बाजी लगाने को तैयार थी। रोहित की लाश के अन्तिम संस्कार में गांव के सभी वासी सम्मिलित हुए थे। कुछ दिनों के बाद शेर सिंह के आतंक से परेशान होकर सरकार ने दुर्गापुर में एक पुलिस चौकी का प्रबन्ध कर ही दिया परन्तु अब क्या होता है? सब कुछ तो उसका लुट गया। रोहित की हत्या के बाद वन्दना तुरन्त अपनी मां के पास चली जाना चाहती थी परन्तु बीमार दादाजी को छोड़ने का साहस नहीं हुआ। मां को भी उसने रोहित की हत्या के विषय में तुरन्त बताना उचित नहीं समझा था। मां उसे तुरन्त भारत छोड़कर आने की आज्ञा दे देती। अपने पति की हत्या के बाद अब वह अपनी एकमात्र बेटी के जीवन पर किस प्रकार भय मोल ले सकती थी? वन्दना अपने दादाजी को लेकर शहर के अस्पताल पहुंच गई थी। अस्पताल में

दादाजी की स्थिति कुछ सुधरी तो उन्होंने इच्छा की कि वह अपनी अन्तिम सांसें उसी कोठी में तोड़ना चाहते हैं जहां उनके बेटे तथा पत्नी ने दम तोड़ा है, अपने खानदानी स्तर का ध्यान रखते हुए। परन्तु वन्दना की जिद के आगे उनकी एक भी नहीं चली। आखिर वह स्वस्थ हो ही गए। स्वस्थ होकर वह कोठी में आराम करने फिर चले गए ताकि कुछ दिनों बाद जब पासपोर्ट बन जाए तो वह अपनी पोती के साथ लंदन चले जाएं। वहां जाकर यदि इच्छा हुई तो वह अपने भारतीय परिचित लोगों द्वारा कोठी को बेच देंगे या फिर यहां वापस चले आएंगे। जीवन के अब दिन ही कितने शेष थे? इसके पश्चात् शेर सिंह से बदले की भावना अब भी ज्वाला समान उनके दिल के अन्दर भड़क रही थी। रोहित की हत्या हुए आज दो मास से भी अधिक हो चले हैं। वन्दना को अपने दादाजी के लिए पासपोर्ट की प्रतीक्षा है परन्तु दादाजी की अस्वस्थता के कारण पासपोर्ट मिलने में विलम्ब हो रहा है। फिर भी पासपोर्ट तो मिल ही जाएगा। आखिर लोग अस्वस्थ होने के कारण इलाज कराने के लिए भी तो लंदन जाते हैं। ठाकुर नरेन्द्र सिंह की अस्वस्थ कमजोरी का यह हाल था कि अभी अपने शरीर का भार संभालकर चलना भी उनके लिए कठिन था। फिर भी कोठी के अन्दर वह दो चार पग चल ही लेते थे। आखिर

एक स्थान पर बैठे-बैठे भी तो आदमी का मन उकता जाता है। इस बीच वन्दना को अपनी विदेशी मां से केवल एक पत्र आया। उसका पति स्वस्थ हो चुका है और अब वह शीघ्र ही उसके साथ विदेश की एक लम्बी यात्रा पर जा रही है। वह एक प्रयोगात्मक जीवन पर विश्वास करती थी इसलिए उसने इतनी लम्बी यात्रा द्वारा समय नष्ट करके इतना धन खर्च करके भारत आने के बाद शोक में केवल दो शब्द कहना बिल्कुल मूर्खता समझा । रोहित की हत्या से अनभिज्ञ उसने नरेन्द्र सिंह की पत्नी की मृत्यु पर खेद प्रकट करते हुए अपने पत्र में केवल दो पंक्तियों से ही काम चला लिया था। अपने पत्र का उत्तर देने के लिए भी उसने वन्दना को मना कर दिया था क्योंकि अपने पति की इच्छा पर वह किस देश में कितने समय तक रहेगी, पहले से स्वयं नहीं जानती थी। उसने लिखा था कि आवश्यकता पड़ने पर वह कभी-कभी उसे स्वयं पत्र डाल दिया करेगी। वन्दना के पक्ष में यह अच्छा ही सिद्ध हुआ। न वह अपनी मां को पत्र लिखेगी और न उसे रोहित की हत्या के विषय में कुछ बताने का अवसर ही मिलेगा।धूप और चढ़ रही थी परन्तु वन्दना की दृष्टि उस नवयुवक पर आकृष्ट होकर ठहर गई थी जो गंजे ताड़ के समीप अब तक खड़ा जाने क्या सोच रहा था। अचानक वन्दना ने देखा कि वह नवयुवक उसकी कोठी की ओर बढ़ रहा है। वन्दना ने उसमें रुचि नहीं ली, फिर भी वह पलट कर उतरती सीढ़ियों की ओर नहीं गई। नवयुवक जैसे-जैसे कोठी के समीप आता गया, वन्दना को ऐसा लगा जैसे उसने उस नवयुवक को कभी देखा है। कब? कहां? वह याद नहीं कर सकी तो अपने मस्तिष्क पर जरा जोर देने लगी। फिर भी कुछ नहीं याद आया तो वह अपना मन झटक कर नीचे जाने के लिए सीढ़ियां उतरने लगी। वह बीच के कमरे में पहुंची तो दरवाजों के परदों के बीच उसने देखा कि वह नवयुवक कोठी के बरामदे की सीढ़ियां चढ़ रहा है। वन्दना तुरन्त बाहर निकल गई। नवयुवक उसके सामने पहुंचकर रुक गया। हट्टा-कट्टा नवयुवक, रंग सांवला था फिर भी उसके व्यक्तित्व में एक विचित्र ही आकर्षण था। काली घनी लटें, काली आंखें, घनी भवों के नीचे यह आंखें मुस्कराती चमक रखती थीं। उसके होंठों पर भी एक बहुत ही हल्की मुस्कान थी। इन गुणों के पश्चात् वन्दना को वह नवयुवक जरा भी अच्छा नहीं लगा बल्कि उसके होंठों पर अपने प्रति मुस्कान देखकर उसे सख्त क्रोध आ गया। उसने अपने

मस्तक पर बल डालकर उस नवयुवक से सख्ती के साथ पूछा, ‘किससे मिलना है?’ ‘आप जागीरदार साहब की पोती वन्दना ही हैं ना?’ नवयुवक ने वन्दना के रुष्ट व्यवहार की चिंता न करते हुए उसी मुस्कान से पूछा। ‘हां’, वन्दना ने उत्तर दिया। पूछा, ‘क्यों?’ ‘मैं—अमर हूं, अमर सिंह।’ नवयुवक ने अपना परिचय दिया। ‘अमर सिंह! कौन अमर सिंह?’ वन्दना मानो उसे जानती ही नहीं थी। ‘जी—’ अमर ने कहा, ‘मैं मोहन सिंह का लड़का हूं, वही मोहन सिंह जो आपके दादाजी के सेवक थे। मैं भी कभी इसी गांव में रहता था। माता-पिता की हत्या हो गई तो मैं इस संसार में अनाथ रह गया हूं। आपके लंदन जाने के बाद मैं बम्बई चला गया था। वहीं एक अंग्रेज शिकारी बाबू के यहां नौकरी मिल गई। अब शिकारी बाबू अपने देश वापस चले गए तो अपने माता-पिता की बदले की भावना मुझे अपने गांव वापस ले आई है। कल ही रात मैं गांव पहुंचा हूं। गांव के चाचा के यहां ठहरा हूं। वहीं से आपके विषय में पता चला तो बहुत दुःख हुआ। सोचता हूं कि मेरे पिता

आपके पिता के सेवक थे इसलिए अब क्यों न डाकू शेर सिंह तथा उसके आदमियों से मैं अपने साथ आपका बदला भी ले लूं।’ ‘तुम्हें ज्ञात नहीं कि शेर सिंह कितना भयानक आदमी है?’ वन्दना ने अमर के व्यक्तित्व को परखते हुए कहा, ‘जब पुलिस उसके अड्डे का पता नहीं चला सकी तो तुम क्या कर सकते हो?’ ‘जब तक यहां हूं इस गांव में कम-से-कम आपके पिता की सुरक्षा का भार तो संभाल ही सकता हूं।’ अमर ने कहा। ‘बहुत विश्वास है अपने ऊपर?’ वन्दना ने व्यंग्यात्मक ढंग से पूछा, जैसे उसका मजाक बना रही हो। ‘बहुत अधिक।’ अमर ने पूरे विश्वास से मुस्कराकर कहा, ‘चाहें तो आप मेरी योग्यता की परीक्षा ले सकती हैं।’ तभी अंदर से उन दोनों का स्वर सुनकर ठाकुर नरेन्द्र सिंह बरामदे में आ गए। उन्होंने अमर को बहुत ध्यान से देखा, अपनी बूढ़ी आंखों पर जोर डालते हुए, इस प्रकार, मानों पहचानने का प्रयत्न कर रहे हों। तभी अमर ने हाथ जोड़कर उन्हें नमस्ते किया और फिर अपना परिचय दे दिया। ठाकुर नरेन्द्र सिंह को अमर के पिता तुरन्त याद आ गए। उनके होंठों पर एक ठंडी आह चली आई। वह वहीं बरामदे में

रखी एक कुर्सी पर बैठ गए। कमजोरी के कारण वह थोड़ी ही देर में खड़े-खड़े थक गए थे। उन्होंने अमर सिंह से उसका हाल-चाल पूछा। अमर ने उन्हें भी बताया कि वह यहां से जाने के बाद एक अंग्रेज शिकारी के यहां काम करता था। उनके साथ वह अधिकतर शिकार पर रहा करता था। साथ रहते-रहते वह भी बन्दूक और रिवॉल्वर का अचूक निशानेबाज बन गया है। उसने अपनी जेब से एक रिवॉल्वर निकाली। एक चमकती हुई विदेशी रिवॉल्वर – छोटी-सी, खिलौने समान, जिस पर ठाकुर नरेन्द्र सिंह की ही नहीं उनकी बेटी वन्दना की भी दृष्टि ठहर गई। उसने कहा, ‘एक बार मैंने उस अंग्रेज शिकारी की जान डाकुओं से बचाई थी। इसीलिए उन शिकारी बाबू ने मुझसे खुश होकर यह रिवॉल्वर हमेशा के लिए मुझे ही दे दी है। उसने रिवॉल्वर अपने हाथों में खिलौने समान नचाई। फिर रिवॉल्वर नरेन्द्र सिंह की ओर बढ़ा दी। नरेन्द्र सिंह ने रिवॉल्वर अपने हाथों में लिया। उनके निर्बल हाथों के लिए रिवॉल्वर भारी था। उन्होंने अपने कुर्ते की पॉकेट से अपना चश्मा निकाला। उसे आंखों पर लगाया। उलट-पुलट कर वह रिवॉल्वर को देखने लगे। रिवॉल्वर छोटी परन्तु असाधारण थी। रिवॉल्वर उन्हें बहुत पसन्द आई।

‘दादाजी-’ तभी वन्दना ने ठाकुर नरेन्द्र सिंह से कहा, ‘इसे अपने ऊपर कुछ अधिक ही विश्वास का भ्रम है। यह शेर सिंह से बदला लेना चाहता है। बल्कि गांव में रहकर हमारी सुरक्षा का भार संभालना चाहता है। इसे समझाइए कि यह क्यों अपनी जान का दुश्मन बना हुआ है।’ ‘तुम्हारे माता-पिता ने हमारी जान की रक्षा करते हुए अपनी जान की बाजी लगा दी थी।’ नरेन्द्र सिंह ने अमर को समझाया, ‘अब तुम भी हमारी जान की रक्षा करते हुए अपनी जान गंवाओ, यह हम नहीं सहन कर सकेंगे। आखिर तुम क्यों हमारे जीवन की सुरक्षा करने के लिए इतने उत्सुक हो?’ नरेन्द्र सिंह का स्वर कमजोरी के कारण कुछ कांप रहा था। ‘मैं आपके जीवन की सुरक्षा ही नहीं करना चाहता बल्कि शेर सिंह से अपने माता-पिता के साथ आपका भी बदला लेना चाहता हूं।’ अमर ने कहा। ‘मेरा बदला?’ ‘जी हां।’ अमर ने कहा, ‘पिताजी ने अपने जीवनकाल में मुझसे एक बार कहा था कि बेटा यदि मैं जागीरदार साहब का बदला शेर सिंह से नहीं ले सकूंगा तो यह काम तुम अवश्य पूरा कर देना।’

ठाकुर नरेन्द्र सिंह की आंखों के सामने ही वह दृश्य नहीं आया बल्कि वन्दना के कानों में भी मोहन सिंह के वे शब्द गूंज गए जब उन्होंने कहा था, ‘यदि आपको कुछ हो गया जागीरदार साहब तो विश्वास कीजिए आपका बदला, यदि भगवान ने चाहा, तो मैं लूंगा -मैं। यदि मैं भी किसी कारण आपका बदला लेने में असमर्थ रहा तो मेरा बेटा आपका बदला लेगा।’ ठाकुर नरेन्द्र सिंह को अपने प्रिय सेवक, अपने मित्र की उन बातों का मूल्य आज पता चल रहा था। मोहन सिंह मर गया था परन्तु अपने वचन को निभाने में उसने कोई कमी नहीं छोड़ी थी। उन्होंने अमर को बहुत ध्यान से देखा। कुछ समझ में नहीं आया कि अपने स्वार्थ के लिए वह इस नवयुवक के जीवन को कैसे नर्क के रास्ते पर ढकेलें? ‘एक दिन आपकी पोती ने मुझे ईमानदारी की शिक्षा दी थी।’ अमर ने ठाकुर नरेन्द्र सिंह को असमंजस में देखा तो कहा, वन्दना को एक बार देखने के बाद, ‘यह उसी शिक्षा का परिणाम है जिसने मुझमें तुरन्त एक नया व्यक्ति बनने की लगन उत्पन्न कर दी थी। यह उसी लगन का परिणाम है जो आज मैं अपने पिता की इच्छा का आदर तथा आज्ञा का पालन करने के लिए आपकी सेवा का सौभाग्य प्राप्त करना चाहता हूं।’

वन्दना की आंखों के सामने वह दृश्य घूम गया जब उसने अमर को ताड़ के नीचे छाता लगाकर बैठे हुए ताड़ी चुराकर पीते देखा था। परन्तु वह उस शरारत भरी घटना याद करके इस गम्भीर अवसर पर मुस्करा नहीं सकी। आगे चलकर न सही, परन्तु अपने दादाजी के पासपोर्ट बनने तक तो उसे निश्चय ही इस कोठी के लिए एक व्यक्तिगत रक्षक की सख्त आवश्यकता थी। ऐसा ही नरेन्द्र सिंह ने भी सोचा। उन्हें अपने से अधिक अपनी बेटी के जीवन की चिंता थी। शेर सिंह के आक्रमण करने पर पता नहीं पुलिस कोठी कब तक पहुंचे? ‘जब तक तुम हमारी रक्षा करोगे तब तक हम अच्छे-से-अच्छा मूल्य वेतन के रूप में चुकाते रहेंगे।’ वन्दना ने कहा, ‘परन्तु जिस दिन तुम शेर सिंह से बदला लेने में सफल हो गए, जिस दिन तुम उसे जीवित या मुर्दा गिरफ्तार करने में सफल हो गए तो हम तुम्हें तुम्हारी मुंहमांगी कीमत भी अदा कर देंगे। परन्तु—’ वन्दना ने कुछ सोचकर पूछा, ‘इसका क्या सबूत है कि तुम हमारी सुरक्षा करने में वाकई सफल हो जाओगे?’ ‘इस बात का अनुमान आप मेरा कमाल देखकर लगा सकती हैं।’ अमर ने नरेन्द्र सिंह के हाथ में अपनी रिवॉल्वर देखते हुए कहा।

नरेन्द्र सिंह ने उसे रिवॉल्वर वापस कर दिया। अमर को मानो अपना कमाल दिखाने के लिए चुनौती मिल चुकी थी। उसने रिवॉल्वर को एक बार खिलौने के समान नचाया। फिर उसे अपनी जेब में रखकर कोठी के उजड़े लॉन में उतर गया। वह थोड़ा आगे बढ़ा तो उसका कमाल देखने के लिए वन्दना बरामदे के किनारे पर आकर खड़ी हो गई। नरेन्द्र सिंह वहीं बैठे-बैठे ही कमाल देखने के लिए उत्सुक हो गए। अमर ने लॉन में खड़े होने के बाद अचानक एक बड़ी चुस्ती दिखाई। उसने अपने बाएं हाथ द्वारा पैंट की बायीं जेब से लोहे का एक सिक्का निकाला और हवा में उछाल दिया, फिर उसी क्षण एक झटके से कमर को बल देकर उसने दाहिने हाथ द्वारा अपनी बायीं पॉकेट से रिवॉल्वर निकाली। इसी तेजी तथा फुर्ती के साथ उसने हवा में उछले सिक्के पर अपनी रिवॉल्वर द्वारा एक गोली चला दी। धमाका हुआ और धमाके के साथ गोली सिक्के पर लगी। ठन! सिक्का ऊपर को उछला। अमर ने सिक्के पर गोली फिर चलाई। निशाना अचूक था। ठन के साथ सिक्का फिर उछला। अमर ने एक और गोली चला दी। इस बार सिक्का आड़ा होकर उछला। वह जमीन पर गिर जाना चाहता था कि अमर ने सिक्के पर एक गोली और दाग दी। सिक्का

दूर जाकर गिर पड़ा। अमर ने रिवॉल्वर की नली अपने होंठों द्वारा फूंकी। फिर उसे अपनी पैंट की पॉकेट में रखा। उसके बाद उसने लपककर सिक्का उठा लिया। सिक्का एक ओर से टेढ़ा होकर फट गया था। सिक्का लिए अमर नरेन्द्र सिंह के पास आया। वन्दना तथा नरेन्द्र सिंह उसे बड़े आश्चर्य के साथ फटी-फटी दृष्टि से देख रहे थे। अमर ने सिक्का नरेन्द्र सिंह के हाथ में थमा दिया। नरेन्द्र सिंह ने सिक्के को बहुत ध्यान से देखा। यदि उन्होंने वास्तव में ऐसा निशाना अपनी आंखों से नहीं देखा होता तो कभी ऐसे निशानेबाज के होने के विषय में वह सोच भी नहीं सकते थे। ऐसे निशानेबाज की गिनती तो केवल अमेरिका के ‘काऊ बॉयज’ में 19वीं सदी में हुआ करती थी। जाने किस दबाव के अन्तर्गत ठाकुर नरेन्द्र सिंह को विश्वास हो गया कि यह नवयुवक बहुत काम का है। शायद यह उनकी अन्तरात्मा थी जिसने उन्हें विश्वास दिला दिया कि अमर उनके खानदान का बदला शेर सिंह से लेने में सफल हो जाएगा। उनके दिल के अंदर शेर सिंह से बदला लेने की ऐसी आग भड़क रही थी कि जिसे बुझाने के लिए वह किसी पर भी विश्वास करने को तैयार हो सकते थे। उस बाप के दिल के अन्दर कोई झांककर देखे कि उस पर क्या बीतती है जिसने अपना हंसता-खेलता एकमात्र तथा निर्दोष बेटा केवल हत्या के कारण खो दिया है।

उन्होंने आशाओं की एक किरण देखकर गहरी सांस ली। फिर बोले, ‘निश्चय ही तुम्हारे अन्दर ऐसा अचूक निशानेबाज देखकर मेरे अन्दर शेर सिंह से बदले की भावना एक बार फिर जागृत हो उठी है। मुझे निस्संकोच तुम पर विश्वास करना भी चाहिए। परन्तु इसके लिए तुमको चौबीसों घंटे मेरी कोठी में ही रहना पड़ेगा। तुम्हें इस कोठी के अन्दर मेरे सैक्रेटरी वाला कमरा दे दिया जाएगा।’ अमर के लिए इससे बढ़कर और क्या बात हो सकती थी। उसने जो इच्छा नहीं की थी वह भी बिना मांगे पूरी हो गई। वन्दना को देखने के बाद तो उसमें वन्दना का व्यक्तिगत रक्षक ही बनने की इच्छा हुई थी। वन्दना के पास दिन-रात कोठी में रहने का उसे अवसर मिला तो उसने स्वयं को धन्य कहा। ‘बेटी-’ नरेन्द्र सिंह ने वन्दना को देखा। अमर के दिल में उमड़ती इच्छाओं से अनभिज्ञ उन्होंने वन्दना से कहा, ‘ऐसा करो, अब तुम अकेली ही लंदन चली जाओ। यहां रहकर मैं अब एक बार और अपने दिल के अन्दर बदले की भभकती ज्वाला को ठंडा करने का प्रयत्न करना चाहता हूं। मरने से पहले मेरी यह इच्छा पूरी हो जाएगी तो मैं बहुत शांति के साथ दम तोड़ सकूंगा।’अमर अचानक उदास हो गया, वन्दना के लिए ही तो वह इस कोठी में रहकर नरेन्द्र सिंह तथा वन्दना के जीवन का रक्षक बनने का इच्छुक हुआ था। बदला लेने के लिए तो वह शेर सिंह के जंगल में भी चक्कर लगाकर अपना समय काट सकता था। अब वह इस विषय में नरेन्द्र सिंह से क्या कहे? ‘आप लंदन नहीं चलेंगे तो भला मैं कैसे जा सकती हूं?’ वन्दना ने कहा, ‘आपकी देखभाल करने के लिए मेरा आपके पास रहना अत्यन्त आवश्यक है। चलिए मैं भी रुक जाती हूं। जाने की बात हम तब सोचेंगे जब आपका पासपोर्ट बनकर आ जाएगा। तब तक आप और स्वस्थ हो जाएंगे।’ वन्दना की बात सुनकर अमर के दिल में मुरझाता फूल एक बार फिर आशाओं की किरण देखकर मुस्करा दिया। कैसी आशाएं थीं इस किरण के पीछे? दिल के अन्दर यह कैसा फूल था जो वन्दना से बिछड़ने का आभास करके मुरझा चला था और न बिछड़ने के एहसास से मुस्करा रहा था? तभी वहां रिवॉल्वर के धमाके सुनकर गांववाले आ गए। पुलिसवाले भी लपक आए थे। ऐसा तो नहीं कि डाकुओं

ने नरेन्द्र सिंह की कोठी पर फिर आक्रमण कर दिया है? गांववालों को पुलिसवालों का बहुत सहारा था। उनके सहारे ही वे डाकुओं को मुकाबला करने को चले आए थे। पुलिसवालों के हाथों में बन्दूक थीं तो गांववालों के हाथों में लाठी। नरेन्द्र सिंह ने पुलिस की जांचपर इंस्पेक्टर को अमर के कमाल के निशाने के विषय में बताकर अपना लंदन न जाने का इरादा बताया तो सब सन्तुष्ट होकर चले गए। नरेन्द्र सिंह को ही नहीं गांववालों को भी शेर सिंह जैसे लुटेरे से बचने के लिए अमर सिंह जैसे नवयुवक की सख्त आवश्यकता थी।

अमर को कोठी में रहते हुए कुछेक दिन बीत गए। इन दिनों उसने अपने निशाने का अभ्यास खूब जारी रखा। नरेन्द्र सिंह ने उसे रिवॉल्वर रखने की एक पेटी भी दे दी थी। पेटी को कमर पर बांधकर इसमें दो रिवॉल्वर रखी जा सकती थीं। उन्होंने अमर को अपनी भी एक रिवॉल्वर अपने साथ इस पेटी में रखने के लिए दे दी। दोनों ही रिवॉल्वर का उपयोग अलग-अलग दोनों हाथों से एक साथ करने में अमर को कोई कठिनाई नहीं हुई। उसका निशाना सदा अचूक रहा। नरेन्द्र सिंह ने अमर को एक बड़ी बन्दूक भी दे दी थी जिसे अपने साथ अमर सिंह पलंग पर रखकर ही खटके की नींद सोया करता था। रात के समय हल्का-सा खटका होते ही वह बन्दूक लिए कोठी के चारों ओर चक्कर लगा लेता था। बन्दूक हाथ में होती और रिवॉल्वर कूल्हे पर पेटी के अन्दर। नरेन्द्र सिंह तथा वन्दना शयन-कक्ष का द्वार चारों ओर अन्दर से अच्छी तरह बन्द करके ही सोते थे। चौकी के पुलिसवाले रात के समय कोठी के चारों ओर विशेष चक्कर लगाते थे। अमर को नरेन्द्र सिंह से अधिक अब वन्दना की चिन्ता लगी रहती थी। रात के समय जब वह पलंग पर लेटता तो केवल वन्दना के लिए ही सोचता रहता। वन्दना के मुखड़े

पर सदा छाई रहनेवाली गंभीरता तथा उदासीनता उसके दिल में उतर गई थी। वह सोचता कि बचपन में वन्दना कितनी भोली-भाली थी – बिल्कुल एक गुड़िया समान। उसके एक ही बार कह देने से उसका अपना जीवन कितनी आसानी के साथ बदल गया था। तब शायद अनजाने तौर पर ही उसका दिल वन्दना की इच्छा पूरी करने को उतावला हो गया था परन्तु अब जब वह वन्दना के इतना समीप रहने लगा तो उसके दिल में वन्दना के प्रति सहानुभूति ही नहीं, प्यार का बीज फूट पड़ना स्वाभाविक था। परन्तु वह अपनी औकात का ध्यान रखते हुए सदा चुप ही रहा। वन्दना को अपने रोहित से प्यार था इसलिए अमर भी अपने प्यार से खामोश प्यार करता हुआ संतुष्ट हो गया। यही कारण था कि वन्दना के मुखड़े पर फूल जैसी मुस्कान लाने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार था। शेर सिंह से आमने-सामने टक्कर लेने के लिए उसकी बांहें सदा ही फड़कती रहती थीं। वन्दना को वह देखता तो चोर दृष्टि से, वन्दना की दृष्टि बचाकर। फिर भी जाने कैसे, शायद मनोवैज्ञानिक तौर पर या अपनी अन्तरात्मा द्वारा, जब वन्दना महसूस करती कि कोई उसे छिपकर देख रहा है तो वह पलट पड़ती थी, तब अमर तुरन्त दूसरी ओर दृष्टि फेरकर ऐसा प्रगट करता मानो उसके मन में वन्दना के प्रति कुछ नहीं है। वन्दना तब भी

अमर पर सन्देह करने लगती कि अमर के दिल में उसके जीवन की रक्षा करने की इच्छा होने के साथ कुछ और भावना का लक्ष्य भी है। परन्तु यह सन्देह उसका अपना सन्देह था जिसे प्रकट करके या अमर से इस विषय में कुछ पूछ के वह उसकी दृष्टि में शक्की बनने का साहस नहीं कर पाती थी। क्या विदेश में, जीवन व्यतीत करने के बाद भी ऐसे सन्देह का शिकार होना उस पर शोभा दे सकता था जिसके विषय में वह कुछ भी तो नहीं जानती थी? आखिर अमर एक नवयुवक ही तो है। यदि उसे देख रहा था तो क्या हुआ? जाने उसके दिल में उसके प्रति कुछ है भी या नहीं? यदि वन्दना को अमर की नीयत पर किसी भी प्रकार का सन्देह हो वह निश्चय ही उसे निकाल बाहर करती और फिर पासपोर्ट मिलते ही अपने दादा नरेन्द्र सिंह को लंदन ले जाने पर विवश कर देती। यद्यपि उसके दादा को अमर पर बहुत विश्वास था, उन्हें अमर से बहुत सारी आशाएं बंध गई थीं। परन्तु रोहित के प्रति अपना प्यार दिल में कम न करते हुए वह अमर के समीप एक क्षण भी रहना नहीं पसन्द करती। अमर पर किसी प्रकार का सन्देह न करने का एक मनोवैज्ञानिक कारण यह भी था कि उसके दादाजी ने अपने जीवन में असीमित गम उठाए थे, निर्दोष होते हुए अगणित अत्याचार सहे थे। आखिर क्यों नहीं उन्हें अपने दिल की

भड़कती आग को ठंडा करने का अधिकार मिलना चाहिए। वन्दना स्वयं भी तो अपने पिता तथा अपने रोहित के जीवन के बदले की आग में सुलग रही थी। शेर सिंह से बदला लेने को वह कुछ भी करने को तैयार थी। परन्तु अपने प्यार तथा अपने सम्मान की सुरक्षा की सीमा के अन्दर। अमर ने अपना कमाल दिखाकर वन्दना को दिल-ही-दिल में अनजाने तौर पर विश्वास दिला दिया था कि वह शेर सिंह तथा उसके आदमियों से बदला लेने का गुण रखता है। मन-ही-मन वह उसकी सराहना भी करती थी, परन्तु यह सराहना केवल सराहना ही थी। अमर के लिए और किसी प्रकार का स्थान उसके दिल में नहीं था। स्थान था तो केवल अपने रोहित के लिए, अटूट प्यार का स्थान, अमिट प्यार का स्थान। अमर सिंह की बहादुरी तथा गुणों की सूचना शेर सिंह को पहुंच गई। परन्तु उसने अमर सिंह की जरा भी परवाह नहीं की। बल्कि उसे खुशी प्राप्त हुई कि अब ठाकुर नरेन्द्र सिंह की सुन्दर पोती ने लंदन जाने के विचार में ढील दी है। यदि नरेन्द्र सिंह नहीं गया तो निश्चय ही उसकी देखभाल के लिए अब उसकी पोती भी नरेन्द्र सिंह के जीते जी लंदन नहीं जाएगी। उसने तय किया कि जब तक वह नरेन्द्र सिंह की पोती का अपहरण करके अपनी वासना की भूख नहीं मिटा लेगा तथा इसके साथ ही नरेन्द्र सिंह को तमाम समाज में

अपमानित नहीं कर देगा तब तक नरेन्द्र सिंह की हत्या नहीं करेगा। परन्तु समस्या यह थी कि अब वन्दना का अपहरण किया कैसे जाए, क्योंकि गांव में एक पुलिस चौकी का प्रबंध सरकार कर चुकी थी। पुलिसवालों के रहते हुए गांव पर आक्रमण करना आसान नहीं था। परन्तु शीघ्र शेर सिंह की इस समस्या को स्वयं ही हल होते अधिक देर नहीं लगी। जब एक दिन शहर में देश के प्रधानमंत्री का आना हो गया तब उनकी सुरक्षा के लिए शहर तथा आसपास और दूरदराज के गांव के पुलिसवालों को ड्यूटी अदा करने के लिए शहर के उस स्थान पर जाना पड़ गया जहां प्रधानमंत्री को अपना भाषण देना था। दुर्गापुर की पुलिस चौकी पर इस विशेष दिन केवल दो ही पुलिसवाले रह गए जिसका पता जब शेर सिंह को हुआ तो उसने इसे सुनहरा अवसर समझकर पूरा लाभ उठा लेना आवश्यक समझा। मंगल का दिन था। शाम के साढ़े चार, पांच बजे होंगे। वन्दना गांव के मन्दिर से प्रसाद लेकर लौट रही थी। मन्दिर जाते समय उसके पीछे-पीछे अमर भी गया था परन्तु मंगल होने के कारण मन्दिर में गांववासियों की इतनी भीड़ थी कि अमर को भगवान का दर्शन प्राप्त करने तथा प्रसाद लेने में

कुछ देर हो गई। मंगल को भगवान के दर्शन प्राप्त करना आवश्यक था क्योंकि यह उसका एक धर्म था। इसीलिए उसे मन्दिर में कुछ क्षणों के लिए रुक जाना पड़ गया। वन्दना जिस समय कोठी लौट रही थी उसे पूरा विश्वास था कि उसके पीछे-पीछे कुछ दूर पर अमर भी आ रहा है। चलते-चलते जब वह पुलिस चौकी से कुछ दूर गांव के एक निराले स्थान पर पहुंची तो अचानक घोड़ों की टाप सुनकर चौंक गई। वह गर्दन घुमाती हुई पलटी तभी कांपकर उसके शरीर के रोम-रोम खड़े हो गए। उसकी ओर गर्दन उठाते हुए पांच घुड़सवार बहुत तेजी के साथ बढ़ रहे थे। रंग रूप से ही घुड़सवार डाकुओं समान थे। दांत निकाल हंसकर वे अपनी जीत का प्रदर्शन कर रहे थे। वन्दना के हाथों से प्रसाद छूटकर नीचे गिर पड़ा। उसे तुरन्त अमर की आवश्यकता महसूस हुई। वहां से वह भाग निकली। ऐसा न हो कि वह डाकुओं की पकड़ में आ जाए। परन्तु तभी एक घुड़सवार डाकू ने उसे सामने से रोकते हुए तथा सावधान करते हुए एक हवाई गोली चला दी। डाकू ने उसे ही नहीं अन्य आने-जाने वाले गांववासियों को भी सावधान कर दिया कि कोई उनके काम में बाधा न डाले वरना उसे मौत के घाट उतरते एक क्षण भी नहीं लगेगा। गांववालों के कदम जहां-तहां कांपकर रुक गए, धरती से चिपक गए। वंदना भी कांपकर

घुड़सवार डाकू के सामने रुक गई। उसका रक्त शरीर के अन्दर जमने लगा। यदि उसकी मौत सामने मंडराती तो वह आंखें बन्द करके स्वयं को मौत के आगे समर्पित कर देती परन्तु वह जानती थी कि यह डाकू उसका अपहरण करने आए हैं। उसकी हत्या करनी होती तो आते ही उस पर गोली चलाकर मार दिया होता। उसने इधर-उधर देखा ताकि भाग निकलने का अब भी कोई रास्ता मिल जाए। सहस एक सिपाही अपना कर्त्तव्य निभाता हुआ अपनी बन्दूक लिए तुरन्त आ पहुंचा, उसने एक डाकू पर गोली चला दी। डाकू कंधे से घायल हो गया। सिपाही का साहस देखकर डाकुओं का रक्त उबल गया। एक डाकू ने सिपाही की छाती पर अपनी बन्दूक द्वारा एक अचूक निशाना बनाया और गोली दाग दी। सिपाही तड़पकर वहीं गिर गया। बन्दूक उसके हाथ से छूटकर दूर जा गिरी। गांववाले तथा वन्दना सन्न रह गए। एक डाकू घायल सिपाही के पास आया। वह अपने घोड़े से उतरा। घोड़े की जीन पर टंगी उसने एक रस्सी निकाली। रस्सी का एक फन्दा बनाकर उसने घायल सिपाही के दोनों पैरों को मिलाकर बांधा। फिर उसने घायल सिपाही की बन्दूक उठाई। रस्सी का दूसरा कोना लिए वह अपने घोड़े पर सवार हुआ। तभी दूसरे सिपाही ने चौकी से निकलना चाहा परन्तु डाकुओं का

अत्याचार देखकर वह आगे बढ़ने का साहस नहीं कर सका। जिस डाकू ने अधमरे सिपाही को अपनी रस्सी द्वारा बांधा था, उसने अपने घोड़े को ऐड़ लगाई। घोड़ा तेजी के साथ आगे बढ़ा। इसके साथ ही रस्सी से बंधा अधमरा सिपाही घोड़े के साथ खिंचकर जमीन पर रगड़ खाने लगा। वह घुड़सवार डाकू सिपाही को खींचते हुए तथा उसका शरीर जमीन पर रगड़ते हुए वहीं आसपास तेजी से चक्कर लगाने लगा। गांववासियों ने यह अत्याचार देखा तो उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो गए। स्त्रियों और पुरुषों ने अपनी-अपनी सन्तानों को छाती से लगा लिया। वन्दना भी ऐसे अत्याचार को सहन नहीं कर सकी। उसने अपनी आंखें बन्द कर लेना चाहा। दिल की धड़कन इस समय केवल अमर को ही पुकार रही थी। शायद इसीलिए अमर उसके दिल की आवाज गोली के एक धमाके के रूप में वहां आ गया। गोली चली थी परन्तु डाकुओं पर नहीं, घोड़े से बंधी उस रस्सी पर जिसके दूसरे किनारे पर बंधा सिपाही जमीन से निरन्तर रगड़ खाते हुए रक्त में नहाने के बाद अब किसी भी समय अपना दम तोड़ने ही वाला था। रस्सी कट गई तो सिपाही ने रस्सी के बंधन से मुक्त होने के बाद अपना दम तोड़ दिया। रस्सी वाला घुड़सवार डाकू चौंककर रुक गया। अन्य डाकुओं ने अमर का साहस देखा तो अपनी गोली द्वारा

उसे भी निशाना बनाकर सिपाही जैसी सजा देना चाही परन्तु अमर उनकी समझ से आगे था – फुर्तीला अलग। वह पहले ही खतरे के लिए तैयार था। उसने तुरन्त झुकते हुए दो गोली अपनी अलग-अलग रिवॉल्वर द्वारा दोनों हाथों से एक साथ चलाकर दो डाकुओं के हाथों को घायल कर दिया और उनकी बन्दूकें नीचे गिरा दीं। इसके साथ ही वह तुरन्त जमीन पर लेट गया और बिजली के समान करवटें लेकर आगे बढ़ते हुए दो गोलियां दोनों हाथों से एक साथ फिर चलाईं। पांचवीं गोली द्वारा उसने पांचवें डाकू को भी घायल करके जमीन पर ढेर कर दिया। चार डाकू जमीन पर लाश बनकर तड़प रहे थे परन्तु पांचवां डाकू हाथ से बन्दूक छूटने के पश्चात् घायल होकर अपने घोड़े पर सवार था। उसे सख्त क्रोध आया कि गांव के एक छोकरे ने पांच बहादुर डाकुओं को अपनी बहादुरी का शिकार इतनी आसानी से बना लिया। ऐसा तो वह कभी स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था। अमर अभी पूर्णतया खड़ा भी नहीं हुआ था कि उस घुड़सवार डाकू ने वन्दना को ले भागना चाहा। घोड़े को ऐड़ लगाकर वह वन्दना की ओर लपका। वन्दना अमर की ओर भाग खड़ी हुई। अमर के खड़े होते-होते वन्दना उसकी छाती से लिपट गई। डाकू ने अपना घोड़ा अमर पर चढ़ा देना चाहा परन्तु अमर के दोनों हाथों में अब भी रिवॉल्वर

थीं। उसने वन्दना को अपनी छाती में समाने के पश्चात् एक गोली डाकू की छाती तथा दूसरी गोली दूसरे हाथ द्वारा घोड़े के मस्तक पर मार दी। घोड़ा अमर तथा वन्दना के शरीर पर चढ़ते-चढ़ते नहीं उनके समीप ही गिरकर ढेर हो गया। डाकू भी मर चुका था। एक सन्नाटा-सा छा गया। वन्दना अब भी अमर की छाती से बुरी तरह लिपटी हुई थी, उसकी बांहें अमर की गर्दन का हार बनी सख्त थीं। उसकी सांसें तेज-तेज चल रही थीं। दिल की धड़कन बहुत तेज होकर मानो अमर की छाती में समा जाना चाहती थी। वन्दना की आंखें बन्द थीं। शरीर अब तक हल्के-हल्के कांप रहा था। अमर का मन हुआ वन्दना इसी प्रकार उसकी छाती से लगी रहें उसकी बांहें उसके गले का हार सदा इसी प्रकार बनी रहें। परन्तु तभी घोड़े की टाप सुनकर वह चौंक गया, उसने देखा कि एक डाकू घायल होने के पश्चात् घोड़े पर सवार होकर भाग रहा है। अमर का मन हुआ कि वह डाकू का पीछा करे परन्तु वन्दना की बांहें उसके गले का हार ही नहीं बनी थीं बल्कि वन्दना के सारे शरीर का स्पर्श उसके कदमों की बेड़ियां बन गई थीं। मन करता था कि समय अपने स्थान पर ठहर जाए। वन्दना उससे कभी अलग न हो। यह क्षण कभी न बदले। परन्तु गांववालों का शोर सुनकर वन्दना को समझते देर नहीं लगी कि भय निकल चुका है।

उसने अपनी आंखें खोलकर देखा। गांववाले घायल दो डाकुओं पर काबू पा चुके थे। दो मौत के घाट भी उतर चुके थे। उसने अपनी स्थिति का अहसास किया। उसे लाज-सी आई। वह तुरन्त अमर से अलग हो गई। उसका अहसान चुकाने के लिए वह अमर से नजर भी नहीं मिला सकी तो वह अपनी कोठी की ओर चल पड़ी। अमर ने अपनी दोनों रिवॉल्वरों का निरीक्षण किया। उनमें खाली जगहों पर गोलियां भरीं। फिर रिवॉल्वरों को पेटी में रखकर वह वन्दना के पीछे-पीछे चल पड़ा। आज उसे सन्तोष था, खुशी थी तथा गर्व भी था कि वह अपनी परीक्षा में खरा उतरते हुए वन्दना के काम आ गया। वन्दना के ही क्यों, उसकी रक्षा करके वह ठाकुर नरेन्द्र सिंह की लाज बचाने के भी काम आ गया था। वन्दना का विश्वास अब अमर पर और दृढ़ हो गया। दिल की धड़कनों ने मानो चुपचाप उसे बता दिया कि अमर से अच्छा रक्षक उसे जीवन भर नहीं मिल सकता। अमर जब उसके पीछे-पीछे कोठी पहुंचा तो वन्दना ने उससे आज की कृपा के लिए कृतज्ञ होकर दो शब्द कहना भी चाहा, चाहा कि उसके कमाल की भी वह प्रशंसा करे, परन्तु जब अमर उसकी दृष्टि के सामने पड़ा तो वह कुछ भी नहीं कह सकी। बल्कि उसकी ओर न देखते हुए उसने अपनी पलकें भी नीचे

झुका लीं। इस खामोशी के पीछे क्या मतलब था? वन्दना न जान सकी न उसने जानने का प्रयत्न ही किया। बल्कि उसने सोचा, काश आज रोहित जीवित होता तथा अमर द्वारा वह अपनी वन्दना की जान तथा लाज इस कमाल के साथ बचता देखता तो निश्चय ही अमर को गले से लगाकर सारी जिन्दगी वह अमर के एहसान से दब जाता। अमर ने ठाकुर नरेन्द्र सिंह के पास तुरन्त जाकर इस विषय में बताने की कोई आवश्यकता नहीं महसूस की थी। उसके लिए मानो ऐसे डाकुओं को अकेले पराजित करना एक साधारण-सी बात थी। इसके अतिरिक्त अपने मुंह से सब कुछ नरेन्द्र सिंह को बताकर वह मियां मिट्ठू बनने के पक्ष में नहीं था। वह कोठी की सबसे ऊपरी मंजिल पर चला गया। वहां से वह गांव का वह तमाशा देखने लगा जो गांववासी घायल डाकुओं को पकड़कर कर रहे थे। डाकुओं के घायल होने के पश्चात् गांववासी उन्हें हाथ-पैर से रस्सी द्वारा बांधकर गधे पर उल्टा बिठाए मैदान के चक्कर लगा रहे थे। डाकुओं के मुंह पर उन्होंने कालिख पोत दी थी। ठाकुर नरेन्द्र सिंह को वन्दना स्वयं ही आज की घटना बताने के लिए उनके कमरे में पहुंची तो ठाकुर साहब बहुत बेचैन थे। एकाएक अनेक गोलियों के धमाके उनके कानों तक भी आए थे जिन्हें सुनकर वह वन्दना के लिए चिंतित

हो उठे थे। यद्यपि अमर के आ जाने से पिछले दिनों उनके स्वास्थ्य में काफी निखार आया था फिर भी आयु अधिक होने के कारण वह इतनी दूर पैदल चलकर घटनास्थल पर तुरन्त नहीं पहुंच सकते थे। अपनी भारी बन्दूक उठाकर चलने योग्य तो वह जरा भी नहीं थे। फिर भी धमाके का स्वर सुनकर वह अनेक बार कोठी के बरामदे तक आए थे। और जब हांफ गए थे तो भगवान से वन्दना की सलामती की कामना करते हुए अन्दर पलंग पर जाकर लेट गए थे। इसके अतिरिक्त अमर वन्दना के साथ गया हुआ था इसलिए उन्हें बहुत सहारा मिल रहा था। ऐसी स्थिति में वह सब्र करने तथा स्वयं को सन्तोष देने के अलावा कर भी क्या सकते थे? वन्दना जब उनके कमरे में पहुंची तो उसे देखकर उनके दिल को बड़ा सन्तोष मिला। वह तुरन्त उठकर बैठ गए। वन्दना ने उन्हें तुरन्त बता दिया कि अभी-अभी गांव में क्या घटना घटी है। उसने जब अपने दादाजी को विस्तारपूर्वक बताया कि अमर ने अकेले शेर सिंह के भयानक डाकुओं का मुकाबला करते हुए किस साहस तथा किस कमाल के साथ उसकी जान बचाई है तो उनका दिल अमर के पिता मोहन सिंह की दोस्ती पर कृतज्ञ होकर झुक गया। अमर को भी उन्होंने दिल की गहराई से आशीर्वाद दिया। अमर

एक रक्षक के रूप में उनके लिए अवतार बन गया। उनके विश्वास की पुष्टि हो गई कि इस अवतार के रहते हुए उनका अब कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। अमर अब शेर सिंह का मुकाबला ही नहीं करेगा बल्कि उनके एकमात्र बेटे की मृत्यु का बदला भी लेने में सफल होगा। वह अपने माता-पिता की हत्या का बदला लेकर भी उनकी आत्मा को शांति का साधन पहुंचाएगा। बदले की पूर्ति होने के बाद गांव के उन सभी पुरुषों की आत्मा को शांति प्राप्त हो जाएगी जिन्होंने डाकू शमशेर सिंह तथा उसके बेटे शेरसिंह के आदमियों से अपनी बहन बेटियों की लाज बचाने में जान गंवा दी थी। वन्दना के होंठों द्वारा अमर की प्रशंसा भरी सच्चाई सुनकर ठाकुर नरेन्द्र सिंह अमर से मिलने के लिए अधीर हो उठे। वन्दना द्वारा ही उन्होंने अमर को अपने पास बुलवाया। अमर आया तो उन्होंने उठकर उसे तुरन्त अपने गले से लगा लिया। प्रसन्नता के इस जोश ने उनके अन्दर दोगुनी ताकत भर दी थी। कमजोरी मानो एक ही झटके में उनसे दूर भाग गई थी। प्रसन्नता का प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर कभी-कभी दवा से भी अधिक अच्छा पड़ता है। उन्होंने अमर से कहा, ‘शाबाश बेटा, शाबाश। आज तुमने अपने बहादुर पिता की लाज रख ली। काश वह आज का तमाशा देखने

के लिए जीवित होते तो कितना अच्छा होता! ईश्वर सदा तुम्हारे साथ रहे। तुम्हें अत्याचार तथा अन्याय के विरुद्ध मुकाबला करने की शक्ति वह सदा इसी प्रकार प्रदान करता रहे।’ अमर ने वन्दना को नरेन्द्र सिंह के कन्धे पर पलकें उठाकर देखा। वह उसी को देख रही थी। उसकी बड़ी-बड़ी पलकों में तिरछी दृष्टि थी। अमर की दृष्टि मिलते ही उसने अपनी पलकें दूसरी ओर फेर लीं। दिल के अन्दर वह अवश्य अमर की कृतज्ञ थी, परन्तु उसका मुखड़ा गम्भीर था। होंठों पर एक हल्की-सी मुस्कान भी नहीं कांपी। शायद इसलिए कि उसकी सारी मुस्कान रोहित के लिए सुरक्षित थी, रोहित के लिए ही उत्पन्न हुई थी तथा उसी के लिए मर भी गई थी, रोहित की हत्या के साथ ही। उस रात वन्दना जब अपने दादा के कमरे में पलंग पर निद्रा के लिए लेटी तो बहुत देर तक वह केवल अमर के ही विषय में सोचती रही। अमर के असाधारण गुण तथा उसके साहस ने अमर का व्यक्तित्व उसकी दृष्टि में बढ़ाकर उसे पहले से भी कहीं अधिक प्रभावित कर दिया था। परन्तु प्रभावित होने का यह अर्थ नहीं था कि उसके दिल में अमर के प्रति प्यार की कोई चिंगारी उत्पन्न हो गई हो। रोहित से उसका प्यार अटल था। मन-ही-मन वह तय किए बैठी थी

कि वह रोहित की याद छाती में लिए सारा जीवन व्यतीत कर देगी। यह उसके दिल की भावना थी या वह जबरदस्ती स्वयं को ऐसा विश्वास दिला रही थी, वह नहीं जान सकी। वह मानो अपने दिल की इच्छा के विरुद्ध अज्ञात तौर पर ऐसा सोच रही थी क्योंकि रोहित उसका एकमात्र प्यार था। अब तक तो ऐसी ही बात थी। कल क्या होगा उसने सोचने की चिन्ता ही नहीं की। अपने कमरे में पलंग पर लेटा अमर भी करवटें बदलते हुए वन्दना के विचारों में ही तल्लीन था। वन्दना का स्पर्श अब भी उसकी बांहों को गर्म किए हुए था। छाती में अब भी वन्दना के दिल की तेज धड़कनें समाई हुई थीं। वह सोच रहा था, क्या यह सम्भव है कि वन्दना भी इस समय उसी के विषय में सोच रही हो? शायद हां। शायद नहीं। बल्कि बिल्कुल भी नहीं वह उसके बारे में क्यों सोचेगी। वह तो अपने प्रेमी के विचारों में तल्लीन होगी। उसी का बदला लेने के लिए तो वन्दना लन्दन वापस नहीं गई और उसके आगे हर प्रकार की शर्त स्वीकार करने का वचन देते हुए उसने उसे अपना रक्षक स्वीकार किया है। वन्दना को तो उसी समय शान्ति मिलेगी जब वह शेर सिंह से उसके रोहित का बदला ले लेगा। तभी वन्दना उसकी मुंहमांगी कीमत चुकाने को तैयार हो जाएगी। मुंहमांगी कीमत प्यार के रूप

में अदा कर सकेगी? प्यार? क्या प्यार का भी कोई सौदा होता है? शायद प्यार का सौदा होते-होते भी प्यार अपनी कीमत भूलकर वास्तविक प्यार में परिवर्तित हो जाता है। अमर इन्हीं विचारों में तल्लीन था। फिर भी उसे सन्तोष था कि उसका खामोश प्यार आखिर आज रंग लेकर ही रहा। डाकू आ गए और वन्दना उसकी छाती से लिपट गई। काश, इस प्रकार डाकू रोज आया करें और वन्दना हर दिन बल्कि हर क्षण उसकी छाती में समाई रहे तथा बांहों के मध्य लिपटी रहे तो कितना अच्छा हो। अगले दिन नदी किनारे उस डाकू की सर कटी हुई लाश पाई गई जो किसी तरह गांव से निकल भागने में सफल हो गया था। शेर सिंह कभी अपने आदमियों की असफलता स्वीकार नहीं करता था। क्षमा भी नहीं करता था बल्कि दंड में मृत्यु देना एक साधारण-सी बात समझता था। शेर सिंह के आदमियों को आज्ञा थी कि उसका जो भी व्यक्ति असफल लौटे उसे अड्डे में प्रवेश करने से पहले ही मृत्यु के घाट उतार दिया जाए। हां, इस विशेष असफलता ने उसे क्षण भर के लिए चिंतित अवश्य बना दिया। ऐसा कौन व्यक्ति ठाकुर नरेन्द्र सिंह ने पाल लिया है जिसने उसके खतरनाक डाकुओं को अकेले परास्त कर दिया? उसने जल्दबाजी से काम न लेकर दूरदर्शिता से काम लिया जैसा

कि उसका स्वभाव था। वन्दना का अपहरण करने के लिए उसने कुछ दिन सब्र कर लेना बुद्धिमानी समझी। पुलिसवालों ने हाथ लगे घायल डाकुओं पर सख्ती करके, मार करके, परेशान करके, किसी भी तरह शेर सिंह के अड्डे का पता चलाना चाहा परन्तु सफल न हो सके क्योंकि डाकुओं को स्वयं अड्डे का पता नहीं था। पुलिस उनकी सहायता के जरिए सुरंग के अन्दर सिर्फ वहीं तक पहुंच सकी जहां से उनकी आंखों पर पट्टियां बांधकर डाकुओं के आदमी उन्हें शेर सिंह के अड्डे तक ले जाते थे।पुलिसवालों के साथ् अमर भी गया था परन्तु उसे हैरानी थी कि सुरंग के अन्दर डाकू किस तरह और कहां चले जाते हैं क्योंकि बिल्कुल सीधे जाने पर लगभग सभी सुरंगें आपस में गुत्थमगुत्था होकर नदी-किनारे निकलती थीं। फिर भी अमर ने शेर सिंह के अड्डे का पता लगाने की अवश्य ठान रखी थी। आखिर कभी तो ऐसा मौका जरूर हाथ आएगा जब वह शेर सिंह को जिन्दा या मुर्दा गिरफ्तार करने में अवश्य सफल होगा। यह मानो उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन गया था, शायद इसलिए ताकि वह वन्दना की इच्छा के विरुद्ध वन्दना के दिल में प्यार का अधिक न सही थोड़ा-सा ही स्थान प्राप्त कर सके। यह थोड़ा-सा स्थान आगे चलकर उसके दिल में सदा के लिए एक बड़ा स्थान उत्पन्न

कर लेगा, ऐसी आशा उसने की, क्योंकि वन्दना ने उसकी छाती से लगकर उसके दिल में दबी प्यार की चिंगारी को भड़का कर शोला बना दिया था। यह शोला कब बुझकर ठंडा होगा, होगा भी या नहीं, उसने इसकी चिन्ता नहीं की। कुुछ एक दिन और बीत गए। गांव में शांति छाई रही। एक सिपाही की मृत्यु के कारण चौकी में पुलिसवाले और अधिक तैनात कर दिए गए थे। परन्तु गांव की शांति में ठाकुर नरेन्द्र सिंह बिल्कुल सम्मिलित नहीं थे। उन्होंने सोचा अब जबकि गांव की पुलिस चौकी में इतने अधिक पुलिस के आदमी तैनात हैं तथा उनके खुद के पास भी अपना एक गुणी तथा साहसी रक्षक उपस्थित है तो शेर सिंह के आदमियों को आसानी से गांव में आने का साहस भला कैसे होगा? इस स्थिति में वह अपना बदला भी शेर सिंह से किस प्रकार ले सकेंगे? वन्दना अब जब भी अमर को देखती तो उसके शरीर में एक झुरझुरी-सी आ जाती। वह सोचती, क्यों उस दिन अमर की छाती से बुरी तरह लिपट गई थी? रात में जब भी वह अपने पलंग पर होती तो अमर की छाती से लिपटने का दृश्य उसकी आंखों के सामने घंटों छाया रहता। रोहित को याद करने के पश्चात् वह अमर के साथ उसकी बांहों में समा जाने का दृश्य नहीं भूल पाती थी। ऐसा लगता था मानो

उसकी इच्छा के विरुद्ध अमर उसके मस्तिष्क की खिड़की खोलकर उसके दिल के अन्दर झांक लेता है। तब वह अपनी आंखों को सख्ती के साथ बन्द कर लेती। अमर तब भी उसके दिल और दिमाग से नहीं उतरता। आखिर ऐसा क्यों हो रहा था? क्यों? वह स्वयं नहीं समझ पाती। क्या यह उसके एक नए प्यार का प्रारम्भ तो नहीं है? क्या अपने प्रेमी की हत्या के बाद उसे एक नया जीवन आरम्भ करने का अधिकार पहुंच सकता है? क्या वह कभी रोहित को, रोहित का प्यार अपने दिल से निकालने में सफल हो सकेगी? नहीं। कभी नहीं। रोहित जीवित नहीं रहा तो क्या हुआ परन्तु उसका प्यार उसके दिल में सदैव जीवित रहेगा। वह रोहित को, उसके प्यार को कभी धोखा नहीं देगी। नारी का पहला प्यार ही अंतिम प्यार होता है। वह नारी ही क्या जो पहला प्यार भुलाकर दूसरा प्यार कर बैठे? वन्दना ऐसी बातें सोचकर अपने दिल को तसल्ली देना चाहती थी। कोई सीमा तक वह ऐसा करने में सफल भी थी। परन्तु अमर का विचार उसके मस्तिष्क का पीछा नहीं छोड़ रहा था। इसके पीछे क्या भेद था वह स्वयं नहीं समझ पाती थी। और एक रात नींद में वन्दना के आगे मानो वह भेद स्वयं ही खुल गया। यह एक सपना था जो वह देखना चाहती थी अपने रोहित के लिए, परन्तु अमर ने सपने में भी उसके

मस्तिष्क की खिड़की खोलकर अपने लिए स्थान बना लिया। सपनों पर किसका अधिकार रहा है? उसने सपने में देखा कि एक बार फिर शेर सिंह के डाकुओं ने उसका अपहरण करने का प्रयत्न किया है। उसकी सुरक्षा करते हुए अमर बुरी तरह घायल हो गया, परन्तु फिर भी उसने अपहरण करते डाकुओं का अपने घोड़े द्वारा पीछा करना नहीं छोड़ा ओर अंत में उसे बचाने में सफल हो ही गया। उसे कोठी लाते समय अमर पर गश छा रहा था। कोठी के मुख्य द्वार में जैसे ही उसने प्रवेश किया, वह घोड़े पर से नीचे गिरकर बेहोश हो गया। वन्दना तुरन्त घोड़े पर से नीचे उतरती हुई चीख पड़ी। ठाकुर नरेन्द्र सिंह तथा गांव के अन्य वासियों के साथ पुलिस भी वहां पहले से ही उपस्थित थी। वन्दना चीखकर अमर से लिपट गई। फूट-फूट कर वह रो पड़ी। चीखकर ही उसने कहा, ‘नहीं—नहीं-’ वह और तेजी के साथ चीखी। तड़पकर वह बोली, ‘मैं तुम्हें इस प्रकार हरगिज नहीं जाने दूंगी। तुम मुझे इस प्रकार छोड़कर नहीं जा सकते, तुमने मेरी सुरक्षा की है, मेरी जान, मेरी लाज बचाई है—तुम्हें मेरी, मेरे खानदान की लाज बचाने तथा सुरक्षा करने की कीमत लेनी ही पड़ेगी। बोलो-’ वन्दना ने अमर की घायल तथा रक्त से डूबी छाती को उसके कपड़े से पकड़कर बुरी तरह तड़पकर झिंझोड़ दिया। दर्द में डूबी

चीख के साथ उसने अपनी बात जारी रखी, ‘बोलो, तुम्हें अपनी कीमत में क्या चाहिए? बोलो। वन्दना अमर की छाती को पूरी ताकत से झिंझोड़ती हुई और भी तेजी के साथ चीख पड़ी। उसकी दर्द भरी चीख सुनकर समीप खड़े लोगों का दिल फट गया। और तभी अमर की दम तोड़ती सांसें मानो क्षण-भर के लिए वापस आ गईं। उसने पूरी ताकत से अपने मस्तक पर बल डाला। आंखें भींचीं। उसके होंठों की हल्की-सी जुम्बिश हुई परन्तु होंठ कुछ कहने को खुल न सके। उसने अपना हाथ वन्दना की ओर बढ़ा दिया। उसकी हथेली रक्त से रंगी हुई थी, फिर भी वन्दना को ज्ञात हो गया कि अमर ने उससे उसकी सुरक्षा की कीमत में क्या मांगा है। वन्दना ने सब कुछ भूलकर उसकी हथेली में अपना हाथ रख दिया। दोनों हाथों से उसकी रक्त भरी हथेली को उसने अपने गालों पर रख लिया। तभी अमर की बांह ढीली होकर झूम गई। वन्दना अमर की छाती पर सिर रखकर फूटती हुई रो पड़ी। अचानक जाने कैसे, शायद सपने में गर्म की अधिकता के कारण, शायद सपने में तड़प की अधिकता के कारण वन्दना की आंखें खुल गईं तो वह चौंक गई। उसकी आंखें आंसुओं से तर थीं। गाल भी आंसुओं से भीगे हुए थे। कानों के गड्ढों में आंसुओं की बूंदें एकत्र थीं। होंठों पर सिसकियां

अब भी कांप रही थीं। वह तुरन्त घुटनों को ऊपर समेटती हुई उठ बैठी। कानों के गड्ढों में एकत्र आंसू धार बनकर गर्दन के दोनों ओर बहने लगे। उसने वास्तविकता का आभास किया परन्तु सपना मानो दिल पर एक छाप बन चुका था। अपने हाथों को उसने घुटनों के चारों ओर समेटा। फिर घुटनों के मध्य मुखड़ा छिपाकर वह फूट-फूट कर रो पड़ी। उप्फ़! या भगवान! यह क्या हो गया? क्या उसके सपने में कोई वास्तविकता तो नहीं छिपी है? दिल और दिमाग की वास्तविकता? प्यार तो वह रोहित को करती है – केवल अपने रोहित को, फिर सपने में अमर के लिए क्यों तड़प उठी? क्यों उसकी छाती पर सिर रखकर सिसक पड़ी? प्यार के रूप एक नहीं अनेक होते हैं। फिर यह उसके प्यार का कैसा रूप था? वन्दना उसी प्रकार अपनी बांहों के बीच मुखड़ा छिपाए तथा घुटनों में मुखड़ा धंसाए बहुत देर तक चुपके-चुपके आंसू बहाती रही, सिसकती रही। यह आंसू किसके लिए थे? कौन इन्हें पोंछने वाला था? रोहित? वह तो अब इस संसार में रहा ही नहीं। अमर? उसे स्वयं नहीं मालूम। अचानक वन्दना के कानों में पक्षियों की चूं-चूं सुनाई पड़ी। उसने सिर उठाकर रोशनदान की ओर देखा। सुबह की पौ फट चुकी थी। दूधिया वातावरण झलक रहा था।

उसने गर्दन घुमा कर दूसरे पलंग की ओर देखा। उसके दादा बूढ़ी नींद सो रहे थे। वन्दना ने अपनी अंगुलियों द्वारा अपनी भीगी पलकें पोंछीं। हथेली द्वारा गालों को भी पोंछा। गर्दन पोंछी। फिर पलंग से पैर लटकाने के बाद वह अपनी मखमली चप्पल पहनती हुई उठ खड़ी हुई। दो सुबह का समय था। सूर्योदय अब तक नहीं हुआ था परन्तु उसकी सफेदी दूर-दूर तक छिटकी हुई थी। अमर कोठी के उजड़े लॉन में एक किनारे खड़ा, उन सूखे पौधों को देख रहा था जो शायद वर्षों से फल और पत्तियों को तरस रहे थे। उन्हें देखते हुए वह सोच रहा था, क्या इन पौधों में कभी फूल नहीं खिलेंगे? इनका जीवन उसे बिल्कुल वन्दना जैसा ही दिखाई दिया। जब से वह इस कोठी में आया है, आज तक उसने वन्दना को कभी भी मुस्कराते नहीं देखा। क्या वह शबनम बनकर इन पौधों में नाममात्र भी ताजगी की मुस्कान नहीं उत्पन्न कर सकेगा? आखिर उसका अपना जीवन भी तो एक प्यासी शबनम है जो फूल की मुस्कराती पंखुड़ियों पर गिरने को तरस रही है। माता-पिता की हत्या के बाद वह स्वयं भी तो कहां-कहां भटकता रहा, तड़पता

रहा ओर रोता रहा, एक अनाथ और मासूम बालक के समान। अचानक अपने पीछे, कोठी के बरामदे में एक आहट सुनकर वह चौंक गया। उसने पलटकर देखा, वन्दना अपने रेशमी गाउन में खम्भे के सहारे खड़ी उसी को देख रही थी। ऐसा लगता था मानो वह अभी-अभी एकांत में रोकर उठी हो। पलकों में हल्का गीलापन था। दृष्टि बिल्कुल गंभीर थी। अमर ने वन्दना को देखा, फिर भी वन्दना ने उसके ऊपर से दृष्टि नहीं हटाई। वन्दना की खुली रेशमी लटें हवा के बहाव पर कंधे से उड़ती हुईं उसके मुखड़े पर बिखर जाती थीं। ऐसा लगता था मानो सुबह के फीके और उदास चन्द्रमा पर बदली की परतें चली आई हों, ऐसी परतें जो सुबह के दूधियापन के प्रतिबिम्ब में सुनहरी हो उठती हैं, बिल्कुल वन्दना की लटों के समान। अमर ने वन्दना को पहली बार इतनी सुबह उठते देखा था। वह वन्दना के समीप बरामदे के नीचे आकर खड़ा हो गया। ‘आप।’ अमर ने गंभीरतापूर्वक आश्चर्य से पूछा। ‘हां।’ वन्दना ने गम्भीरता के साथ कहा। ‘इतनी सुबह!’ अमर ने फिर आश्चर्य प्रकट किया।

‘हां।’ वन्दना ने खोए-से अंदाज में कहा। ‘जाने क्यों इतनी देर में सोने के पश्चात् आज सुबह इतनी जल्दी आंखें खुल गईं। कुछ देर तक पलंग पर यूं ही पड़ी रही। फिर मन नहीं माना तो कमरे से बाहर निकल आई।’ वन्दना ने पहली बार अमर की बातों में रुचि प्रकट की। ‘मैं जानता हूं आपको देर में क्यों नींद आई होगी।’ अमर ने कहा। वन्दना ने एक क्षण सोचा। फिर बरामदे के किनारे उसी स्थान पर पैर लटकाकर नीचे बैठ गई। अपनी उड़ती लटों पपर हाथ फेरते हुए उसने पूछा, ‘क्यों देर में नींद आई मुझे? क्या जानते हो इस विषय में?’ ‘आपको नींद इसलिए नहीं आई क्योंकि—क्योंकि-’ अमर सकुचाया। हां-हां, कहो। वन्दना ने उसे उत्साह दिया। ‘क्योंकि आपको अपने प्रेमी रोहित जी की याद बहुत सता रही होगी।’ अमर ने कह ही दिया। वन्दना पल भर के लिए सन्न रह गई। उसका मुखड़ा खिलते-खिलते और गम्भीर हो गया था। अमर की बात उसे अच्छी नहीं लगी। काश, अमर की बात सत्य होती। काश, वह रोहित के विचारों में तल्लीन होकर करवटें बदलती

रहती। काश, उसने अमर के स्थान पर रोहित का ही सपना देखा होता तो कितना अच्छा होता। वन्दना के दिल को अमर की बात सुनकर चोट भी पहुंची। अमन ने मानो अपनी बात अनजाने में कहकर उसके विवेक को जगाना चाहा था। वन्दना ने सोचा, क्या उसने अनजाने में अमर का सपना देखकर पाप किया है? इस सपने ने उसके दिल पर जो छाप छोड़ी है उसमें उसके दिल का क्या दोष है? दिल पर आज तक किसका जोर रहा है? अब तक वह जिस प्रकार घुट-घुट कर जी रही थी उससे क्या यह सिद्ध नहीं होता कि वह अपनी जवानी, अपनी सुन्दरता से अन्याय कर रहा है? जीवन की यह लम्बी डगर आखिर कब तक एक पहिए के सहारे चलेगी। कभी-न-कभी तो उसे विवाह करना ही पड़ेगा। भारत में या विदेश में। आखिर वह कोई विधवा तो है नहीं जो पति के वियोग में अपना सारा जीवन अकेले ही बिता दे। जबकि भारत में भी जाने कितनी विधवाएं हैं जिन्हें परिस्थिति से मुकाबला करने के लिए दूसरा विवाह करना ही पड़ता है। फिर वह तो एक विदेशी मां की बेटी है। विदेशी वातावरण में रंगी हुई है। वन्दना इन्हीं विचारों में तल्लीन हो गई। अपने मन की संतुष्टि के लिए मानव क्या नहीं सोचता?

अमर ने वन्दना को इतनी देर तक खामोश देखा तो चुप न रह सका। उसने सोचा, उसने व्यर्थ ही रोहित का विषय उठा दिया। वन्दना इसी कारण उदास तथा खोई-सी है। उसने पूछा, ‘मेरी बातों से आपके दिल को ठेस पहुंची है?’ ‘ऊं?’ वन्दना मानो सपने से जागी। ‘यदि मैंने आपके दिल को ठेस पहुंचाई है तो मैं इसके लिए आपसे क्षमा मांगता हूं।’ अमर ने वन्दना के दिल में उठती मौजों की आवाज से बेखबर होकर कहा। ‘नहीं-नहीं-’ वन्दना ने तुरन्त कहा, ‘ऐसी बात बिल्कुल भी नहीं है। दरअसल – दरअसल मैं कुछ और ही सोच रही थी।’ अमर का दिल रखने के लिए वन्दना हल्के से मुस्करा दी। अमर के प्रति वन्दना की यह पहली मुस्कान थी। उसे ऐसा लगा मानो उसके जीवन की प्यासी शबनम किसी सूखे पौधे पर गिर पड़ी है। शबनम की इस बूंद ने मानो सूखे पौधे में एक कली के खिलने की आशा प्रदान कर दी थी। सूर्य की किरणें मुस्कराकर जीवन की नई सुबह का पैगाम देने लगीं तो वन्दना का सफेद मुखड़ा फीके चन्द्रमा से बदलकर सूर्य की नई किरणों के समान दमक उठा। हवा का एक हल्का-सा झोंका आया तो इसकी खुली तथा

बिखरी लटों ने शरारत से और बिखराकर उसके कपोलों के साथ उसके होंठों का भी चुम्बन ले लिया। वंदना अपनी लटें उंगलियों द्वारा संवार कर पीछे करती हुई वहीं नीचे उठ खड़ी हुई। उसने हवा के बहाव पर अपने गालों का तकिया बनाया। फिर बोली, ‘लगभग दस बजे हम शहर चलेंगे। तुम तैयार रहना।’ ‘जी?’ अमर को विश्वास नहीं हुआ। वन्दना इतनी जल्दी उससे घुल-मिल जाएगी। वह कभी सोच भी नहीं सकता था। ‘यदि बंदूक और रिवॉल्वर की गोलियों का स्टॉक कुछ अधिक रहे तो क्या बुराई है?’ वन्दना ने कहा। ‘ओह।’ अमर ने सोचा। फिर बोला, ‘परन्तु हम यहां ठाकुुर साहब को अकेले कैसे छोड़ सकतें हैं?’ ‘दादाजी की चिन्ता मत करो।’ वन्दना ने कहा, ‘कुछ ही समय की तो बात है। हम जाते समय चौकी के पुलिस अफसर से विशेष पक्ष मांग लेंगे कि दादाजी का पूरा ध्यान रखा जाए। यूं भी एक सिपाही की हत्या होने के बाद अब चौकी में पुलिस वालों की गिनती पहले से कहीं अधिक बढ़ा दी गई है।- अमर खामोश हो गया।

वन्दना उसकी बात की प्रतीक्षा किए बिना बरामदे की सीढ़ियां चढ़कर कोठी के द्वार की ओर बढ़ गई। दुर्गापुर गांव से दूर, चट्टानों की ओर खुली सड़क पर एक छत से खुली कार बहुत तेजी के साथ जा रही थी। कार वन्दना चला रही थी। अमर उसके बगल में समीप ही बैठा हुआ था। बहुत खामोश था वह। वन्दना भी बहुत खामोशी में जैसे एक जबान थी जिसे दोनों ही समझ रहे थे। अमर इस खामोश जबान को समझने के पश्चात् कुछ पूछने का साहस न कर पा रहा था। ऐसा न हो कि उसका अनुमान गलत निकल जाए। कनखियों द्वारा वह चुप-चुप वंदना को देख लेता था, जिसने इस समय आसमानी रंग की रेशमी साड़ी पहन रखी थी। आसमानी रंग की साड़ी में उसका मुखड़ा बिल्कुल उदय होते सूर्य के समान था। कार चलाते समय उसकी साड़ी का आंचल कभी-कभी हवा के झोंके का बहाना लेकर उसकी छाती से सरक जाता था। तब वह बहुत लापरवाही से इसे एक हाथ द्वारा छाती पर डालने के बाद गर्दन से लपेट लेती थी। लटें बिखरतीं तो इन्हें भी वह एक हाथ द्वारा संवार कर पीछे कर लेती थी। वन्दना की यह निश्चिंत ड्राइविंग की अदा अमर के दिल में उतर गई

और आखिर एक समय ऐसा आया जब उससे और अधिक खामोश रहते नहीं बना। जब एक हसीन हमसफर हो तो बातें करने का मन खुद ही करने लगता है। उसने अपना गला खंखारकर साफ किया। कुछ सकुचाया। फिर बोला, ‘वन्दना जी, शायद हम – शहर जाने के लिए निकले थे।’ उसने मानो वन्दना को याद दिलाया। ‘हां।’ वन्दना ने उसकी ओर देखे बिना एक हल्के मोड़ पर गाड़ी चढ़ाई। ‘लेकिन—शहर तो बहुत पीछे छूट चुका है।’ अमर ने उसे रास्ता बताना चाहा। ‘इस समय ड्राइविंग का मूड आ गया है।’ वन्दना ने उसकी ओर फिर नहीं देखा। बात उसने जारी रखी। बोली, ‘विदेश से आने के बाद कभी ड्राइविंग का यहां अवसर ही नहीं मिला।’ ‘———-’ अमर खामोश रहा। ‘विदेशों में कार चलाने का आनन्द ही कुछ और है।’ वन्दना ने ड्राइविंग का आनन्द उठाते हुए कहा, ‘लंदन को छोड़कर लगभग सभी विदेशों में बाएं के बजाए दाहिने से चलना पड़ता है। ‘हाईवेज’ पर आने-जाने के लिए अलग-अलग रास्ते हैं, चाहे वह चट्टानों के बीच काटी सुरंगें हों या

खुली सड़क। सड़कों पर तीन ‘ट्रैक्स’ बने हुए हैं। हर ‘ट्रैक्स’ पर कम-से-कम अगल-अलग कार चलाने की गति अस्सी, सौ तथा एक सौ बीस किलोमीटर होना आवश्यक है। जब मैं मां के साथ एक बार विदेश यात्रा पर निकली थी तो मैंने सुरंगों की गिनती गिनी। मुझे केवल तिरसठ सुरंगों के अन्दर से जाने का अवसर मिला। सबसे छोटी सुरंग एक अकेली चट्टान के अन्दर से निकली थी। चट्टान के ऊपर केवल एक ही बंगला था।’ वन्दना ने एक मोड़ पर फिर अपनी कार घुमाई। उसने बात जारी रखते हुए अपना अनुभव प्रकट किया। बोली, ‘सबसे लंबी सुरंग बारह किलोमीटर की थी। यह सुरंग पांच किलोमीटर तक इटली के अंदर है और सात किलोमीटर फ्रांस के अंदर है। बॉर्डर की जांच इटली की सरहद के अंदर सुरंग में प्रवेश करने से पहले ही हो जाती है। सुरंगों के अन्दर गहरी पीली परन्तु चमकदार बत्तियां दो कतार में दूर-दूर तक देखने में बहुत भली लगती हैं। लगभग सभी सुरंगों में थोड़ी-थोड़ी दूर पर टेलीफोन और आग बुझाने की सामग्री का पूरा प्रबंध है। चौड़ी सुरंगों के अंदर यात्रा करने में इतना मजा आया, इतना अधिक मजा आया कि— वन्दना अपनी धुन में कह रही थी और अमर उसकी बातों का पूरा आनन्द उठा रहा था। आज वन्दना उससे कितना

अधिक घुल-मिल गई थी, इस पर उसे आश्चर्य था तथा प्रसन्नता भी थी। उसका मन करता था कि वन्दना इसी प्रकार अपनी मीठी जबान द्वारा पक्षी समान चहककर उससे बातें करती रहे और वह उसकी बातों द्वारा अपने कानों में मधुर रस का आभास करता रहे। कितना मधुर समय था यह, कितना सुहाना सफर। अचानक एक चढ़ाई पर कार मोड़ते हुए कार के सामने गाय तथा भैंसों का एक झुण्ड आ गया। दुर्घटना से बचने के लिए वन्दना को तुरन्त ‘ब्रेक’ लगा देना पड़ा। कार की गति बिगड़ गई। वन्दना के मस्तक पर बल पड़ गए। उसने अनेक बार कार का ‘हॉर्न’ बजाय और आखिर जब रास्ता साफ हुआ तो उसने गाड़ी की गति एक बार फिर तेज कर दी। अब चढ़ाई पर चढ़ाई आने लगी। मोड़ भी जल्द ही आ जाते थे परन्तु वन्दना कार चलाने में प्रवीण थी। उसने गति में कमी नहीं की।

ऊंचाई पर आते ही हवाओं का बहाव और अधिक तेज होने लगा। हवाओं में कुछ ठण्डक भी आने लगी। झोंके थे कि उन दोनों के मन और मस्तिष्क पर एक नई ताजगी बख्श रहे थे। वन्दना की साड़ी का आंचल अब हवा के बहाव पर उसकी छाती से सरक कर उड़ता हुआ कभी-कभी अमर के कपोलों को भी छू जाता था। उसकी गर्दन में प्यार का हार बनकर यह आंचल छा जाना चाहता था। आंचल ही नहीं उसकी लटें भी कभी-कभी अमर के कपोलों की ओर लहराकर लपक पड़ती थीं। वन्दना अब भी एक हाथ द्वारा अपना आंचल संभाल तथा लटें संवार लेती थी। परन्तु जब एक बार वन्दना ने एक गहरे मोड़ पर कार चढ़ाई तो उसकी साड़ी का आंचल उसकी छाती से पूर्णतया ढलकर अमर की गर्दन में लिपटता हुआ मानो सदा के लिए प्यार का हार बन गया। वन्दना की लट उड़कर अमर के गालों को भी छूने लगीं। वन्दना की लटों की प्यारी-प्यारी सुगन्ध अमर के नथुनों द्वारा उसके दिल की गहराई में उतर गई। अमर के शरीर में बिजली दौड़ गई। वन्दना कार चलाने में तल्लीन थी। ध्यान सड़क के हर मोड़ पर जमा हुआ था। छोटी-सी असावधानी भी एक भयानक दुर्घटना का रूप लेकर उनका जीवन ले सकती थी। ऐसी स्थिति में उसने अमर की ओर एक बार कनखियों से देखना तो दूर अपनी छाती से सरके

आंचल को भी ठीक करने की चिंता नहीं की। वह कार चला रही थी, चलाती रही, निश्चिन्त होकर, मानो ड्राइविंग में वह खो गई थी। चट्टानों के बीच सड़क की चढ़ाई पर अब मोड़ और भी जल्दी-जल्दी आने लगे। गहरे-गहरे मोड़ थे यह जिन पर जब वन्दना जल्दी-जल्दी कार मोड़ने लगी तो उसकी लटें अमर के मुखड़े पर देर तक छाई रहने लगीं। अमर का मन हुआ कि वह इन रेशमी लटों को हल्के से अपने दांतों के बीच दबा ले या अपने होंठों के बीच पकड़ ले। और आखिर एक बार जब वह दिल के हाथों मजबूर हो गया तो उसने अपने मुखड़े पर छाई वन्दना की लटों को अपने होंठों के बीच दबा ही लिया। वन्दना ने अपनी लटों का खिंचाव महसूस किया तथा वास्तविकता का आभास किया तो अचानक उसका पैर ब्रेक पर सख्ती के साथ जाम हो गया। कार के पहिए रुकने के लिए बहुत तेजी के साथ चीख पड़े। अमर ने कांप कर वन्दना की लटें छोड़ दीं। कार एक झटका खाकर रुक गई – कुछ बहकती हुई, सड़क के बिल्कुल ही किनारे, जहां मोटे-मोटे पत्थरों की दीवार बनी हुई थी, घुटनों तक ऊंची। इस प्रकार अचानक एक झटके से ब्रेक लगने के बाद कार की दुर्घटना भी हो सकती थी।

अमर का दिल बहुत तेजी के साथ धड़कने लगा। अपने दिल पर काबू न करके वह यह क्या कर बैठा? वन्दना के साथ गुस्ताखी? असभ्यता? वन्दना ने कार का इंजन बंद करने के बाद अमर की ओर देखा। अमर लज्जित होकर अपना सिर नीचे झुकाए हुए था, वह सिर जो आज तक किसी मर्द के सामने कभी नहीं झुका था। उसके सिर झुकाने के अन्दाज में बेपनाह शर्मिन्दगी थी। उसकी समझ में नहीं आया कि वह वन्दना से अपनी इस गलती की क्षमा कैसे मांगे? वन्दना क्षण-भर तक गर्दन घुमाए उसे उसी प्रकार देखती रही। अमर का दिल अन्दर-ही-अन्दर धक-धक करता रहा। शायद अब वन्दना उससे कुछ कहे, उसे फटकारे, डांटे या विश्वासघाती कहे। परन्तु वन्दना ने उससे एक भी शब्द नहीं कहा। उसने एक गहरी परन्तु खामोश सांस ली। उसने अपनी ओर कार का गेट खोला और फिर नीचे उतर गई। अमर ने तब भी उसे देखने का साहस नहीं किया। बल्कि दिल की धड़कनें बढ़कर असमंजस में पड़ गईं। वन्दना एक ओर आगे बढ़ गई। जाकर वह सड़क के किनारे घुटनों तक ऊंची पत्थर की दीवार के समीप खड़ी हो गई। दीवार के उस पार ढाई-तीन फुट बाद एक बहुत गहरी घाटी थी। घाटी की तह में तारकोल की एक बलखाई सड़क थी।

सड़कें बल खाकर पहाड़ों की गोद में होने के बाद दूसरे किनारे से आंख-मिचौली खेलती हुईं फिर बाहर निकल आईं थीं। इन सभी सड़कों से होकर ही वन्दना कार द्वारा यहां इतनी ऊंचाई पर पहुंची थी। हरी-भरी घाटियां, ऊंचे-ऊंचे घने वृक्ष, पक्षी दृष्टि की सतह से बहुत नीचे घाटियों में कलाबाजी लगाते हुए चहक रहे थे। घाटियों की ढलवानों पर कहीं-कहीं कच्चे तथा छोटे-मोटे मकान थे। कुछेक रंगीन फ्लैट्स या बंगले इन हरी-भरी घाटियों के ढलवान पर वन-विलास बने हुए थे। पहाड़ी इलाकों का यह दृश्य अत्यन्त सुहावना था जिसे वन्दना देख अवश्य रही थी परन्तु उसका मन और मस्तिष्क कहीं और था। एक बार वह लंदन में इसी प्रकार रोहित के साथ सागर किनारे सूर्य स्नान के बहाने लम्बी ड्राइविंग पर निकली हुई थी। उस दिन उसके पास अपनी विदेशी मां की एक लंबी तथा खुली कार थी। चौड़ी सड़कों पर लंबी-चौड़ी गाड़ियों को चलाने का आनन्द ही कुछ और प्राप्त होता है। उस दिन भी वह कार स्वयं ही चला रही थी। तब कमर से नीचे बेलबॉटम पैंट तथा कमर से ऊपर कसा हुआ टॉप बिना चोली के उसके तराशे हुए शरीर की शोभा में चार चांद लगाए हुए था। आंखों पर मोटा तथा इतना बड़ा रंगीन चश्मा था कि उसकी भवें भी नहीं दिखाई पड़ती थीं। उसके

बगल में रोहित बैठा हुआ था। तब कार की तेज गति के कारण वन्दना की लटें बिखरकर उसके अपने मुखड़े पर ही नहीं फैलती थीं बल्कि रोहित के मुखड़े तक भी चली जाती थीं। रोहित उसकी लटों की सुगन्ध का पूरा आनन्द उठा रहा था। जब कभी रोहित के मुखड़े पर वन्दना की लटें बिखर आतीं और होंठों की दरारों को छूतीं तो रोहित बहुत प्यार के साथ वन्दना की लटों को अपने होंठों के मध्य हल्के से दबा लेता था। तब वन्दना को बहुत आनन्द आता था। विदेश में उस दिन वन्दना ने समुद्र के किनारे एकान्त में अपनी कार रोकी, विदेशी यात्रियों के घने झुरमुट से हटकर, जो यहां आए-दिन मेले समान जमे रहते थे। विदेशी यात्री नहाने के वस्त्रों में कहीं औंधे तो कहीं चित्त पड़े, ठंडी-ठंडी धूप के स्नान का आनन्द उठा रहे थे। यात्रियों के बीच बड़े-बड़े रंगीन छाते समुद्र के किनारे धंसे दूर तक रंगीन फूलों का एक उद्यान बने हुए थे। जिन यात्रियों को धूप की तपिश महसूस हो रही थी उन यात्रियों ने अपने मुखड़े छाते की छांव में छिपा रखे थे। वन्दना तथा रोहित ने कार के पीछे डिक्की से अपना-अपना आवश्यक सामान बाहर निकाला। अन्य सामान के साथ वह भी अपना एक बड़ा रंगीन छाता साथ लाए थे। फिर दोनों समुद्र की ओर बढ़ गए।

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