प्यासी शबनम
सूर्य ने बहुत देर बाद अपने विश्रामगृह में करवट बदली। परन्तु बादलों का लिहाफ उठाकर उसने बाहर नहीं झांका। हल्का दूधिया वातावरण दूर-दूर तक गहरे कोहरे में डूबा हुआ था – उदास। फिर भी पक्षियों ने अपने नीड़ छोड़ दिए थे। कोहरे के घनत्व में यह दिखाई नहीं पड़ रहे थे। परन्तु उनकी चहक कानों तक अवश्य सुनाई पड़ रही थी। यह चहक मानो चहक न होकर एक प्रकार की दर्द भरी चीख और पुकार थी। वातावरण के गाल कोहरे के आंसुओं से तर थे। ऊंचे-ऊंचे वृक्ष, आम और नीम के, पीपल और बरगद के, ताड़ और खजूर के समीप से देखने में भी एक छाया समान थे। यह वातावरण शहर से दूर एक गांव, दुर्गापुर का था। जिसके एक किनारे कोहरे में डूबे मन्दिर के अन्दर बजते घण्टे और शंख का स्वर भी दर्दनाक वातावरण में शान्ति की लहर फैलाने में असमर्थ था। यह मन्दिर वन्दना के दादा ठाकुर नरेन्द्र सिंह का बनवाया हुआ था ।
वन्दना, जो इस समय अपनी कोठी की सबसे ऊंची मंजिल पर खड़ी गांव का कोहरा-भरा समां बहुत खामोश तथा उदास नजरों से देख रही थी। यह मन्दिर ही क्या, यह सारा गांव दिन के उजाले में उसकी या किसी की भी दृष्टि इस ऊंची कोठी से जहां-जहां पहुंच सकती या और नहीं भी पहुंच सकती थी, सब-कुछ वन्दना के बाप दादों का अपना था। दुर्गापुर के नरेन्द्र सिंह एक खानदानी जमींदार थे। स्वतन्त्रता के बाद सरकार ने उनसे सब-कुछ छीन लिया था, भूमि किसानों में बांट दी परन्तु इस बात का ठाकुर नरेन्द्र सिंह की शान में कोई अन्तर नहीं आया था। अब अफसोस भी नहीं हुआ था। वह अब भी जीवित हैं। धन-दौलत की कमी नहीं। कमी है तो एक बात की, मन की शांति की। प्रसन्नता तो उनसे सदा के लिए रूठ चुकी है, अब वह चाहें भी तो कभी नहीं मुस्करा सकते। वन्दना ठाकुर नरेन्द्र सिंह की पोती है। दुर्गापुर में उसका बचपन बीता है।
यहां के खेतों, मुंडेरों तथा पगडण्डियों पर वह चौकड़ियां भरती नहीं थकती थी। यहां के वातावरण में उसने जीवन के निश्चित दिन बिताए हैं। बचपन से ही उसे घुड़सवारी का शौक था इसलिए वह हर स्थान पर घोड़े दौड़ाए नहीं थकती थी। यह उसका क्षेत्र था, उसके बाप-दादों का। यहां के लोग उसकी प्रजा थे। तब वह मुस्कराती कली थी जो अब फूल बनी भी तो मुस्करा न सकी। मुस्कान उसके होंठों से सदा के लिए छिन गई थी। यही कारण था कि इस समय मन में उदासीनता लिए कोठी की सबसे ऊंची मंजिल पर खड़ी कोहरे भरे समां को बहुत उदास देख रही
थी जिसके घनत्व ने उदय होते सूर्य के प्रकाश को पूर्णतया धरती पर पहुंचने से पहले ही रोक रखा था। स्वतन्त्रता से बहुत पहले दुर्गापुर की जागीर एक ओर से एक नदी तक सीमित थी जहां जागीरदार नरेन्द्र सिंह ने एक मन्दिर बनवाया था। नदी के उस पार कभी शमशेर सिंह की जागीर बेलापुर थी। जागीरदार नरेन्द्र सिंह चरित्रवान थे, दयालु थे, अपनी प्रजा के सुख का उन्होंने सदा ही ध्यान रखा था। गांव की स्त्रियां उनकी मां, बहन, बहू तथा बेटियां थीं, यही कारण था कि स्वतन्त्रता के बाद आज भी पुराने लोग उन्हें राजा कहकर पुकारते हैं। परन्तु नरेन्द्र सिंह के चरित्र के विपरीत जागीरदार शमशेर सिंह बहुत ही चरित्रहीन था, एक नम्बर का अय्याश तथा जालिम। अपनी प्रजा पर वह अपना व्यक्तिगत अधिकार समझता था। अपनी वासना की प्यास बुझाने के लिए उसने बेलापुर की जनता पर क्या अत्याचार नहीं किए। उसके राज्य में लड़कियां जवान होने से पहले ही उसके बदमाशों और गुण्डों द्वारा उठाकर उसके रंगमहल में पहुंचा दी जाती थीं ताकि वह उनसे जी भरकर रंगरेलियां मनाए। उसके बाद उनकी हत्या करवाकर वह पांच मील दूर चील कौओं तथा जंगली पशुओं के लिए जंगल में फिंकवा देता था।
उसकी जनता उससे तंग आ चुकी थी परन्तु अपनी गरीबी के कारण आवाज नहीं उठा सकती थी। जिसने आवाज उठाने का प्रयत्न किया उसके जीवन की सलामती नहीं रहती थी। जब शमशेर सिंह का दिन बेलापुर की सुन्दरियों से भर गया तो उसने अगल-बगल की जागीरों पर भी हाथ फैलाना आरम्भ कर दिया। एक रात दुर्गापुर की बारी भी आई। शमशेर सिंह के आदमियों ने जब दुर्गापुर की एक लड़की को उठाना चाहा तो लेने के देने पड़ गए क्योंकि गांव में शोरगुल मचते ही नरेन्द्र सिंह के सिपाहियों ने कुछ डाकुओं को पकड़ लिया। पेशी पर पता चला कि वह किस जागीर के आदमी हैं और उनका मकसद क्या था, तो शमशेर सिंह की करतूतों का पता चल गया।
नरेन्द्र सिंह अपनी अच्छाइयों के कारण बड़े-बड़े अंग्रेज गवर्नर्स तथा अफसरों में लोकप्रिय थे। अंग्रेजी सत्ता में उनकी पहुंच थी। उन्होंने बात अंग्रेजी सरकार के आगे बढ़ाई। गुप्त रूप में जांच हुई और जब शमशेर सिंह की वास्तविकता प्रकट हुई तो अंग्रेज अफसरों ने अपने राज्य को बदनामी से बचाने तथा जनता का दिल जीतने के लिए शमशेर सिंह की जागीर बेलापुर छीनकर जागीरदार नरेन्द्र सिंह को दे दी जिसके कारण अपना अपमान समझकर शमशेर सिंह भड़क उठा। अपनी सारी बर्बादी का कारण जानने में उसे देर न लगी। अंग्रेजी सरकार की आज्ञा का पालन न करते हुए उसने खुलेआम जागीरदार नरेन्द्र सिंह से मोर्चा लेना चाहा तो अनेक हत्याएं हुईं। जब अंग्रेजी सरकार ने उसके इस अपराध पर उसे सजा देना चाहा तो वह अपने आदमियों सहित भाग निकला। सभी के परिवार साथ थे परन्तु उसका अपना परिवार कोई नहीं था।
अय्याशी से समय ही नहीं मिलता था तो विवाह क्या करता। अपने आदमियों सहित जंगल के उस पार, चट्टानों के अन्दर खोई हुई गुफाओं में वह ऐसे स्थान पर बस गया जहां कानून के हाथ पहुंचना अब तक असंभव सिद्ध हो रहा था। कुछेक चट्टानों के ऊपर से पानी झरने के रूप में इस प्रकार गिरता था कि कहीं-कहीं गुफाओं का मुंह पानी की मोटी चादर से ढका रहता था। ऐसे गुप्त अड्डे में सुरक्षित होने के बाद शमशेर सिंह ने प्रण कर लिया था कि जब तक वह जागीरदार नरेन्द्र सिंह के वंश का नाम नहीं मिटा देगा चैन की सांस नहीं लेगा। यहीं से उसने लूट-मार आरम्भ किया और फिर शीघ्र ही वह ठाकुर से डाकू शमशेर सिंह कहलाने लगा।
यहीं रहकर उसने अपने साथी की एक बहन से विवाह भी कर लिया। यहीं उसकी पत्नी के एक बालक उत्पन्न हुआ जिसका नाम उसने शेर सिंह रखा। जब शेर सिंह उत्पन्न हुआ तो जागीरदार नरेन्द्र सिंह के पास एक सोलह वर्षीय लड़का था। नाम था सुरेन्द्र सिंह। वह अपने पिता के समान ही दयालु था। गांववासियों का ध्यान वह उतना ही रखता था जितना उसके पिता नरेन्द्र सिंह रखते थे। उन्हीं दिनों देश स्वतंत्र हुआ। सरकार ने राजाओं, महाराजाओं तथा जागीरदारों आदि की जमीनें छीनकर किसानों को दे दीं तो डाकू शमशेर सिंह छिपा-चोरी से एक रात अपने एक जागीरदार भाई से मिला जो दूसरे शहर में रहता था।
अपने भाई को उसने अपार धन-दौलत तथा अय्याशी का लोभ दिया। उसे अपने अड्डे को नया तथा और भी सुरक्षित रूप देने का वह नक्शा दिखाया जो उसने एक जर्मन इंजीनियर द्वारा बनवाया था, अपने अड्डे में ही उसे रखकर उसने कहा था, ‘मैंने उस जर्मन इंजीनियर को अपनी रियासती दौलत की चमक दिखाकर लालच देते हुए उसे अपने पास उस समय तक रोक लेने पर विवश कर दिया है जब तक कि मेरे अड्डे की पूर्ति नक्शे अनुसार नहीं हो जाएगी।’ ‘परन्तु यदि वह इंजीनियर तुम्हारी इतनी दौलत प्राप्त करके जर्मनी जाने के बाद तुम्हारे गुप्त अड्डे का स्थान किसी को बता दे तब क्या होगा?’ शमशेर सिंह के भाई ने रुचि प्रकट करके पूछा था।‘इसकी नौबत कभी नहीं आएगी।’ शमशेर सिंह ने अपने भयानक इरादों की पुष्टि करते हुए दांत पीस कर कहा था, ‘नक्शे के अनुसार अड्डे की पूर्ति होते ही मैं उस इंजीनियर का ही नहीं उसके साथ काम करने वाले एक-एक मजदूर का भी नाम और निशान इस धरती पर से सदा के लिए मिटा दूंगा। फिर जब नरेन्द्र सिंह के खानदान का सर्वनाश करने के बाद मेरे दिल के अन्दर बदले की आग ठण्डी हो जाएगी तो मैं इसी खुफिया तथा वैज्ञानिक अड्डे के सहारे स्मगलिंग का धंधा अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने पर करूंगा।
फिर मैं इतना धन कमाऊंगा, इतना कमाऊंगा कि—’ सहसा वहां पुलिस वैन का साइरन सुनाई पड़ा। जाने कैसे पुलिस को सूचना मिल गई थी कि डाकू शमशेर सिंह अपने भाई से मिलने आया हुआ है। पुलिस यूं भी डाकू शमशेर सिंह के लिए उसके भाई से प्रायः पूछताछ करती ही रहती थी। साइरन सुनकर शमशेर सिंह अपनी बात अधूरी छोड़कर चौंक गया। भाई को भी अपनी इज्जत की चिंता हुई। ‘तुम इस नक्शे को अपने पास रखो। इस पर ध्यान दो और जब चाहना इसके रास्ते द्वारा मेरे पास चले आना।’ शमशेर सिंह ने अपने भाई को नक्शा थमाते हुए कहा ‘इसकी कापी हमारे पास सुरक्षित है। मैं चल रहा हूं।
फिर मिलूंगा। शमशेर सिंह पुलिस के डर से वहां से भाग निकला। पुलिस आई। भाई से शमशेर सिंह के विषय में पूछा। भाई ने अज्ञानता प्रकट की। पुलिस बिना कोई सबूत पाकर वापस चली गई तो भाई सोच में पड़ गया कि अब तक तो उसका सम्मान सुरक्षित है परन्तु कल यदि वह भी अपने भाई के समान डाकू बन गया तो क्या उसे ऐसी स्वतन्त्रता प्राप्त हो सकेगी कि वह मनमानी अपने परिवार के साथ जहां चाहे तथा जब चाहे आ-जा सके? आखिर कानून से कोई कब तक बच सकता है? शमशेर सिंह अपनी लूट-मार में फिर लग गया परन्तु उसका एक इरादा सदा के समान अटल था। जब तक वह जागीरदार नरेन्द्र सिंह के खानदान का नाम और निशान नहीं मिटा देगा चैन की सांस नहीं लेगा। जागीरदार नरेन्द्र सिंह का लड़का सुरेन्द्र सिंह सीनियर कैम्ब्रिज पास कर चुका था इसलिए जागीरदार साहब ने अपने बेटे को लंदन पढ़ने भेज दिया। परन्तु सुरेन्द्र सिंह लंदन क्या गया मानो हाथ से निकल गया। वहां उसने एक अंग्रेज लड़की से प्यार ही नहीं किया वरन् अपने माता-पिता को बताए बिना चुपचाप विवाह भी कर लिया। फिर जब
सुरेन्द्र सिंह ने अपने माता-पिता को लिखा कि वह विवाह कर चुका है तो नरेन्द्र सिंह के दिल को बहुत धक्का लगा क्योंकि उन्होंने अपने बेटे के लिए पहले ही एक बहुत बड़े ठाकुर घराने में लड़की देख रखी थी। उन्होंने तुरन्त सुरेन्द्र सिंह को भारत लौटने की आज्ञा दी। सुरेन्द्र सिंह भारत लौटा परन्तु अपनी पत्नी के साथ। विवश होकर जागीरदार नरेन्द्र सिंह को अपनी विदेशी बहू स्वीकारनी पड़ गई। उसके बाद अपना सम्मान तथा शान स्थिर रखने के लिए उन्होंने कुछ दिनों बाद एक शानदार दावत दी। दावत में मेहमानों का समूह भर गया। परन्तु मेहमानों में भेष बदलकर शमशेर सिंह भी अपने आदमियों सहित आ धमका। ऐसे अवसर की ही तो उसे प्रतीक्षा थी। बिना किसी संकोच के, बिना कोई सन्देह उत्पन्न किए उसने अपनी पॉकेट से रिवॉल्वर निकालकर गोली तुरन्त नरेन्द्र सिंह के जवान बेटे सुरेन्द्र सिंह की छाती में दाग दी जो एक सोफे पर अपनी पत्नी के साथ निश्चिंत बैठा मुस्करा रहा था। सुरेन्द्र सिंह एक ही झटके में सोफे पर अपनी पत्नी के कंधे पर गिरता हुआ ढेर हो गया। तभी चीख और पुकार मच गई। कोठी की ओर से भी बंदूकें निकल आईं तो शमशेर सिंह अपने आदमियों के साथ भाग निकला। उसके केवल दो साथी मारे गए।
यदि जीवित पकड़े भी जाते तो शमशेर सिंह के लिए कोई चिंता की बात नहीं होती क्योंकि उसके अड्डे को केवल गिने-चुने साथी ही जानते थे जिनका काम डकैती करने के बजाए यह था कि जो डाकू डकैती करने के लिए जाते थे उन्हें वह आंखों पर पट्टी बांधकर अड्डे से काफी दूर सुरंग के अन्दर शमशेर सिंह के साथ छोड़ देते थे। फिर वहीं छिपकर लौटने की प्रतीक्षा भी करते थे ताकि उनकी आंखों पर पट्टी बांधकर उन्हें अड्डे के अंदर भी ले जाएं। इस प्रकार शमशेर सिंह के साथ डाका डालने वाले डाकुओं को स्वयं ही ज्ञात नहीं था कि उनके छिपने का अड्डा किस स्थान पर है। अड्डा ऐसा था जिसके अंदर पहुंचकर मुख्य द्वार पर ताला डाल दिया जाता था ताकि कोई डाकू भागकर इस अड्डे का पता न चला सके। शमशेर सिंह ने अपने सभी साथियों को पूरी सुविधाएं, ऐश और आराम दे रखा था। अनेक डाकू अपने पूरे परिवार के साथ अड्डे के अन्दर रह रहे थे। नरेन्द्र सिंह का इकलौता लड़का सुरेन्द्र सिंह मारा गया तो पुलिस ने शमशेर सिंह की खोज की परन्तु उसके ठिकाने का कोई पता नहीं चला। नरेन्द्र सिंह का संसार सूना हो गया।
विदेशी बहू मां बनने से पहले ही विधवा हो गई। बेटे की मृत्यु ने नरेन्द्र सिंह के दिल में बदले की आग भड़का दी परन्तु इस आग से होता ही क्या था? जब पुलिस को ही शमशेर सिंह के ठिकाने का पता नहीं मालूम था तो उन्हें क्या पता चलता? फिर भी अब वह बन्दूक हर क्षण अपने पास ही रखते थे। शमशेर सिंह की तलाश में वह अकेले ही जंगल की ओर निकल जाते परन्तु उन्हें उनकी पत्नी तथा विधवा बहू के प्यार ने रोक रखा था। कुछ दिनों बाद जागीरदार नरेन्द्र सिंह की विधवा बहू को एक संतान उत्पन्न हुई। संतान एक नन्ही-मुन्नी बच्ची थी, बहुत ही प्यारी लड़की, बिल्कुल अपनी विदेशी मां के समान। बच्ची नरेन्द्र सिंह के स्वर्गवासी बेटे की एकमात्र निशानी थी। इसलिए नरेन्द्र सिंह के गमों के सागर में चन्द बूंदें कम हो गईं। बच्ची का नाम उन्होंने वन्दना रखा। वन्दना को अपने दादा-दादी से इतना प्यार मिला कि वह मां से अधिक उन दोनों के साथ ही रहती।
मां के पक्ष में यह अच्छा ही हुआ। जब उसके अंग्रेज माता-पिता ने उसे लंदन बुलाया ताकि जीवन का नया मोड़ एक बार फिर आरम्भ करे तो वह वन्दना को छोड़कर चली गई। वन्दना दुर्गापुर के वातावरण में पली, घूमी-फिरी और चढ़ती आयु की ओर बढ़ी। मां ने लंदन जाकर दूसरी शादी कर ली थी परन्तु साल-दो साल में एक बार भारत आकर वह अपनी बेटी को अवश्य देख लेती थी। दिल चाहता था कि बेटी को अपने साथ वह लंदन ले जाए परन्तु उसका प्यार अपने दादा-दादी की ओर अधिक देखकर वह बेटी को उनसे अलग करना उचित नहीं समझती थी।
उधर शमशेर सिंह की डाकाजनी जोरों पर थी। नक्शे के अनुसार वह अपना अड्डा बनवा चुका था। अड्डे की पूर्ति होने के बाद उसने जर्मन इंजीनियर को ही नहीं उन मजदूरों को भी धोखाधड़ी से मरवा दिया था जिन्होंने अड्डे को बनवाने में साथ दिया था। उसका बेटा शेर सिंह भी अब बड़ा हो चला था। बचपन से ही वह डकैतों में अपने पिता के साथ रहता था जिससे अब उसका डकैती करने का धड़का खुल चुका था। बाप ने बचपन से ही बेटे के दिल में नरेन्द्र सिंह के लिए घृणा भर रखी थी इसलिए एक रात जोश में आकर अपने पिता के साथ उसने भी नरेन्द्र सिंह की कोठी पर चढ़ाई कर दी। परन्तु नरेन्द्र सिंह अपने आदमियों के साथ अब सदा सतर्क रहने लगा था। शेर सिंह को नरेन्द्र सिंह की शक्ति का अनुमान तब हुआ जब नरेन्द्र सिंह की गोली का शिकार शमशेर सिंह हुआ। वह वहीं मारा गया तो उसके आदमी भाग खड़े हुए। विवश होकर शेर सिंह को भी अपनी जान बचाना आवश्यक हो गया। वह भाग निकलने में सफल तो हो गया परन्तु उसके दिल के अन्दर नरेन्द्र सिंह से बदले की आग और अधिक भड़क उठी। कुछ दिनों के लिए डाकाजनी ठण्डी पड़ गई। समय के साथ शेर सिंह ने भविष्य के लिए ठण्डे दिल से सोचा। अब वह डाकुओं का सरदार था क्योंकि अड्डे की बहुत सी खुफिया बातों को वह तथा उसकी मां ही जानती थी।
दूरदर्शिता से काम लेते हुए उसने अपने ही गिरोह के साथियों के साथ एक चाल चली – एक नई तथा अनूठी चाल। वह दिल का पत्थर तथा बुद्धि का बहुत तेज था। उसने धीरे-धीरे अपने ही आदमियों की हत्या रहस्यमय ढंग से करनी आरम्भ कर दी। उनके स्थान पर जो भी नए डाकू रखे उनके सामने जाने की कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ी। एक विशेष कमरे में बुलाकर वह डाकुओं को टेलीविजन जैसे यन्त्र पर देख सकता था परन्तु उसके नए डाकू उसे देखना तो दूर, यह भी नहीं जानते थे कि वह कहां से आज्ञा देता है? इस प्रकार शेर सिंह ने अपने केवल दो विशेष डाकुओं को छोड़कर सभी पुराने डाकुओं को मृत्यु के घाट उतार दिया जिनकी लाशों का भी पता नहीं चला।
यह दो विशेष डाकू जालिम सिंह तथा बब्बन खां थे जो शेर सिंह के बड़े विश्वास के आदमी थे। पुराने डाकुओं की लाश का पता इसलिए नहीं चलता था क्योंकि शेर सिंह के अड्डे पर उसके निजी कमरे से लगाकर एक बड़े कमरे बराबर गैस चैम्बर था, बिल्कुल ऐसा ही जैसा दूसरे महायुद्ध में हिटलर ने यहूदियों को उसमें ठूंस कर मरवाने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर बनवाया था – और वह भी एक नहीं अनेक गैस चैम्बर्स में हिटलर यहूदियों को, क्या पुरुष और क्या स्त्रियां, क्या बूढ़े और क्या दूध पीते बच्चे, सभी को लाखों की गिनती में बन्द कराकर जब गैस के बटन दबाता था तो तड़पते शरीर से गल कर राख होते बन्दियों की चीख और पुकार भी बाहर नहीं सुनाई पड़ती थी क्योंकि ‘एयर प्रूफ’ होने के कारण चैम्बर्स ‘साउण्ड प्रूफ’ भी होते थे। फिर जब चैम्बर्स खोले जाते थे तो चैम्बर्स की ठोस दीवारों पर उन बन्दियों के अमिट साये नक्श होकर मिलते थे जिन्होंने घुटती सांसों के कारण क्षण भर के लिए भी दीवार से चिपककर अपना असफल बचाव करने का प्रयत्न किया था।
ऐसी तेज गैस थी यह जो मानव का नाम और निशान तो मिटा ही देती थी साथ में मजबूत दीवारों पर उन मरनेवालों की छाया भी अंकित कर देती थी, जो अपनी असहनीय तड़प के कारण दीवार में चिपक जाते थे। शेर सिंह का गैस चैम्बर्स भी कुछ ऐसा ही था परन्तु छोटे पैमाने पर, जिसे उसके पिता डाकू शमशेर सिंह ने ही बनवाया था, उसी जर्मन इंजीनियर द्वारा। अब यह चैम्बर शेर सिंह की योजना पूरी करने में बड़ा लाभदायक सिद्ध हो रहा था। शमशेर सिंह ने अपने जीवन काल में गैस चैम्बर के बनते ही इसका सर्वप्रथम उपयोग उस जर्मन इंजीनियर पर किया था जिसने यह भयानक गैस चैम्बर बनाया था।धोखेधड़ी से उसने जर्मन इंजीनियर के साथ उन सभी मजदूरों को गैस चैम्बर में बंद करके गैस का बटन दबाते हुए सबके शरीरों को गलाकर भस्म कर दिया था। उसके बाद वह निश्चिंत हो गया था। लोगों को राख में भस्म करके लाश का कोई भी चिह्न न बच सकने का उसे यह एक अनमोल यन्त्र मिला था जिसका उपयोग उसने अपहरण किए गए पुलिस अधिकारी, सरकारी जासूस तथा अपने और अपने आदमियों की अय्याशी के बाद ठुकराई गई स्त्रियों पर भी किया और खूब किया, आनन्द उठा-उठाकर किया, परन्तु शेर सिंह अपने पिता से भी दो हाथ आगे था।
वह किसी प्रकार का रिस्क न लेने के लिए पुलिस अधिकारी, सरकारी जासूस तथा अय्याशी के बाद ठुकराई हुई स्त्रियों को गैस चैम्बर में बन्द करके उनका चिह्न तो समाप्त कर ही देता था परन्तु उन लोगों को भी उसने गैस चैम्बर में बन्द करवाकर मरवाते हुए उनका चिह्न सदा के लिए मिटा दिया जो उसके पिता के समय से डाकू थे, जिनकी छाया में पलकर वह जवान हुआ था, जो उसे पहचानते थे तथा जिनसे उसे भय समाया रहता था कि उसे नवयुवक तथा स्वयं को अनुभवी समझकर वह उसके साथ उसकी मां को भी मारकर अड्डा अपने अधिकार में ले लेंगे। इस प्रकार जब पुराने डाकू समाप्त हो गए और जो नए डाकू आए उनके सामने शेर सिंह कभी नहीं गया तो नए डाकुओं के लिए उसे पहचानने का प्रश्न ही नहीं उत्पन्न हुआ। उसे पहचानते थे तो केवल उसके दो विश्वासी डाकू – जालिम सिंह और बब्बन खां।
यह दो डाकू नए डाकुओं पर शेर सिंह के मन्त्री बन कर हुक्म चलाते थे। नए डाकुओं को भी मन्त्रियों की आज्ञा का पालन करने में कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि शेर सिंह की ओर से सभी विवाहित तथा अविवाहित डाकुओं को पूरी सुविधाएं उपलब्ध थीं, ऐश और इशरत के साधन उपलब्ध थे। डाका उसी पुराने ढंग पर डाला जाता था जैसा कि शमशेर सिंह के समय में था परन्तु शेर सिंह स्वयं अब डाका डालने के पक्ष में नहीं था। वह अपने अड्डे पर ही रहता था तथा डाकुओं पर राजा बनकर राज्य करता था। शेरसिंह के नए डाकू इस प्रकार शेरसिंह की वास्तविकता से अनभिज्ञ थे उसी प्रकार वह उसके भयानक गैस चैम्बर के विषय में भी कुछ नहीं जानते थे। शेरसिंह को अपने पिता के समान अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने पर स्मगलिंग करने में कोई रुचि नहीं थी।
उसने दूरदर्शिता से काम लेकर अपने इस गैस चैम्बर का उपयोग अपने किसी भी नए डाकू पर नहीं किया था। अपनी योजना के अनुसार उसने इस गैस चैम्बर का उपयोग केवल एक ही दिन तथा अन्तिम बार करने की ठान रखी थी। उसके पास धन की कमी नहीं थी परन्तु फिर भी उसने अपना इरादा बना लिया था कि जब वह लूट-मार द्वारा अपार धन एकत्र कर लेगा तो पुलिस का भय दिखाकर अपने सभी नए आदमियों को उनके परिवार सहित इस गैस चैम्बर की वास्तविकता छिपाते हुए इसमें शरण लेने को भेज देगा। फिर गैस का बटन दबाकर इनका नाम और निशान सदा के लिए मिटा देगा। उसके बाद वह धोखे से जालिम सिंह तथा बब्बन खां की हत्या कर देगा। और फिर उसके बाद वह अपना सारा धन समेटेगा, मां को साथ लेगा और फिर एक टाइम बम रखकर अड्डे को उड़ाने का प्रबन्ध करते हुए वह सदा के लिए यहां से चला जाएगा।
उसके यहां से जाने के बाद इस संसार में उसे कोई भी पहचानने वाला नहीं होगा क्योंकि उसे पहचानने वाले उसके दो साथी जालिम सिंह तथा बब्बन खां भी तब इस संसार में नहीं रहेंगे। परन्तु उसकी मां को देखकर कोई भी पुराना व्यक्ति संदेह कर सकता था कि वह डाकू शमशेर सिंह की पत्नी हो सकती है। उसके पिता शमशेर सिंह के साथ उसकी मां की तस्वीरें भी पुलिस स्टेशनों पर हो सकती थीं इसलिए अपने इस इरादे को साकार रूप देने में शेरसिंह कभी-कभी झिझक भी जाता था। झिझक कर आने वाले उचित समय तथा अवसर की प्रतीक्षा करने लगता था। युग बीत जाता है परन्तु मानव का मुखड़ा नहीं बदलता।
युगों के बाद भी मानव के अन्दर कोई न कोई बात ऐसी अवश्य रह जाती है जिससे उसे पहचाना जा सकता है। फिर पुलिस की दृष्टि तो विशेष रूप से डाकू शमशेर सिंह तथा उसके परिवार पर बिछी हुई थी। शेरसिंह एक चतुर डाकू था। उसने कभी ऐसा रिस्क नहीं लिया जिससे उसकी इतनी सारी मेहनत पर पानी पड़ जाए। वह पकड़ा जाए और फिर कहीं का भी न रहे। अपने नए आदमियों से गैस चैम्बर का भेद छिपाए रखने के लिए उसने अपने आदमियों को उनकी छोटी-सी भूल पर भी जो सजा दी वह उन्हें गैस चैम्बर में डालकर भस्म करने की सजा कभी नहीं दी।
एक छोटी-सी भूल पर भी वह अपने आदमियों को कभी नहीं क्षमा करता था। उनके लिए हर बात की सजा मृत्यु थी। किसी पर शेरसिंह को अकारण ही गद्दारी का सन्देह हो जाता था तो वह उसे जालिम सिंह या बब्बन खां द्वारा गर्दन से कटवाकर शरीर जंगल में या झील में फिंकवा देता था। फिर उन गद्दारों का सिर अपने अड्डे के ऐसे स्थान पर टांग देता था जिसे हर आने-जाने वाला देखकर कोई व्यक्ति अपने सरदार के साथ गद्दारी करने का स्वप्न भी नहीं देखे। जंगल में या नदी में बहती ऐसी अनेक लाशें पाई जाती थीं। पुलिस को यह भी अनुमान था कि इस क्रूर हत्याओं के पीछे केवल शेर सिंह का हाथ है फिर भी अनथक प्रयत्न करने के पश्चात् पुलिस शेर सिंह के अड्डे का पता लगाने में असमर्थ थी। शेर सिंह के अत्याचार से गांववासी ही क्या अच्छे नागरिक तथा सरकारी विभाग के पुलिसवाले भी भय खाते थे।
उन्हीं दिनों शेरसिंह की मां का निधन हो गया। परन्तु मरते-मरते भी मां ने उसे चुनौती देकर उसके अन्दर बदले की वह भावना ताजी कर दी थी जिसे उसका पति शमशेर सिंह अधूरी छोड़ गया था। मां की दृष्टि में उसके पति की सारी बर्बादियों का जिम्मेदार ठाकुर नरेन्द्र सिंह सदा ही रहा था। न ही उसका पति बर्बाद होकर बदले की भावना में डाकू बनता और न ही आज उसके एकमात्र बेटे शेरसिंह को भी डाकू बनकर यह दिन देखना पड़ता।
मां एक खूंखार डाकू की बहन थी, निर्दयता की छाया में उसने सांसें ली थीं इसलिए मरते समय भी यदि उसने अपने बेटे को नरेन्द्र सिंह से बदले के लिए उकसाया तो कोई बड़ी बात नहीं की। शेर सिंह ने भी मां की तड़पती सांसों को वचन देकर शांत कर दिया था कि वह अपने खानदान की बर्बादी का बदला अवश्य लेगा, कभी-न-कभी, किसी-न-किसी स्थिति में ही, उसके खानदान का नाम मिटाते हुए। मां का निधन हो गया तो शेरसिंह को अपना इरादा पूरा करने का आसानी से मौका मिल गया। अब वह अपने साथियों का खात्मा धोखे-धड़ी से करके इस अड्डे को भी डाइनामाइट द्वारा तहस-नहस कर सकता था। उसके बाद वह अपना सारा धन लेकर जहां भी जाता कोई भी उसेे नहीं पहचान सकता था। शेर सिंह गैर कानूनी काम करते-करते थक गया था। उसका स्वभाव आरम्भ से ही एडवांस था।
अड्डे की बन्द दीवारों से अन्दर वह उत्पन्न हुआ था। बचपन में यहां के बन्द माहौल में उसकी सांस कभी-कभी घुटने भी लगती थीं। इसलिए अब वह हर समय स्वतन्त्र जीवन की आवश्यकता महसूस करता रहता था जिसे वह तुरन्त सदा के लिए प्राप्त भी कर सकता था क्योंकि यहां से जाने के बाद उसे कहीं कोई भी पहचानने वाला नहीं था कि वही डाकू शेर सिंह है। अपना नाम शेर सिंह से बदल कर वह कुछ भी रखते हुए एक नया जीवन आरम्भ कर सकता था। देश-विदेश की सैर करते हुए स्वतन्त्र होकर अय्याशी कर सकता था या एक घर बसा सकता था।
पत्नी तथा बच्चों में खोकर वह अपना गन्दा अतीत भी भूल सकता था । मां की मृत्यु ने उसके लिए स्वतन्त्रता के रास्ते खोल दिए थे। परन्तु वह यह सब तभी कर सकता था जब मां की अन्तिम सांसों में उसे दिया वचन निभाता, ठाकुर नरेन्द्र सिंह के खानदान का नाम और निशान मिटाकर अपने पिता की आत्मा की शांति का साधन बनता। और ऐसा करने के लिए वह तैयार था – पूरे मन से तैयार था वरना वह अपने-आपको ठाकुर समझ कर कभी नहीं क्षमा करता। और इसीलिए शेर सिंह को अपने नए जीवन का आरम्भ स्थगित कर देना पड़ा, उस समय तक के लिए जब तक वह अपना वचन निभाने में कामयाब नहीं हो जाता है।
दुर्गापुर पर छाया कोहरा कम होने लगा। सूर्य ने बादलों का लिहाफ उठाकर झांकना आरम्भ किया तो दूधिया वातावरण में चमक उत्पन्न होने लगी। किसानों ने अपने खेतों पर जाना आरम्भ कर दिया था। गांव की कुछ औरतें भी अपने-अपने कामों पर निकल पड़ी थीं। खपरैल तथा कुछेक अधपक्के मकानों के समाने जहां कहीं अंगीठियां जल रही थीं, अब केवल वहीं धुएं ने छटते कोहरे में मिलकर घनी धुंध बना रखी थी। वृक्ष की पत्तियों का रंग झलकने लगा था। पंछी छाया बनकर दिखाई पड़ने लगे। गांव का मन्दिर भी झलक आया। एक किनारे पुलिस की वह चौकी भी साफ दिखाई दे रही थी जिसका प्रबंध सरकार ने अभी कुछ ही दिन पहले इस गांव में पहली बार किया था। इस चौकी का प्रबंध सरकार को डाकुओं से तंग आकर करना पड़ा था।वन्दना अब तक उसी प्रकार अपनी कोठी की सबसे ऊंची मंजिल पर खड़ी हुई थी। दुर्गापुर का वातावरण देखती हुई वह इस प्रकार खोई हुई थी कि मानो आज वह अन्तिम बार अपने गांव को विदाई दृष्टि से देख रही थी। दुर्गापुर में उसका कोई भी अन्तिम दिन हो सकता था क्योंकि वह इस क्षेत्र, इस शहर, बल्कि इस देश का छोड़कर किसी भी दिन लंदन के लिए निकल सकती थी। वह दो मास पहले ही लंदन से अपने देश, अपने गांव वापस आई थी, कुछ ही दिनों के लिए, लंदन की नागरिकता प्राप्त करने के बाद, परन्तु अपनी कोठी में आते ही उसे ऐसी दुर्घटना का सामना करना पड़ गया था कि उसका सब-कुछ लुट गया। यहां से लंदन किसी भी समय जाने के लिए उसका अपना पासपोर्ट तैयार था जो वह लंदन से बनवाकर लाई थी परन्तु रुकी हुई इसलिए थी क्योंकि वह अपने साथ अपने दादाजी को भी लंदन ले जाना चाहती थी। उनके पासपोर्ट के लिए जांच आ सकती थी, किसी भी समय पासपोर्ट भी आ सकता था जिसकी प्रतीक्षा वह प्रतिदिन करते हुए हर दिन को ही दुर्गापुर में अपना अन्तिम दिन समझने पर विवश थी। छंटते कोहरे में कोठी से दूर वन्दना की दृष्टि एक बूढ़े ताड़ के वृक्ष पर पड़ी जो चोटी से गंजा था। उसके पत्ते जमाने
की हवा के साथ जाने कब झड़ गए थे। ताड़ का तना एक बल्ली समान दिखाई पड़ रहा था। इस ताड़ से वन्दना के बचपन की कुछ यादें संबंध रखती थीं। यादें बचपन की थीं इसलिए मासूम थीं जिसमें किसी प्रकार का कोई सपना नहीं सम्मिलित था। तब इस ताड़ के लम्बे-लम्बे हरे पत्ते हवा के बहाव पर सरसराकर बड़ी शान से झूमते रहते थे। वन्दना तब दस वर्ष की थी। एक दिन वन्दना दुर्गापुर में घोड़े पर सवार होकर घूमने के बाद शाम के समय इसी ताड़ के वक्ष के समीप से निकल रही थी कि अचानक इस ताड़ के वृक्ष के नीचे एक बारह तेरह वर्षीय लड़के को अपनी ओर पीठ किए परन्तु सिर पर छाता लगाकर नीचे बैठा हुआ देखकर वह चौंक पड़ी थी। उसे आश्चर्य भी बहुत हुआ था। गम का सुहाना वातावरण, वर्षा व धूप, फिर वह लड़का छाता क्यों लगाए है? अचानक वन्दना की दृष्टि लड़के के समीप जमीन पर रखे चार-पांच ताड़ी के घड़ों पर पड़ी। वह लड़के को बहुत ध्यान से देखने लगी। लड़के ने उसकी उपस्थिति से अज्ञात बहुत सन्तोष के साथ घड़े में से एक गिलास में ताड़ी निकाली। तभी वन्दना के कानों में ताड़ के वृक्ष के ऊपर से चीखने और चिल्लाने का स्वर सुनाई पड़ने लगा। वन्दना ने ऊपर देखा। ताड़ के पत्तों में एक ताड़ीवान था। वह नीचे
बैठे लड़के को गन्दे शब्द कहते हुए उसे ताड़ी चुराने से मना कर रहा था। परन्तु ताड़ीवान की बातों का लड़के पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। उसने निश्चिंत होकर अपना ताड़ी से भरा गिलास वहीं पीकर खाली कर दिया। ताड़ी उसने घड़े से दोबारा निकाली। गिलास को एक बार फिर समाप्त किया। उसके बाद वह उसी प्रकार सिर पर छाता लगाए खड़ा हुआ और फिर वन्दना की ओर देखे बिना ही आगे बढ़कर एक खपरैलदार मकान की ओट में लुप्त हो गया। कुछ देर बाद ही लड़कर फिर वापस आया परन्तु इस बार उसके हाथ में छाता नहीं था। छाता वह कहीं छिपाकर आया था। लड़के ने वन्दना को देखा, परन्तु वह जरा भी नहीं चौंका। उसका विचार था कि ठाकुर नरेन्द्र सिंह की पोती अभी-अभी यहां आई है। उसने बहुत भोलेपन से वन्दना को हाथ जोड़कर झुकते हुए नमस्ते कर दिया। लड़का वन्दना से कुछ दूरी पर अनजान बनकर टहलने लगा। उसी समय ताड़ीवाला भी ताड़ से नीचे उतरा। उसकी कमर से ताजी ताड़ी से भरा एक घड़ा लटक रहा था। नीचे आने के बाद उसने कमर से बंधा घड़ा नीचे रखा। फिर इधर-उधर देखा। उसके बाद वह लड़के के पास पहुंचा। कुछ तुनककर उसने लड़के से पूछा, ‘ऐ लड़के, तुमने यहां किसी छाते वाले को इधर से जाते देखा है?’
‘छाते वाले को?’ लड़के ने अनजान बनकर आश्चर्य प्रकट किया। बोला, ‘इस समय धूप या वर्षा हो रही है जो कोई छाता लगाकर कहीं निकलेगा?’ ‘अरे धूप या वर्षा के कारण वह छाता नहीं लगाता है।’ ताड़ीवाले ने खिसियाकर कहा, ‘दरअसल वह अकसर मेरी ताड़ी यहां आकर चुराते हुए मुफ्त ही पी जाता है और मैं उसके सिर पर छाता होने के कारण उसे पहचान तक नहीं पाता जो उस बदमाश को पकड़ सकूं।’ ‘तो फिर तुम उसे तुरन्त उसी समय वृक्ष से उतरकर क्यों नहीं पकड़ लेते हो?’ लड़के ने सब-कुछ जानते हुए उसे सुझाव दिया। ‘अरे मूर्ख, इतनी ऊपर से उतरते-उतरते तो मुझे समय लग जाता है। इतनी देर में वह भाग नहीं जाएगा?’ ताड़ीवाले ने कहा, ‘और फिर दोबारा ताड़ पर चढूंगा तो वह भी दोबारा छाता लिए वहीं आ पहुंचेगा? एक ही बार में तो ऊपर चढ़ने में सांस फूल जाती है।’ ताड़ीवाले की सांस फूल रही थी। वन्दना की समझ में आ गया कि यह लड़का छाता लगाकर क्यों ताड़ी चुराने आया था। वह इस लड़के की बचपन भरी बुद्धिमानी पर मुस्करा दी। ताड़ीवान अपने
ताड़ी के घड़े संभालकर चला गया तो वन्दना ने घोड़े को ऐड़ लगाई और लड़के के पास जा पहुंची। लड़का उसे भयभीत-सा देखने लगा। कहीं उसकी चोरी तो नहीं पकड़ी गई। ‘क्या नाम है तुम्हारा?’ वन्दना ने पूछा। ‘जी?’ लड़के ने सहमकर कहा, ‘अमर – अमर सिंह।’ ‘अमर सिंह?’ वन्दना ने लड़के को आश्चर्य से देखा। ‘जी हां।’ लड़के ने कहा, ‘मैं ठाकुर मोहन सिंह का पुत्र हूं, वही ठाकुर मोहन सिंह जिन्हें अक्सर आपके दादाजी की सेवा करने का सम्मान मिल जाता है।’ मोहन सिंह गांव का एक ऐसा साहसी तथा बहादुर व्यक्ति था जिसने गांव के गिने-चुने साहसी व्यक्तियों के साथ मिलकर गांव पर डाकुओं के अनेक आक्रमण असफल बना दिए थे। उन्होंने ठाकुर नरेन्द्र सिंह पर होने वाले आक्रमण में भी डाकुओं के विरुद्ध ठाकुर नरेन्द्र सिंह का पूरा साथ दिया था। वह अब भी नरेन्द्र सिंह की कोई भी सेवा करने के लिए कोठी में अपनी उपस्थिति दे आते थे। नन्ही वन्दना को वह बेटी कहकर पुकारा करते थे। वन्दना ने कहा, ‘तुम्हारे पिता इतने साहसी तथा ईमानदार व्यक्ति हैं और
तुम एक बुजदिल के समान चोरी करते हो? क्या ऐसा करते तुम्हें शर्म नहीं आती?’ ‘जी?’ अमर चौंक गया। उसे मानो वन्दना से ऐसे शब्दों की आशा नहीं थी। उससे भी एक कम आयु की लड़की उसे समझा रही है! वह मन-ही-मन बहुत लज्जित हुआ। उसने कहा, ‘दरअसल एक दिन मुझे विचार आया कि ताड़ी पीने के लिए लोग ताड़ी की दुकान पर इतनी दूर जाते हैं तथा वहां पहुंचने के बाद भी पैसे खर्च करके ही ताड़ी पीते हैं, परन्तु मैं ऐसा क्यों करूं जबकि मुझे यहीं पर ताड़ी पीने को मिल सकती है और वह भी मुफ्त? बस इसीलिए ताड़ी पीने का यह ढंग अपना लिया था। परन्तु अब आप विश्वास कीजिए, आपके एक ही वाक्य ने मेरी आंखें खोल दी हैं। मैं आपको वचन देता हूं कि अब कभी ऐसा काम नहीं करूंगा। बल्कि शीघ्र ही अपने पिता समान एक साहसी तथा ईमानदार व्यक्ति भी बनकर सारे गांव को दिखा दूंगा।’ ‘परन्तु ईमानदार बनने का यह मतलब नहीं कि तुम चोरी छोड़ने के बाद अब ताड़ी खरीदकर पियो। तुम्हारी आयु बहुत कम है इसलिए ताड़ी को तुम हाथ भी नहीं लगाओगे वरना साहसी बनने की सारी इच्छाशक्ति यूंही धरी की धरी रह जाएगी।’ वन्दना ने मानो उसे आज्ञा दी।
‘आप विश्वास कीजिए, मैं ताड़ी तो क्या अब किसी भी नशे को जीवन भर हाथ नहीं लगाऊंगा।’ अमर ने वन्दना के भोलेपन से प्रभावित होकर अपनी सारी इच्छाएं मानो सदा के लिए उसके आगे भेंट चढ़ा दीं। अपनी बात जारी रखते हुए उसने कहा, ‘आपको अब मुझसे कभी भी कोई शिकायत नहीं होगी।’ वन्दना हल्के से मुस्करा दी। अमर उसे बहुत ध्यान से देख रहा था, उसकी दृष्टि में वन्दना के प्रति असीम श्रद्धा थी, शायद प्यार भी था जिसे वन्दना का नन्हा दिल समझ नहीं सका। उसने घोड़े को ऐड़ लगाई और फिर अपनी कोठी की ओर लौट पड़ी। अगले दिन शाम के समय वन्दना एक कमरे से दूसरे कमरे में जा रही थी कि तभी अपने दादा जी के कमरे से अमर सिंह का नाम सुनकर ठिठकती हुई वह रुक गई। स्वर ठाकुर मोहन सिंह का था, वह कमरे के अन्दर चली गई। कमरे में उसके दादा-दादी बैठे हुए थे जिनसे मोहन सिंह बातें कर रहे थे। ‘क्या बताएं जागीरदार साहब-’ मोहन सिंह आश्चर्य से कह रहे थे, ‘मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि अमर सिंह अपना जीवन आज से बिल्कुल ही बदल देगा। अब आप
ही देखिए, पहले न कुश्ती में शौक लेता था न कसरत में। जब देखिए तब बस घूमता ही रहता था या गांव के निकम्मे लड़कों के साथ गिल्ली-डंडा या कबड्डी खेलता रहता था। समझाऊं लाख परन्तु टाल जाता था। मैं तो समझता था कि हमारी पीढ़ी के बाद गांव में सब के सब नवयुवक कायर और डरपोक ही निकलेंगे।’ ‘समझता तो मैं भी यही हूं।’ ठाकुर साहब ने कहा। फिर पूछा, ‘परन्तु क्या कोई नई बात हो गई है?’ ‘कमाल हो गया है जागीरदार साहब, कमाल हो गया है।’ मोहन सिंह ने जोर देकर कहा, ‘कल रात उसने मेरे सामने सौगन्ध खाई कि वह साहस और बल में इतना नाम कमाएगा कि दूर-दूर के गांववाले भी उसका लोहा मानेंगे और देखिए, अपनी सौगन्ध पूरी करने के लिए उसने आज सुबह तड़के से ही मेहनत आरम्भ कर दी।’ ‘चलो लड़का देर में संभला तो सही’, ठाकुर नरेन्द्र सिंह ने अपनी छाती फुलाकर छाती पर हाथ मारा। अपनी बात उन्होंने जारी रखी। बोले, ‘आखिर उसकी रगों में खून किसका है? मेरा – एक ठाकुर का।’ ‘यदि गांव के सभी लड़कों के दिल में इसी प्रकार की लगन समा जाए तो गांव का कल्याण हो जाए।’ सहसा
बीच में ठाकुर नरेन्द्र सिंह की पत्नी ने कहा, ‘वर्ना डाकू आएंगे और बहुत आसानी से सारा गांव लूटकर ले जाया करेंगे।’ ‘हमारा क्या है। बस भगवान हमें इतनी आयु दे दे कि हम अपने जीते जी पोती का विवाह एक अच्छे घराने में कर दें।’ ठाकुर नरेन्द्र सिंह ने वन्दना की ओर देखते हुए कहा, ‘उसके बाद पोती अपने पति के साथ यहां नहीं रहे तो अच्छा है। इस गांव से दूर किसी शहर में रहकर कम-से-कम वह डाकुओं के भय से तो दूर रहेगी। फिर हमें अपने जीवन की कोई चिन्ता नहीं रहेगी। हां, शमशेर सिंह से बदला लिए बिना यदि हम मर गए तो मुझे अफसोस बहुत होगा।’ वन्दना ने सुना तो हल्के से मुस्करा दी – मन-ही-मन। सोचा, जब वह घड़ी होगी तो जाने किससे उसका विवाह होगा। दस वर्षीय वन्दना विवाह का अर्थ समझती थी। वह उस कमरे से बाहर निकलने लगी तो उसने सूना। ‘यदि आपको कुछ हो गया जागीरदार साहब तो विश्वास कीजिए आपका बदला, यदि भगवान ने चाहा, तो मैं लूंगा – मैं।’ मोहन सिंह ने छाती ठोंक कर ‘मैं’ शब्द पर जोर दिया। बोला, ‘यदि मैं भी किसी कारण आपका बदला लेने में असमर्थ रहा तो मेरा बेटा आपका बदला लेगा। हमने
आपका नमक खाया है। आप स्वयं जानते हैं कि ठाकुरों के लिए नमक का मूल्य उसकी जान से बढ़कर होता है। वन्दना अपने कमरे में पहुंची और खिड़की द्वारा बाहर गांव का वातावरण देखने लगी। वह सोचने लगी कि उसकी एक छोटी-सी बात ने अमर के अन्दर कितना बड़ा परिवर्तन उत्पन्न कर दिया है। भगवान करे वह अपने प्रयत्न में सफल रहे। उसकी इच्छाशक्ति उसका साथ दे। वन्दना के सोचने में केवल बचपन की भावना थी। और किसी भी बात का इसमें दखल नहीं था। क्या अगर वह गांव के सभी लड़कों को इसी प्रकार समझाए तो वे सब सुधर कर बड़े होने के बाद अपने गांव की रक्षा करने को तैयार हो जाएंगे? उनमें बल का साहस उत्पन्न हो सकेगा? उसने सोचा, प्रयत्न करने में हर्ज ही क्या है? उसने प्रयत्न करने का निर्णय भी कर लिया। परन्तु अगले ही दिन लंदन से उसकी अंग्रेज मां आ गई। इस बार उसकी मां चार वर्ष बाद आई थी। साथ में अपने दूसरे पति को लाई थी। पति भारत पहली बार आया था, भारत का कोना-कोना देखने की योजना बनाकर। वन्दना के लिए उसकी मां सदैव समान इस बार भी उसकी आयु अनुसार एक से एक बढ़कर विदेशी खिलौने, कपड़े, टॉफियां आदि लेकर आई थी। वन्दना अपनी मां से इतने वर्षों बाद मिली थी इसलिए प्रसन्नता का ठिकाना न रहा।