Fantasy मोहिनी

बम्बई में शांताक्रुज इंटरनैशनल एयरपोर्ट पर उतरते ही मैंने राहत की साँस ली। मैं कस्टम से बाहर निकला तो मेरी कोई मंजिल नहीं थी। एक अरसा बीत चुका था बम्बई छोड़े। बम्बई उतरते ही मुझे पुराने चेहरों की याद आई। सोचा मैसूर की पहाड़ियों में जाकर पहले कुलवंत से मिल लिया जाए लेकिन मेरे लिए यह जानना भी आवश्यक था कि हरि आनन्द इन दिनों कहाँ है और क्या कर रहा है ?

मोहिनी मेरे लिए ऐसी जानकारी जुटाने के लिए काफ़ी थी। मोहिनी ने मुझे बताया कि हरि आनन्द इन दिनों पूना में है। मैं एक दिन बम्बई में रुका और अगले दिन पूना के लिए रवाना हो गया तो अचानक रास्ते में ही मोहिनी ने बताया कि हरि आनन्द पूना छोड़ चुका है और मैसूर की तरफ़ जा रहा है।

“क्या उसे मेरे आगमन की खबर मिल गयी ?” मैंने मोहिनी से पूछा।

“कह नहीं सकती। लेकिन उसने अचानक ही पूना छोड़ा है। वरना तो वह वहाँ ऐश कर रहा था। त्रिवेणी की सारी सम्पति उसके कब्जे में थी। त्रिवेणी के चेले-चपाटे उसकी सेवा कर रहे थे और त्रिवेणी, वह नामुराद सड़कों पर अंधे-अपाहिज के रूप में भीख माँगा करता है।”

त्रिवेणी का ज़िक्र आते ही मुझे वह दिन याद आ गए जब मैं पूना में भीख माँगा करता था और त्रिवेणी ने मोहिनी का जाप करके उसे प्राप्त कर लिया था। मुझ पर लातादाद जुल्म तोड़े थे।

लेकिन मोहिनी को फिर से पाने के बाद मैंने भी उसे माफ़ नहीं किया था। उसकी आँखें फोड़ दी थी। घुटने तोड़ दिए थे और अब उसका हाल सुनकर मुझे ख़ुशी हुई। पूना पहुँचते ही मुझे कुलवंत याद आ गयी। कुलवंत एक ऐसी रूपसी थी जिसे मैंने इसी शहर में पाया था। वह मुझसे बेपनाह मोहब्बत करती थी। उसने मेरे लिए घर-बार छोड़ दिया था और फिर वही कुलवंत मैसूर के एक पहाड़ी में साधु प्रेम लाल की कुटिया में वैरागन बन गयी। साधु प्रेम लाल की शक्तियाँ उसे वरदान में मिली थी। वह उसी कुटी में तप कर रही थी।

मैं पूना में रुका तो त्रिवेणी का हाल देखने की ललक हुई और मोहिनी ने मुझे बताया कि वह रेस के मैदान के आस-पास कहीं मिल जाएगा।

मैं त्रिवेणी से एक-दो बातें भी करना चाहता था। मैं सीधा रेस के मैदान में पहुँचा।

हमेशा की तरह वह त्रिवेणी तक ले गयी जो एक जगह हाथ फैलाए बैठा था। जर्जर शरीर, हड्डियों का ढांचा निकल आया था। बाल बढ़े हुए थे, शरीर पर चिथड़े झूल रहे थे। वह दोनों आँखों से अंधा था और एक पहिएदार पटरे पर बैठा था। उसे देखकर तरस आता था।

मैंने ज़ेब से एक सौ का नोट निकालकर उसकी हथेली पर फेंक दिया।

त्रिवेणी ने करारे नोट को छू-छूकर देखा। शायद वह उसकी लम्बाई-चौड़ाई नाप कर अंदाज़ा लगाना चाहता था कि कितने का नोट है।”

“सौ का नोट है त्रिवेणी दास।” मैंने उसकी समस्या दूर कर दी।
उसके चेहरे पर भारी आश्चर्य था।

“भगवान तुझे और दे बेटा, मालामाल कर दे, सुखी रखे।”

मैं समझ गया कि उसने मेरी आवाज़ सुनकर पहचाना नहीं।

कुछ क्षण तक मैं चुपचाप उसकी दिलचस्पियाँ देखता रहा फिर बोला-”यहीं किसी जमाने में तुमने इसी जगह पर एक भिखारी को दस का नोट दिया था…।”

अब त्रिवेणी चौंक पड़ा। उसकी उंगलियाँ काँप गयी। नोट उसके हाथ से छूट गया।
“क…कौन हो तुम ?” वह फँसे-फँसे स्वर में बोला।

“मैं वही भिखारी कुँवर राज ठाकुर हूँ।”

त्रिवेणी के सिर पर तो जैसे बम फट गया था। उसका सारा शरीर सूखे पत्ते की तरह थर-थर काँपने लगा।

“डरो नहीं त्रिवेणी दास। भगवान ने तुम्हें तुम्हारे पापों की सजा दे दी। मैं तुमसे हरि आनन्द के बारे में पूछने आया था। एक जमाने में तो तुम भी उसी मठ के पुजारी रह चुके हो।”

“ह…हरि आनन्द।” वह काँप गया। “कुँवर साहब, मुझ पर दया करो!”

“दया ऊपर वाले के हाथ में है। मैं इस दुनिया में दया धर्म के लिए नहीं आया हूँ। यह सौ का नोट तुम्हें इसलिए दिया है कि तुम मुझे हरि आनन्द के बारे में बता सको। वह तुम्हारी सम्पत्ति पर कब्जा जमाए बैठा था।”

“अब वह मेरी सम्पत्ति कहाँ रही। मण्डल वालों की है। उन्होंने मुझ पर जरा भी तरस नहीं खाया। मैं तो अब बस एक भिखारी हूँ। मैं तो देख भी नहीं सकता, चल भी नहीं सकता कुँवर साहब! मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिए। हरि आनन्द वहाँ ज़रूर था। पर मुझे उसके बारे में कुछ नहीं मालूम।”

“त्रिवेणी तुम्हें यह तो मालूम होगा कि उनके छिपे हुए मठ कहाँ-कहाँ हैं ?”

“उनसे निपटना इतना आसान नहीं है कुँवर साहब।”

“मेरी बात का जवाब दो त्रिवेणी।” मैंने कठोर स्वर में कहा। “तुम जानते हो मैं किस तरह से निपट सकता हूँ।”

त्रिवेणी ने महामठ कलकत्ता के अलावा चार आश्रमों का पता और दिया और उनमें से एक मैसूर भी था। दूसरा बनारस में, तीसरा पटना में और चौथा इलाहाबाद में।

मैं जानता था कि मोहिनी इन मठों में नहीं जा सकती। परंतु मेरे पास मोहिनी के अलावा दूसरी शक्तियाँ भी थी। प्रेम लाल और साधु जगदेव का मुझे आशीर्वाद प्राप्त था।

उन लोगों की कुछ सम्पत्तियाँ बहुत से शहरों में फैली पड़ी थी। उनके सैकड़ों चेले-चपाटे थे जो ज़रूरत पड़ने पर हरि आनन्द की सहायता के लिए कूद सकते थे।

मैं ऐसे सारे ठिकाने तबाह कर देना चाहता था जहाँ हरि आनन्द को पनाह मिल सके। ताकि मैं जिस शहर से गुजरूँ वहाँ हरि आनन्द कदम न रख सके।
इसकी शुरुआत पूना से ही हो गयी।

मैंने रात का वक्त निश्चित किया और उस वक्त हल्ला बोल दिया जब हरि आनन्द के चेले मस्ती में सो रहे थे।

यह वही इमारत थी जहाँ त्रिवेणी रहा करता था और इस इमारत के चप्पे-चप्पे से मैं वाकिफ था। उस वक्त वहाँ कोई ऐसा बड़ा पुजारी नहीं था जो मेरा रास्ता रोक सके।

मोहिनी एक सिर से दूसरे सिर पर फुदकती रही और उन कमरों के दरवाज़े बंद होते रहे जहाँ हरि आनन्द के चेले मस्ती की नींद छान रहे थे।

इसके बाद मोहिनी दरबान के सिर पर चली गयी और दरबान ने बाकायदा पेट्रोल छिड़कने का काम शुरू कर दिया। कुछ ही देर बाद सारी इमारत शोलों से घिरी थी। और वर्करफ्तारी से इमारत से दूर होता जा रहा था।

मैंने रात की ट्रेन पकड़ी और पूना छोड़ दिया। ठीक उस वक्त जब मैं कम्पार्टमेंट में सोने की तैयारी कर रहा था मोहिनी रूपी छिपकली मेरे सिर पर सरसराने लगी और फिर मोहिनी इमारत खाक होने और अठारह आदमियों के मारे जाने का समाचार चटखारे ले लेकर सुनाती रही।

लेकिन मैसूर पहुँचने से पहले ही मोहिनी ने संकेत दिया कि हरि आनन्द वहाँ से भी चम्पत हो गया है।

“इसका मतलब यह हुआ मोहिनी कि उसे मेरे आगमन का पता चल चुका है।” मैंने बेचैनी से कहा। “और अब वह मुझसे जान बचाता हुआ भाग रहा है। लेकिन भागकर जाएगा कहाँ ? अभी तो मैं सिर्फ़ तुमसे ही काम ले रहा हूँ। देखना यह है कि यह आँख मिचौली और चूहे-बिल्ली का खेल कब तक चलता है।”

“लेकिन राज, पूना में हम जो कांड कर आए हैं उस से वे लोग सतर्क हो जाएँगे।”

“और मैं कब चाहता हूँ कि उनकी पीठ पर वार करूँ। मैं तो उसे भी ललकार मारूँगा। वे अपनी सारी फ़ौज़ अमले तैयार कर ले। और जब हमने ओखली में सिर दिया ही है तो मूसल से क्या घबराना।”

“उन्होंने मैसूर के मठ में ज़रूर आवश्यक तैयारियाँ कर ली होंगी।”

“मोहिनी क्या तुम उन मठों के बारे में कुछ नहीं बता सकती ?”

“नहीं मेरे आका, मैं तो उन्हें देख भी नहीं सकती। उनके इर्द-गिर्द एक हिस्सा बँधा होता है। हर मठ में काली की पूजा होती है इसलिए मैं वहाँ जा भी नहीं सकती। लेकिन राज, तुम बिना सोचे-समझे मठ में प्रविष्ट मत होना।”

“तू भी कभी-कभी बड़ी बुजदिली की बात करती है मोहिनी। कम से कम यह तो देख लिया कर कि तू किसके सिर पर बैठी है।”

“बड़ा गरूर है तुम्हें अपने सिर पर राज।”

“सब्र करो रानी मेरे सिर के मखमली बिछौने पर। इससे अच्छा बिस्तर तुम्हें मिलेगा कहाँ। अब अपनी बत्ती बंद करके सो जाओ चुपचाप।” मैंने सिर पर चपत जमाते हुए कहा।

मोहिनी हँसकर बोली- “क्या करें, नींद ही नहीं आ रही है।”

“तो फिर मेरे सीने में समा जाओ, नींद आ जाएगी।”

“काश कि ऐसा ही होता तो मैं सिरों में सिर क्यों टकराती रहती… ?” मोहिनी ने कहा और बायीं करवट लेट गयी।

फिर मैंने भी बर्थ पर आँख मूँद लीं।
रात बीत गयी।
मैसूर पहुँचते ही मैंने एक होटल में कयाम किया और सारा दिन सफ़र की थकान मिटाता रहा। मेरा दुश्मन अब इस जगह नहीं था। इसलिए मुझे किसी प्रकार की जल्दी नहीं थी। मैं सोच समझकर ही उस मठ में कदम रखना चाहता था। मैं जानता था कि वहाँ मोहिनी मेरा साथ नहीं दे पाएगी।

मेरे लिए यह जानना ज़रूरी था कि वहाँ किस प्रकार के ख़तरे मेरा स्वागत करने के लिए तैयार हैं।

वहाँ जाने के बाद मुझे कुलवंत की याद भी सताने लगी थी।

कुलवंत जो मैसूर की ही एक पहाड़ी पर तप कर रही थी। मेरी मुँहबोली बहन तरन्नुम उसके पास थी। उनके क़रीब आते ही मुझे उनकी याद सताने लगी।

दिन भर थकान मिटाने के बाद मैं शाम को घूमने निकला और फिर मैंने उस तरफ़ का रुख़ किया जिधर मठ था।

मैसूर के पूर्वी क्षेत्र में एक पहाड़ी टीकरे पर एक महलनुमा इमारत थी। जैसे ही मैंने उस तरफ़ कदम बढ़ाने चाहे मोहिनी के पंजों की तेज चुभन ने मुझे सचेत किया और मैं रुक गया।

“क्या बात है मोहिनी, तुम बेचैन क्यों हो ?”

“मैं जरा देर के लिए होटल घूमकर आना चाहती हूँ। राज, यहाँ मुझे कुछ गड़बड़ मालूम होती है। मैं खतरे के बादल मँडराती देख रही हूँ।”

“जाओ…!”

“लेकिन जब तक मैं लौटकर न आऊँ तुम यहीं पर रुके रहोगे।”

“ऐसा क्यों ?”

“यह मैं तुम्हें लौटकर बताऊँगी।”

मोहिनी ने छिपकली का रूप धारण किया और सरसराती हुई नीचे उतर गयी। मैं शहर से बाहर आ गया था और मेरे सामने एक दरिया था। दरिया का पुल मुझे नज़र आ रहा था। एक सड़क भी दिखायी दे रही थी जो बल खाती हुई उस पार की पहाड़ी पर चली गयी थी।

दूर पहाड़ी पर महल के कंगूरे भी मुझे नजर आ रहे थे। यहीं उन तांत्रिकों का छिपा हुआ मठ था जो हवा महल के नाम से जाना जाता था और जो आज तक मेरी नज़रों से पोशीदा था।

हालाँकि उस वक्त वहाँ हरि आनन्द नहीं था परंतु हरि आनन्द जैसे कई पापी थे। हरि आनन्द तो इन लोगों का आवाकोर था।

सड़क के नीचे उतरकर मैं दरिया के किनारे एक टीले पर जा बैठा और मोहिनी के लौट आने का इंतज़ार करता रहा। मोहिनी ने दस-पंद्रह मिनट से अधिक समय नहीं लिया जब वह एक धमाके के साथ मेरे सिर पर आ गयी।

खासी बेचैनी थी उसके चेहरे पर।

“क्या खबर लायी हो परकाला ?”

“राज, यह पुलिस तुम्हारे लिए सरगर्म हो चुकी है।”

“क्या मतलब ? मैंने अभी-अभी तो यहाँ कदम रखा है। और फिर मैंने यहाँ जुर्म ही क्या किया है ?”

“वे लोग तुम्हें किसी न किसी चक्कर में घेर लेने की तैयारी कर चुके हैं और इस वक्त सरकारी अमले से तुम्हारा उलझना ठीक नहीं है। उन्होंने होटल घेर लिया है और जिस कमरे में तुम ठहरे हो उसकी तलाशी ली जा रही है। वे तुम्हें पूना में हुए कांड का दोषी भी समझते हैं।”

“लेकिन इतनी जल्दी वह किस तरह होटल तक पहुँच गए ?” मैंने चौंककर पूछा।

“जिन लोगों के ख़िलाफ़ तुम जेहाद कर रहे हो, उनके साथ भी कुछ काले जादू के फितने है। और जिस तरह तुम यह जान लेते हो कि हरि आनन्द कहाँ है, उन्हें भी तुम्हारी मौजूदगी का इल्म हो जाता है। और यह तो तुम्हें पहले ही मालूम है कि सरकारी मशीनरी में उनका कितना दख़ल है।”

“मोहिनी, वह इधर का रुख़ भी कर सकते हैं ?”

“मेरा तो ख्याल है कि यहाँ भी पुलिस का ख़तरा मँडरा रहा है। इसलिए मैंने तुम्हें आगे बढ़ने से रोका था। हवा महल के इर्द-गिर्द का हिस्सार मैं भेद नहीं पा रही हूँ। परंतु मैंने एक पुलिस लारी को उस पहाड़ी पर गुजरते देखा है।”

अब मेरा आगे बढ़ना ख़तरे से खाली नहीं था। हरचंद की पुलिस मुझे जेल में नहीं रख सकती थी लेकिन उससे मेरे ख़िलाफ़ हवा गर्म हो जाती; और फिर देश की पुलिस मेरे लिए नाके बंदी कर सकती थी। पुलिस से जितना फासला बना रहे उतना बेहतर था।

मैंने मठ की ओर जाने का विचार स्थगित कर दिया और अब न ही मैं होटल लौट सकता था। मैंने तय किया कि मैं कुछ दिन कुलवन्त के पास रहकर वापस आऊँगा। तब तक पुलिस की सरगर्मियाँ भी कम हो जाएँगी। जब वे मुझे कहीं नहीं पाएँगे तो यह सोचकर चुप हो जाएँगे कि मैं मैसूर छोड़ चुका हूँ।

और फिर बिना कुछ अधिक सोचे मैंने यात्रा शुरू कर दी। जिस जगह कुलवन्त रहती थी वहाँ पहुँचना किसी इंसान के लिए बड़ी टेढ़ी खीर थी।

बयाबान पहाड़ियाँ, ख़तरनाक जंगल और काँटों भरे रास्ते। पगडंडियों के सहारे ही रास्ता तय करना होता था। उन पगडंडियों पर भी इंसान रास्ता भटक सकता था। भूल-भुलैया पहाड़ियों का यह जाल अंत तक समाप्त नहीं होता था।

पहले भी मैं यहाँ दो मर्तबा आ चुका था। उस वक्त भी मोहिनी मेरे साथ पथ प्रदर्शक के रूप में रही थी।

मैं चलता रहा इस थका देने वाली यात्रा पर। अपनी मंजिले तय करता रहा। खाने-पीने का कुछ साथ था नहीं इसलिए जंगल के फलों से गुजारा करना पड़ा। प्यास लगती तो मोहिनी मुझे झरने के पास ले जाती।

यूँ भी हमने ऐसा रास्ता चुन लिया था कि हमें भूख-प्यास का अधिक मुक़ाबला न करना पड़े।पंद्रह दिन की निरंतर यात्रा के बाद एक सुबह मैंने अपने आपको उस झरने के पास पाया जहाँ पहली बार मुझे माया मिली थी। मैं अपनी मंज़िल पर आ गया था। ऊपर वह कुटी थी जहाँ कुलवन्त को होना चाहिए था। मैंने मोहिनी से कहा कि देखकर आओ कुलवन्त क्या कर रही है।

मोहिनी मेरे सिर से उतर गयी और कुछ सेकेंड बाद लौट आयी।

“मुझे कुलवन्त नज़र नहीं आयी।” मोहिनी ने सूचना दी। “कुटी मण्डल के घेरे में है और भीतर कुछ नज़र नहीं आता और मैं वहाँ नहीं जा सकती।”

“और तरन्नुम ?”

“तरन्नुम पहाड़ी से उतरते हुए आ रही है।”

“ओह, इसका मतलब कुलवन्त यहाँ किसी जाप में लीन होगी! पहले भी तो तुम वहाँ बेबस हो गयी थी मोहिनी।”

“हाँ आका! वह प्रेम लाल का पवित्र स्थान है और मोहिनी को वहाँ अपनी इच्छा से जाने का अधिकार नहीं।”

मैं चुप हो गया। मोहिनी की विवशता को मैं अच्छी तरह समझता था।

अधिक देर नहीं हुई जब तरन्नुम झरने के क़रीब आती दिखायी दी। उसने दूर से ही मुझे पहचान लिया। उसकी चाल तेज हो गयी और जब वह क़रीब आयी तो दौड़कर मुझसे लिपट गयी।

“भाईजान!”

“हाँ तरन्नुम, मैं ही हूँ! कैसी हो ?”

“बहुत मज़े में हूँ।”

“और तुम्हारी दीदी ?”

“बाज़ी भी ठीक है ?”

“लेकिन तुम्हें कैसे पता चला कि मैं यहाँ हूँ ?”

“रात ही सपने में बाज़ी ने मुझसे कहा था कि आप सुबह-सुबह तशरीफ ला रहे हैं; और मैं आपका ही इंतज़ार कर रही थी।”

“कुलवन्त इस समय क्या कर रही है ?”

“छः दिन हो गए, वह मण्डल में बैठी है। ग्यारह दिन बाद वह मण्डल से बाहर आएगी।”

“ओह! अभी कितने दिन बाकी हैं ?”

“ग्यारहवें दिन बाहर आएगी।” तरन्नुम ने कहा।

इसका मतलब यह था कि मुझे ग्यारह दिन उसकी प्रतीक्षा करनी थी। तरन्नुम के साथ और बहुत सी बातें करते हुए हम ऊपर की तरफ़ चल पड़े।

ग्यारह दिन कैसे बीते इसके बारे अधिक कुछ कहना निरर्थक है क्योंकि इस बीच सिवाय मोहिनी के चुहलबाजियों के अलावा कोई विशेष बात उल्लेखनीय नहीं है।

मोहिनी के लिए अब मुझे खुद उसकी गिजा का प्रबंध नहीं करना पड़ता था। जब उसे खून की ज़रूरत होती मेरे सिर से उतर जाती और इंसानी लहू से अपनी प्यास बुझाकर लौट आती।

जब मैं कुटी में आराम कर रहा था तो मोहिनी बीच में तीन दिन ग़ायब रही। बाद में अपने सैर-सपाटों का हाल सुनाती रही।

इस बार उसने किसी शराबी का खून पी लिया था। मोहिनी ने हँस-हँसकर बताया कि उस कमबख्त के खून में सिवाय अल्कोहल के कुछ था ही नहीं और उसे भी तीन रोज़ तक नशा रहा। नशे की हालत में वह तीन दिन तक एक सिर से दूसरे सिर पर जाती रही और उधम मचाती रही। मोहिनी को हंगामे पसंद थे और वह क्या कुछ कर सकती थी इसका तजुर्बा मुझे बहुत था।

ग्यारहवें दिन कुलवन्त का जाप खत्म हुआ। वह अपने मण्डल से बाहर आ गयी। उसके हाथ में एक माला थी जिस पर वह जाप कर रही थी। कुलवन्त अब पहले से हसीन और जवान दिखायी पड़ती थी; और उसके जवान जिस्म की सुगंध जंगली फूलों की तरह भीनी-भीनी थी। उसके चेहरे पर प्रखर तेज था और आँखों में सम्मोहन।

उसने मुस्कराकर मेरा स्वागत किया।

“ग्यारह दिन से यहाँ डटा हूँ कुलवन्त और तुम हो कि तुम्हें इसका ख़्याल ही नहीं कि कौन यहाँ आया है। देखो, मैं हूँ तुम्हारा राज। पहचाना मुझे ?”

“राज, तुम क्या सोचते हो कि मुझे तुम्हारा ख़्याल ही नहीं! कहो तो तुम्हारी रोजमर्रा की बातें सुना डालूँ ? अगर मुझे ख़्याल न होता तो किस तरह तरन्नुम ने तुम्हारी खातिरदारी में कोई कसर छोड़ी है।”

“लेकिन कुलवन्त, तुम्हारी यह ज़िंदगी देखकर मुझे भी मायूसी होती है। सोचता हूँ तुम्हें यहाँ अपने साथ लाकर मैंने बहुत बड़ा पाप किया था। तुम्हारी सुंदरता का यह पुजारी जाने कहाँ-कहाँ भटक रहा है अपने मनहूस साये को लेकर; और तुम यहाँ जंगल में तनहा ज़िंदगी गुज़ार रही हो।”

“मैं इस ज़िंदगी में भी बहुत ख़ुश हूँ राज; और यहाँ भी मैं तुम्हारे लिए ही जी रही हूँ। जब तुमने हिन्दुस्तान की ज़मीन पर कदम रखा तो मैंने तुम्हारी सुरक्षा का कवच बनाना शुरू कर दिया था। तुम्हारे दुश्मनों की तादाद बहुत बढ़ गयी है राज।”

“कुछ दिन के लिए ही सही तुम मेरे साथ तो चलो; और देखो तो दुनिया कितनी आगे बढ़ गयी है। मैं तुम्हारे साथ सारी दुनिया घूमना चाहता हूँ। मेरा जीवन बहुत वीरान हो चुका है कुलवन्त। मुझे अपने साये से भी डर लगता है। मुझे किसी पर भी ऐतबार नहीं रहा। बहुत से लोग मेरी ज़िंदगी में आना चाहते हैं तो मैं उनसे दूर भागना चाहता हूँ। ऐसा इसलिए कुलवन्त क्योंकि मेरी ज़िंदगी में आनी वाली हर प्रिय वस्तु मुझसे छीन गयी। मैं कितना अकेला हो गया हूँ।”

मेरा गला भर्राने लगा, आँखें नम होने लगीं। कुलवन्त के सामने मैं अपने आपको एक बच्चा समझ रहा था। फिर कुलवन्त मुझे दिलासा देती रही, मेरा हौसला बढ़ाती रही और मैं उसके घुटनों में सिर रखे सुबकता रहा।

मैं कुलवन्त से ज़िद करता रहा कि वह मेरे साथ चले। अपने फूल मेरे आँखों में खिला दे और मैं सबकुछ भूलकर अपनी जिंदगी चैन व सुकून से बिता लूँगा। हम दोनों के पास अंधेरों में टिमटिमाता एक दीपक था- कुलवन्त।

“मेरे पागल प्रेमी, तुम अकेले कभी नहीं रहे। हर वक्त तो मैं तुम्हारे साथ होती हूँ। तुम जहाँ जाओगे मैं तुम्हारे साथ रहूँगी। दुनिया के इस छोर से उस छोर तक। इस सदी से आख़िरी सदी तक। इस जन्म से आख़िरी जन्म तक। यह इंसानी देह का साथ तो चंद दिनों का होता है। देह मिट जाती है तो सबकुछ मिट जाता है, सभी कुछ यहाँ छूट जाता है और आत्मा बस भटकती रहती है। फासले इतने बढ़ जाते हैं कि कोई फिर कभी नहीं मिलता।

“मैं इन फासलों को मिटा देना चाहती हूँ। मेरी देह तुम्हारे साथ नहीं तो क्या हुआ, आत्मा तो साथ है; और जब आत्मा आत्मा से मिल जाती है तो फासले नहीं रहते। देखो राज, दिल छोटा न करो!

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