Fantasy मोहिनी

अशर्फी बेगम के बाला खाने पर हुस्न का इम्तहान था। एक से एक सुन्दरियाँ वहाँ आ गयी थीं। एक हफ्ते बाद सूरत यह हुई कि दिलनशीं की कीमत तेजी से बढ़ती जा रही थी। मेरे लिये यह सब दिलचस्प और अनोखा मंजर था। मोहिनी भी खुश नजर आ रही थी। एक दिन यह सुना कि बब्बन अली ने अपना एक ख़ास दूत अशर्फी बेगम के पास उपहारों सहित भेजा और कदाचित दिलनशीं की कीमत बढ़ाने के लिये अशर्फी बेगम को नवाब बब्बन अली का ही इन्तजार था। कोई दस मिनट बाद एक रात वह कमीना नवाब सज-धज कर अपने चमचों के साथ अशर्फी बेगम के बालाखाने पर हाजिर हुआ। दूसरे उमरा ने भी अशर्फी बेगम के साथ दिल खोलकर उसका स्वागत किया। बब्बन अली ने अपने गले की माला उतार कर दी। फिर मैंने अशर्फी बेगम को बुलाकर पूछा–
“अब क्या इरादे हैं अशर्फी बेगम ?”

“देखिए न कुँवर साहब। बात चंद दिनों में लाखों रुपयों तक जा पहुँची।”

“मुझे मालूम है। बहरहाल आप कब तक तड़पाती रहेंगी। इन लोगों से मुझे रकावह महसूस होती है।”

अशर्फी बेगम ने व्यापारिक हँसी हँसते हुए कहा– “मुझे कुछ कमा लेने दीजिए। आपने देखा, बोली दस लाख को पार कर गयी है।”

“लेकिन मेरी पेशकश पहली थी। फिर भी मैं इससे अधिक देने को तैयार हूँ।”

“आप मुझे मोहलत दीजिए।” अशर्फी बेगम ने दरख्वास्त की।

बब्बन अली ने मुझे अशर्फी बेगम से राजदाराना अंदाज में बातें करते देखा तो मुँह फेर लिया। अशर्फी बेगम मेरे पास से उठकर उसके पास चली गयी। मोहिनी भी बब्बन अली के सिर पर पहुँच गयी। उस दौरान दिलनशीं के सौदे की बात हुई और बब्बन अली ने उससे अधिक रकम लगा दी। फिर यही सिलसिला चलता रहा और एक महीने में इस नाटक ने ऐसा जोर पकड़ा कि कई छोटे-मोटे नवाबों ने उधर जाने की तौबा कर ली। बब्बन अली रोज आता और रुपये लुटाकर चला जाता। इस अरसे में उसे अपने चंद गाँव बेचने पड़े। मैं खामोश तमाशाई बना यह दिलचस्प तमाशा देखता रहा। यह दुनिया का सबसे सनसनीखेज नीलाम था। अशर्फी बेगम लाखों में खेल रही थी। गाते-गाते दिलनशीं का गला बैठ जाता था। वह नवाबेन, जो अपने नाम की खातिर अपनी मूँछ ऊँची रखने के लिये अपना सब कुछ लुटाने और अपने आपको दाँव पर लगाने में भी नहीं हिचकते, वह एक खूबसूरत नर्तकी के लिये एक दूसरे का मुकाबला कर रहे थे। अगर कोई बोली लगाने में हिचकता था तो मैं मोहिनी को उसके सिर पर भेज देता। इस मैदान में जीत उसी व्यक्ति की होनी थी जो पैसे के लिहाज से सबसे ताकतवर हो।

मुझे दिलनशीं में कोई दिलचस्पी नहीं थी। मेरा उद्देश्य तो कुछ और ही था। मैं दिन भर मोहिनी के जरिए रुपये इकट्ठा करता और रात को अशर्फी बेगम के बालाखाने पर बरसा देता। अब अशर्फी बेगम के तेवर बदल गए थे। वह मेरी इज्जत करने लगी थी। उसके यहाँ की दूसरी लड़कियाँ मेरे सामने बिछी-बिछी जाती थीं। अशर्फी बेगम की हवस रोज ही बढ़ती जा रही थी और वह जानबूझकर सौदे को लम्बा कर रही थी। मुझे दो मौसम गुजारने थे ताकि हरि आनन्द काली की रक्षा से बाहर आ सके। वक्त आहिस्ता-आहिस्ता गुजरने लगा और दो माह गुजर गए। मुझे याद नहीं कि मैंने कितनी दौलत उस बालाखाने पर कुर्बान कर दी लेकिन बब्बन अली को मैंने दीवाना बना दिया था। अब उसके पास नकदी और जेवरात लगभग समाप्त हो चुके थे। पैसा तेजी से बह रहा था। कभी वह खुद लुटाता। कभी मोहिनी उसके सिर पर जाकर दौलत लुटवाती। इस तरह वह दूसरे उमरा के सामने मूँछें ऊँची करता और दूसरे दिन उसके गुर्गे बढ़-चढ़ कर उसके नाम की चर्चा करते।

शहर में बब्बन अली की धूम मची हुई थी। दिलनशीं अभी तक अशर्फी बेगम के पास थी। नौबत यहाँ तक पहुँची कि बब्बन अली सब कुछ लुटा बैठा। अब ले देकर एक हवेली रह गयी थी। वह हवेली जिस पर मेरी नजर थी। आखिर एक दिन मैं नाटक के पर्दे से हट गया और दूसरे लोग भी धीरे-धीरे रुखसत हो गये। बब्बन अली को दिलनशीं की नथ बड़ी महँगी पड़ी। पर वह जिद का पक्का था और अशर्फी बेगम ने उसकी हवेली से दिलनशीं को तोल दिया। इसके सिवा बब्बन अली के पास कुछ न रहा।

बब्बन अली की हवेली अशर्फी बेगम के हवाले हो गयी और लोगों ने देखा कि बब्बन अली ने आखिरी रात दिलनशीं के गुदाज जिस्म की छाँव में गुजारी। दिलनशीं की यह कीमत उसे सस्ती पड़ी इसलिए कि लोगों ने बड़ी-बड़ी बोलियाँ लगा दी थी मगर वह सब गायब हो गए थे। अशर्फी बेगम की आँख में पुराने सम्बन्ध की वजह से बहरहाल इतनी मुरव्वत जरूर थी कि उसने दिलनशीं को बब्बन के हवाले कर दिया। वह रात आखिरी रात थी। एक हफ्ते तक बब्बन अली उस नथ उतराई के जश्न में मस्त रहा। फिर अगले हफ्ते अशर्फी बेगम के गुंडों ने उसे हवेली से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया। यह एक नवाब का हैरतअंगेज अंत था। हवेली से सामान निकला जो बाजारों में आया और बब्बन अली ने उसे बेच कर अपने लिये किराये का मकान ले लिया। उसकी दोनों बहनें और दो वफादार नौकर साथ थे। वह लखनऊ के एक मोहल्ले में बस गए।

बब्बन अली की ज़िन्दगी में ही उसकी मौत हो गयी थी। वह पागलों के से अंदाज में अशर्फी बेगम के यहाँ जाता और अशर्फी बेगम मेरे सामने ही उससे नजरें फेर लेती। उसकी बहनें तो कोठे पर नहीं बैठ सकीं लेकिन मैंने ऐसी सूरत पैदा कर दी थी कि खुद बब्बन अली अशर्फी बेगम के यहाँ चिलम भरने लगा। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि उसके शुभचिंतक उससे दूर हो गए थे। वह एक बदनाम और बेइज्जत आदमी की तरह हर तरफ मशहूर हो गया था और आखिर इस ड्रामे का ड्रॉपसीन इस तरह हुआ कि बब्बन अली केवल अशर्फी बेगम के बालाखाने का होकर रह गया। वह अपने घर वापिस नहीं आना चाहता था। रुखसाना और शबाना की हिफाजत उसके दोनों वफादार नौकर कर रहे थे। बब्बन अली स्थाई रूप से अशर्फी बेगम की ड्योढ़ी पर टिक गया। उसकी हालत दीवानों की सी थी। उसे अपना होश नहीं रहता था। मुजरे के दौरान वह एक तुच्छ आदमी की तरह अलग-थलग बैठा रहता और एक-एक का मुँह ताकता रहता। रुखसाना और शबाना को देखने को जी चाहता था। एक दिन मैं उनके मकान पर पहुँचा। वह एक साधारण दर्जे का मकान था। मैंने खुद को बब्बन अली का दोस्त जाहिर किया लेकिन मुझे अन्दर जाने की आज्ञा नहीं मिली। दरवाजे पर वही शहजादा नजर आया जो बब्बन अली की हवेली में मिला था। उसने मेरा रास्ता रोक लिया।

“आप यहाँ भी हैं ?” मैंने पूछा।

“हाँ, इन लोगों को हिफाजत की जरूरत थी! हम यहाँ चले आए।” उसने सपाट लहजे में उत्तर दिया।

“मैं रुखसाना और शबाना की मदद करना चाहता हूँ। मुझे अन्दर जाने दीजिये।” मैंने कहा।

“खूब, अब आप उनकी मदद करना चाहते हैं! बाखुदा, अगर हमें रोक न दिया जाता तो हम आप को देख लेते ?” उसने गुस्से में कहा।

“आपका मकसद क्या है ?” मैंने भी तेवर बदले।

“वक्ती तौर पर हम मजबूर हो गए थे लेकिन आप इसे हमेशा की मजबूरी न समझिये।”

मोहिनी ने मुझे फिर वापस लौटने के लिये कहा। मैं बिफर रहा था लेकिन मोहिनी ने जब आगे कुछ कहने-सुनने से इनकार कर दिया तो मुझे वापस लौटना पड़ा। यह बात अवश्य साफ़ हो गयी थी कि वह शहजादा मुझसे सख्त नाराज था। मगर उसे कोई ताकत रोके हुए थी। वह ताकत कौन थी ? मैंने मोहिनी से पूछना चाहा परन्तु मोहिनी ने विषय बदलने की कोशिश की। मेरे दिल में यह बात फाँस बनकर अटक गयी। मैं चला आया। यूँ भी बब्बन अली को इस हालत में देखकर मेरा इंतकाम पूरा हो गया। बल्कि मुझे उस पर तरस आने लगा था। हाँ, रुखसाना और शबाना को देखने की तमन्ना दिल ही दिल में रह गयी।

अब मेरा काम ख़त्म हो गया था। अब मुझे केवल अशर्फी बेगम से निपटना था। उसे मैंने अब तक ढील दे रखी थी। तीन महीने से अधिक समय बीत गया था। इस तरह एक मौसम भी गुजर गया और सर्दियाँ शुरू हो गईं। दिलनशीं से अब मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी। आखिर एक रात अशर्फी बेगम के बालाखाने पर मैं सारा हिसाब-किताब चुकाने के इरादे से पहुँच गया। रंग जमा हुआ था। बब्बन अली एक कोने में भयभीत सा बैठा हुआ था। सब लोग छँट गए, दिलनशीं गा चुकी। खुर्शीद गा चुकी तो फानूस टिमटिमाने लगे। अशर्फी बेगम की जुर्रत नहीं थी कि वह मुझसे इजाजत माँगे।

आखिर मैंने उसे करीब बुलाया और सख्ती से कहा- “अशर्फी बेगम! अब तुम्हें यह पेशा छोड़ देना चाहिए। पिछले दिनों तुमने बहुत कमा लिया। जानती हो, यह सब कुछ किसकी वजह से हुआ ?”

“कुँवर साहब! कमाया क्या ख़ाक। इन लड़कियों को सिखाने पर इतना खर्च हो जाता है कि बचता-बचाता कुछ नहीं है। मगर आप कैसे समझ रहे हैं कि यह सब कुछ आप की वजह से हुआ। मैं अर्ज़ करूँ यह सब दिलनशीं के हुस्न का जलवा था।”

“भूल गयी कि हमने दिलनशीं की औकात से बढ़कर बोली लगाई थी ? क्या हाड़-माँस के इस पंजर की इतनी कीमत लग सकती थी ? लाख रुपये। दो लाख, दस लाख रुपये, लाखों रुपये। अशर्फी बेगम, कभी तुमने सुना है कि नथ की इतनी कीमत होती है ? तुम्हें नहीं मालूम, यह सब मैंने किया था और मैंने एक बड़े मकसद से किया था। अब मैं तुमसे एक चीज माँग रहा हूँ। वह मुझे दे दो। बब्बन अली की हवेली के कागजात।” मेरे स्वर में कठोरता बरस रही थी।मुझे मालूम था कि अशर्फी बेगम अब बहुत घमंडी हो गयी है। उसका मिजाज आसमान पर रहता था। वह मुझसे इस माँग की तो कल्पना भी नहीं कर सकती थी। इस अरसे में मेरे सादे स्वभाव के कारण उसका भय भी दूर हो गया था। उसका हत्थे से उखड़ना बिल्कुल स्वाभाविक था।

चीखकर बोली- “अरे वाह! आप भी कमाल करते हैं कुँवर साहब! आपने अपना हक खूब जमाया! कहीं आप नशे में तो नहीं हैं ?”

“अशर्फी बेगम! मैं जिस हालात में हूँ इसका अंदाजा तुम्हें हो जाएगा। तुम मेरी माँग पूरी कर दो, वरना नुकसान उठाओगी। इससे पहले कि मैं तुमसे कुछ और माँग करूँ। वह तमाम नगदी और जेवर तलब करूँ जो तुमने हासिल किए हैं, बेहतर है कि तुम खुद समझ जाओ।” मैंने धमकी भरे स्वर में कहा।

“आप बहक रहे हैं कुँवर साहब! ऐसे लोगों से बन्ने खां निपटता है। मैं आप से कहती हूँ कि आप अजराह करम, यहाँ से चले जाइए। अशर्फी बेगम का बालाखाना कोई चिड़ियाघर नहीं है। जहाँ तरह-तरह के जानवर अपनी बोलियाँ बोले।” अशर्फी बेगम ने भी सख्ती से जवाब दिया।

“तुम हद से बढ़ रही हो। मैं तुम्हारी मौत बनकर आया हूँ।” मैंने जहरीले स्वर में कहा।

साजिन्दे उठ गए थे। सिर्फ बन्ने खां तबलची मौजूद था। बब्बन अली भी एक कोने में सिमटा बैठा हमारी बातें सुन रहा था। जब बात ज्यादा गरम हुई और तू-तड़ाक तक नौबत पहुँची। अशर्फी बेगम ने सख्ती के साथ मुझे बालाखाने से निकल जाने का हुक्म दिया।

“अशर्फी बेगम! मैं आज के बाद यहाँ नहीं आऊँगा। मगर आज मैं तुम्हें तुम्हारे गुनाहों और कमीनगियों की सजा देने आया हूँ। आज मेरे आने का मकसद वह नहीं, जो रोज होता था।”

“बन्ने खां!” अशर्फी बेगम ने दो कदम पीछे हटते हुए कहा- “कुँवर राज ठाकुर, शायद ज्यादा बहक गए हैं। तुम्हें इन्हें रास्ता दिखाने की जरूरत पड़ेगी।”

बन्ने खां अशर्फी बेगम का पुराना नमकख्वार था। बाजारे हुस्न में उसका दबदबा था। आदमी सूरत से ही खतरनाक लगता था। अशर्फी बेगम का हुक्म पाते ही वह आस्तीनें चढ़ाता उठा। मूँछों पर ताव देता हुआ बोला।

“कुँवर साहब, इज्जत प्यारी है तो चलते-फिरते नज़र आओ! बन्ने खां की दुश्मनी ली तो लखनऊ की जमीन तुम पर तंग हो जाएगी। फिर यहाँ का आसमान भी तुम्हें पनाह न दे सकेगा।”

मेरे सब्र का पैमाना बन्ने खां का वाक्य सुनते ही छलक गया था। मैं तेजी से दरवाजे की तरफ बढ़ा। बन्ने खां के चेहरे पर विजेताओं की सी मुस्कराहट उभर आयी थी। इस अर्से में बब्बन अली कमरे से खिसक गया था। मुझे जाते देखकर अशर्फी बेगम ने खंखार कर थूका। उन दोनों का ख्याल था कि मैं डर कर जा रहा हूँ लेकिन जब मैंने दरवाजा बंद किया और पलटकर उन दोनों पर नजर डाली तो अशर्फी बेगम को झुरझुरी सी आ गयी। अलबत्ता बन्ने खां इस समय भी मुझे बिगड़े हुए तेवरों से घूर रहा था।

उसने कहा- “तुमने दरवाजा बंद करके खुद अपने लिये रास्ता बंद कर लिया है राज ठाकुर! यह आज तुम पर बहुत भारी पड़ेगा।”

बन्ने खां आगे बढ़ने लगा। वहाँ अब तीन ही इंसान थे। अशर्फी बेगम अपनी जगह खड़ी मुझे घूर रही थी। मेरे लिये परिस्थिति पर अधिकार प्राप्त करना कुछ कठिन नहीं था। अतः मैंने मोहिनी को संकेत किया। वह बन्ने खां के सिर पर पहुँची। जब मोहिनी मेरे सिर से उतर गयी तो मैंने बन्ने खां को संबोधित करते हुए कहा-
“बन्ने खां! मुझे मालूम है कि तुम कौन हो, लेकिन आज तुम्हारा वास्ता किसी और से पड़ा है। बेहतर है जहाँ हो वही रुक जाओ और अपनी औकात न भूलो।”

बन्ने खां, जो इस समय मोहिनी की शक्तियों के अधीन था। मेरा हुक्म पाते ही रुक गया और उसका व्यवहार अचानक बदल गया। अशर्फी बेगम ने उसे रुकते हुए देखा तो चिल्लाकर बोली- “नमक हराम! तू एक टुंडे की गीदड़ भभकी से रुक गया। आगे बढ़ और इसकी अंतड़ियाँ पेट से निकाल दे।”

मुझे इसी क्षण का इन्तजार था। अतः दिल ही दिल में मैंने मोहिनी से संपर्क स्थापित किया और उसे आवश्यक निर्देश दिए। फिर उस तमाशे का इन्तजार करने लगा जो कुछ देर बाद शुरू होने वाला था।

“ज़लील कुत्ते, क्या तूने मेरा हुक्म नहीं सुना ?” अशर्फी बेगम ने झल्लाकर कहा।

बन्ने खां ने पलटकर कहा- “खानम! तुम्हारे हुक्म पर मैं पूरे लखनऊ शहर की अंतड़ियाँ बाहर निकाल सकता हूँ लेकिन इसके लिये तुम्हें मुझे मुँह माँगा इनाम देना होगा।”

“दूँगी हरामजादे, दूँगी! तू एक लाख भी माँगेगा, तो भी दूँगी। लेकिन शर्त यह है कि तू आज इस टुंडे का सफाया कर दे।” अशर्फी बेगम गुस्से से चीखकर बोली।

“अगर तुम जान भी माँगोगी तो बन्ने खां इनकार नहीं करेगा। खानम, मैं मुद्दत से तुम्हारा आरज़ूमंद हूँ। बस, इस ढलती जवानी का शर्बत पिला दो। अपने इस गुलाम से वादा कर लो।”

“कमीने, तेरी यह मजाल!” अशर्फी बेगम आपे से बाहर हो गयी। उसने फर्श पर रखा गुलदान उठाकर बन्ने खां पर मारना चाहा लेकिन इतनी मोहलत नहीं मिली।

बन्ने खां ने ठोकर मारी और गुलदान उछलकर दूर जा पड़ा। अशर्फी बेगम ने संभलने की कोशिश की लेकिन इसका मौका नहीं मिला। बन्ने खां ने थप्पड़ों और लातों से उसका स्वागत करना शुरू कर दिया। बन्ने खां अशर्फी बेगम को फर्श पर गिराकर रगड़ रहा था और अशर्फी बेगम उसे बुरी-बुरी सुना रही थी। लेकिन बन्ने खां जैसे बहरा हो गया था, उसने एक ही झटके से अशर्फी बेगम का जम्पर बीच से चाक कर दिया और अशर्फी बेगम का सीना नंगा करके उस पर दाँत गड़ा दिए। अशर्फी बेगम की तेज चीखें आसपास के बालाखानों से गूँजने वाले संगीत में दबकर रह गयी। बन्ने खां ने जब सिर उठाया तो मुझे फुरफुरी आ गयी। वह बड़ा खूनी और दहशतनाक मंजर था। अशर्फी बेगम का सीना लहूलुहान था। बन्ने खां ने बड़ी बेदर्दी के साथ उसे जगह-जगह से काटा था।

बन्ने खां दरिंदा बन गया था। वह उसे नोंच रहा था, भंभोड़ रहा था। उसके चेहरे पर दरिंदगी का राज था। मैं तेजी से लपककर अन्दर गया। इस ख्याल से कि कहीं कोई अन्दर ना आ जाये। अन्दर के तमाम कमरे देख डाले लेकिन सारे कमरे सुनसान पड़े थे। अचानक मुझे पिछले रास्ते का ख्याल आया। मैं दौड़ता हुआ उस ओर गया तो मेरे संदेह की पुष्टि हो गयी। वह लोग बाहरी कमरे में खेला जाने वाला खूनी ड्रामा देखकर चुपके से फरार हो गए थे। बब्बन अली भी कहीं मौजूद नहीं था। जेवरात की आलमारी खुली पड़ी थी। मैंने जल्दी से पिछला दरवाजा बंद करके चिटकनी चढ़ा दी फिर बाहर आ गया।अशर्फी बेगम एकदम नग्नावस्था में फर्श पर बेदम पड़ी थी। उसके सीने से दोनों तरफ का माँस गायब हो चुका था। पेट बीच से फटा हुआ था। चेहरा लहूलुहान था। आँखों के दोनों हलकों से खून उबल रहा था। गालों पर जगह-जगह खरोंचे मौजूद थीं। बन्ने खां अशर्फी बेगम के बराबर में चित्त पड़ा था और एक खंजर दस्ते तक उसके दिल के मुकाम पर पेवस्त नजर आ रहा था। अभी मैं यह खौफनाक मंजर देख ही रहा था कि मोहिनी मेरे सिर पर आ गयी और परेशानी भरे स्वर में बोली।
“राज घर के तमाम व्यक्ति फरार हो गए हैं। बब्बन अली भी घर के कागजात, जेवरात लेकर फरार हो गया है। अब मेरा उसके सिर पर जाना जरूरी हो गया है। साजिन्दे इस वक्त करीबी पुलिस चौकी पर बयान लिखवा रहे हैं। बब्बन अली अभी दूर नहीं गया होगा। मैं उसे लेकर आती हूँ।”

“बब्बन अली को फौरन पकड़ो। वह पिछले रास्ते से फरार हो गया है।” मैंने मोहिनी से परेशानी में कहा।

“हाँ! मुझे फौरन जाना चाहिए। मैं बब्बन अली को वापस लाती हूँ । अभी सेकेंडों में आ जाऊँगी। तुम्हें इस वक्त किसी तरह निकलना है।” मोहिनी ने दुबारा परेशानी का अहसास दिलाया।

मैंने कहा- “तुम्हें देर नहीं लगनी चाहिए फौरन आना होगा।”

“हालात को समझने की कोशिश करो राज। जो खेल यहाँ शुरू हुआ था, उसकी खबर नीचे पहुँच गयी है। बब्बन अली फिर खतरनाक साबित हो सकता है। मैं जा रही हूँ। तुम यहाँ से निकलने और फरार होने की कोशिश करो।”

मोहिनी फौरन चली गयी। मैंने झिरी से झाँककर बाहर की स्थिति का जायजा लिया। यह देखकर मुझे पसीना आ गया कि बाहर एक हुजूम जमा हो रहा था। लोग दरवाजे पर जमा थे। गोया अभी-अभी पुलिस पहुँचने वाली होगी। बाहर निकलने की कोई सूरत नहीं थी। मुझे गुस्सा आने लगा कि इस वक्त मोहिनी क्यों चली गयी। लेकिन बब्बन अली का पीछा भी जरूरी था। अब मेरे लिये सारे रास्ते बंद हो चुके थे। हरचंद की अशर्फी बेगम का क़त्ल और बन्ने खां की आत्महत्या मुझे फाँसी के तख्ते से दूर रखने के लिये पर्याप्त थी लेकिन लड़कियों और साजिंदों का बयान मुझे फँसा सकता था। बब्बन अली की फरारी भी खतरनाक थी। वह अवसर उचित समझकर अपना काम कर गया था। मैं अजीब उलझन में फँसा था। मेरे इर्द-गिर्द खतरे के दायरे तंग होते जा रहे थे।

मैंने सोचा, फरारी के लिये क्यों न पिछला रास्ता आजमाया जाए। मैं पलटकर पिछले दरवाजे पर पहुँचा तो वहाँ भी नीचे लोगों के समूह की आवाजें आ रही थीं। अशर्फी बेगम का बालाखाना अब मेरे लिये चूहेदान की हैसियत रखता था। मेरे दिल की धड़कनें तेज हो गयी। मैं दोबारा उस कमरे में पहुँचा जहाँ अशर्फी बेगम और बन्ने खां की लाशें एक भयानक मंजर पेश कर रही थीं। उस समय नीचे हजारों लोगों का मजमा मौजूद था। अगर मैं मोहिनी के जरिये निकल भी जाता तो भी कानून और पुलिस की सारी मशीन हरकत में आ जाती। हालात ने बहुत तेजी के साथ संगीन रूप धारण कर लिया। मैं सोच रहा था कि अगर मोहिनी होती तो क्या करता ? क्या इतने बड़े हुजूम में दरवाजा खोलकर निकलना आसान होता। मजमे में से किस तरह मेरा शरीर निकलता ? समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ ?

अभी मैं किसी आखिरी फैसले पर पहुँचने की कोशिश कर ही रहा था कि सामने के दरवाजे पर भारी क़दमों की आहटें उभरी। फिर किसी ने जोर-जोर से दरवाजा पीटना शुरू कर दिया। मेरे दिल की धड़कने और तेज हो गईं।

“कुँवर राज ठाकुर, दरवाजा खोल दो! वरना हम दरवाजा तोड़ देंगे। पुलिस चारों तरह से तुम्हें घेर चुकी है।” बाहर से किसी की आवाज गूँजी। मैं पलटकर पिछले दरवाजे पर पहुँचा। झिरी से झाँककर देखा तो उस तरफ भी शस्त्रधारी पुलिस का हुजूम मेरी घात में था। नीचे पतली गली में इंसानों के सिर ही सिर नजर आ रहे थे।

“क्या मैं दरवाजा खोल दूँ ?” मैंने अपने आपसे सवाल किया। लेकिन फिर वे लोग मेरी क्या गत बनाएँगे। जेल और सजा का सिलसिला शुरू हो जायेगा।

तो फिर क्या करूँ ? क्या मैं खामोश रहूँ ? हाँ, मुझे खामोश रहना चाहिए! मोहिनी का इन्तजार करना चाहिए। मैं फिर बाहर वाले सामने के कमरे में आ गया। सामने वाले दरवाजे पर फिर एक गर्जना सुनाई दी।

“राज ठाकुर, मैं तुम्हें आखिरी वार्निंग दे रहा हूँ! दरवाजा खोल दो और खुद को हमारे हवाले कर दो। अगर तुमने मुकाबले की कोशिश की तो भूनकर रख दिए जाओगे। मैं तुम्हें पाँच मिनट की मोहलत देता हूँ।”

मैंने मोहिनी को याद किया, कुलवन्त को याद किया फिर जगदेव को याद किया। पुलिस की एक वार्निंग मुझे मिल गयी थी। मोहिनी अभी तक गायब थी और दरवाजे पर टक्करें पड़नी शुरू हो गयी थीं। मैं परेशान था। बहुत परेशान। मैंने मोहिनी को आवाज दी कि जहाँ भी हो फौरन आ जाओ। दरवाजा टूट रहा था। मैं दूसरे कमरे में चला गया और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया और जोर से फिर मोहिनी को आवाज दी। पुलिस दरवाजा तोड़कर अंदर आ गयी थी। बाहर एक शोर मचा था। गलियाँ तमाशबीनों से भरी थीं। दोनों दरवाजे बंद थे। और मैं किसी दैवी मदद का इन्तजार कर रहा था। इस इन्तजार में कि शायद मोहिनी आ जाये। मुझे कुछ वक्त लेना था। कुछ मोहलत चाहिए थी। इसलिए मैं दूसरे कमरे में चला आया और झल्लाकर मोहिनी को आवाजें दी। बाहरी कमरे में उभरने वाली बूटों की आवाजें मेरे दिल पर घूँसे बरसा रही थीं। किसी भी क्षण वे दूसरा दरवाजा भी तोड़कर अंदर आ सकते थे और अब सिर्फ मोहिनी ही मुझे बचा सकती थी। परन्तु मोहिनी न जाने कहाँ गायब थी ? मैंने दिल की तमाम गहराइयों से उसे आवाजें दी।

“मोहिनी! मुझे इसी वक्त तुम्हारी जरूरत है। तमाम काम छोड़कर आ जाओ। बब्बन अली को नर्क में झोंको, मेरी मदद करो।”

मगर मेरी आवाज हलक में घुटकर रह गयी। उसी समय बाहर से वही आवाज गूँजी।

“कुँवर राज ठाकुर! अब तुम्हारा बच निकलना असंभव है। कानून की नजरों से बचकर अब तुम कहीं नहीं भाग सकोगे। खैरियत चाहते हो तो दरवाजा खोल दो। वरना हम इसे भी तोड़ देंगे।”

मेरे जी में आया कि उन्हें कोई मुँहतोड़ जवाब दूँ क्योंकि मैं उनके हाथ कहाँ आने वाला था। अगर मैं खुद को अकेला समझता तो अशर्फी बेगम के कोठे पर ये खून-खराबा क्यों होता ? पर जिसके भरोसे पर था वही मुझसे दूर थी। मैंने दरवाजे की झिर्री से बाहर झाँकने की कोशिश की। बाहर अफरा-तफरी मची हुई थी। पुलिस के आदमी उन लोगों को सामने से हटाने की कोशिश कर रहे थे जो अंदर आ गए थे। मैं चारों तरफ से फँस गया था। तिलमिलाने और अपने ऊपर लानत भेजने के सिवा कोई चारा नहीं था। मुझे झुरझुरी आ गयी। मैंने झिर्री से निगाहें हटा लीं। फिर कमरे में अपने छिपने की संभावना पर गौर करने लगा। लेकिन ऐसी कोई जगह मुझे नजर नहीं आ रही थी। वह अब दरवाजा पीटने लगे थे। एकाएक शोर गूँजा। ऐसा लगा जैसे मजमे में से कोई व्यक्ति चीखता-चिल्लाता आगे बढ़ रहा हो। यह आवाज मुझे जानी-पहचानी सी लगी। मैंने एक कुर्सी दरवाजे से निकट करके ऊपर से झाँकने की कोशिश की और मुझ पर आश्चर्य का पहाड़ टूट पड़ा।

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