जब नवाब हद से बढ़ने लगा तो नौशाबा ने उसका हाथ रोकना चाहा। लेकिन बब्बन अली ने उसके सिर पर भी एक शमादान दे मारा। नौशाबा वहीं लहरा गयी। फिर बब्बन अली मेरी तरफ बढ़ा और मैंने उस लंबे तड़ंगे आदमी को हाथ बढ़ाकर रोक लिया। “बब्बन अली! मैं तो तुम्हें यह बताने आया था कि मैं यहाँ से जा रहा हूँ। पहले मेरा इरादा तुम्हारे क़दमों से यह ज़मीन पाक करने का था। लेकिन फिर सोचा तुम्हें अपने गुनाहों की सजा यहीं भुगतनी चाहिए। अपनी बहन रुखसाना और शबाना को मेरे हवाले कर दो। फिलहाल मुझे खाली हाथ न लौटाना। नवाब के घर में आकर कोई खाली हाथ वापिस नहीं जाता।”
“कुँवर राज ठाकुर।” बब्बन अली ने दाँत पीसकर कहा और बढ़कर अपनी बंदूक उठा ली। उसने तेजी से निशाना बाँधना चाहा, लेकिन स्पष्ट है कि मोहिनी की उपस्थिति में वह कुँवर राज ठाकुर पर यह वार किस तरह कर सकता था।
मोहिनी मेरे सिर से छलावे की तरह गायब हो गयी और मैंने आगे बढ़कर बब्बन अली के हाथ से बंदूक छीन ली। बब्बन अली आश्चर्य से मेरा यह करिश्मा देख रहा था। फिर मैंने एक भरपूर चोट बंदूक के कुंदे से बब्बन अली के सिर पर मारी और यह कहता हुआ बाहर निकला-
“बब्बन अली! मैं तुम्हारी बहनों के पास जा रहा हूँ और एक दिन तुम उन्हें कोठे पर देखोगे। यही तुम्हारी सजा है।”
उसके सिर से खून बहने लगा था और वह लड़खड़ाकर गिर पड़ा था। मगर मुझे विश्वास था कि वह सख्तजान इतनी आसानी से नहीं मर सकता। उसे बेहोश छोड़कर मैं उसके शयनागार से बाहर आ गया था।
“अपना इरादा बदल दो।” मोहिनी ने ऊँची आवाज में कहा। “मैं समझती हूँ इसमें तुम्हारे लिये कुछ खतरे मौजूद हैं। यूँ भी वे बेचारी निर्दोष हैं।”
“आश्चर्य है, यह बातें तुम कह रही हो। हालाँकि तुम्हीं ने मुझे दुश्मनों से निपटने के लिये उकसाया था। क्या बब्बन अली को इससे बड़ी कोई सजा मिल सकती है ?”
“वह तो ठीक है राज। परन्तु मुझे इस काम में अच्छे आसार नजर नहीं आते। अगर हम उन्हें क्षमा कर देते हैं तो भी बब्बन अली से इन्तकाम लेने के लिये सैकड़ों उपाय हैं।”
“मगर मैं उन्हें देखना चाहता हूँ कि वह कैसी हैं ?”
“तुम उन्हें देख सकते हो। वह ऊपर की मंजिल पर रहती हैं। लेकिन बब्बन अली को इससे भयानक सजा मिल सकती है। अभी तो शुरुआत हुई है।
“ठीक है! आओ, ऊपर की मंजिल पर चलते हैं। यह अवसर फिर नहीं आएगा। तुम उनमें से एक लड़की के सिर पर चली जाना। हम उसे आसानी से यहाँ से ले जाएँगे।”
“मगर राज..!” मोहिनी ने झिझकते हुए कहा।
“मगर क्या मोहिनी ? मुझे वहाँ ले चलो। मैं उन हसीनाओं को देखना चाहता हूँ।” यह कहकर मैं ऊपरी मंजिल की तरफ जाने लगा। मोहिनी के इनकार पर मेरा जुनून और बढ़ गया था।
अभी मैं चंद सीढ़ियाँ चढ़ा ही था कि मोहिनी के पंजों की चुभन मुझे अपने सिर पर महसूस हुई। वह मुझे रोक रही थी।
“ठहर जाओ राज! आगे रास्ता बंद है।”
“रास्ता कहाँ बंद है मोहिनी ? सामने नजर आ रहा है। क्या तुम्हें कुछ नजर नहीं आ आता ?” मैंने लापरवाही से कहा और एक-दो सीढ़ियाँ और चढ़ गया।
“रुक जाइए।” एक भारी भरकम पुरुष स्वर मुझे सुनाई दिया।
मैंने चौंककर इधर-उधर देखा। वहाँ कोई नहीं था।
“कौन है यह मोहिनी ? यह आवाज किसकी है ?” मैंने ठिठक कर मोहिनी से पूछा।
“चलो राज, वापस चलते हैं।” मोहिनी ने मुझे पुचकारते हुए कहा।
“मगर क्यों ? तुम मुझे कुछ बताती क्यों नहीं ?”
“रास्ता बंद है। रास्ता खुल भी सकता है मगर तुम्हारे लिये उचित न होगा।” मोहिनी ने पहलू बदलकर कहा।
“तुम कैसी पहेलियों में बातें कर रही हो ?” मैंने नाराजगी से कहा।
फिर अचानक ऊपर की सीढ़ियों पर मुझे एक साया नजर आया। एक पुरुष का साया जो एक पल में एक सुंदर जवान पुरुष के रूप में प्रकट हो गया। उसके अंदाज में राजसी तेज था और वह कोई पुरातन काल के वस्त्र पहने हुए था। उसका चेहरा इतना तेजस्वी और खूबसूरत था कि उसे देखकर किसी शहजादे का हुलिया लिखा होता है। उसे देखकर मैं जड़ सा हो गया लेकिन दूसरे ही क्षण मेरे अंदर का जिद्दी आदमी जाग उठा। मैंने ऊपर की एक और सीढ़ी फलांग ली।
“रुक जाइए!” उसने बड़े अदब के साथ कहा।
“मैं ऊपर जाना चाहता हूँ, मेरे रास्ते से हट जाइए।” मैंने कठोरता से कहा।
“हम यहाँ की निगरानी करते हैं। आप मेरी मौजूदगी में अंदर नहीं जा सकते।” उसने कहा।
“आप मुझसे वाकिफ नहीं हैं। मैं एक जलील नवाब को उसके गुनाहों की सजा देने आया हूँ। नीचे बब्बन अली बेहोश पड़ा है, उसका अंजाम देख लीजिये और मेरे रास्ते से हट जाइए।”
“बब्बन अली से आप जो चाहें इन्तकाम ले सकते हैं। मगर उसकी बहनें बेक़सूर हैं और फिर हम उनकी हिफाजत के लिये एक अरसे से यहाँ रहते हैं।”
“आप कौन हैं ?” मैंने उससे प्रभावित होकर पूछा।
“रुखसाना और शबाना पर हमारा साया मौजूद है। हम आपके किसी मामले में दखलअन्दाजी पसंद नहीं करते। लेकिन यहाँ हम आपके रास्ते में आरज होंगे। बेहतर है आप चले जाइए।”
“वरना फिर आप क्या करेंगे ?”
“हमें मालूम है कि आप भी तन्हा नहीं हैं। मगर हम रुकावट बनेंगे। मुमकिन है आपको इससे नुकसान पहुँचे। मुमकिन है हमें अपने फितनों को बुलाना पड़े।” उसने बेझिझक होकर कहा।
“यह कौन है ?” मैंने मोहिनी से पूछा तो वह कुछ पल खामोश रहकर बोली।“राज! यहाँ से चले जाओ। बब्बन अली की हवेली एक पुरानी हवेली है। जनानखाने के उस हिस्से में जहाँ रुखसाना और शबाना रहती हैं, वहाँ इस मुसलमान जिन्न का स्थान है। तुम इसकी मौजूदगी में वहाँ नहीं जा सकते।”
“जिन्न ?” मैंने आश्चर्य से कहा। “क्या वास्तव में यह नौजवान कोई जिन्न है। मगर तुम किस मर्ज की दवा हो। क्या तुम इसे काबू में नहीं कर सकतीं ?”
“तुम्हें चाहिए कि मुझे ऐसे हालात में न डालो। जहाँ खुद मुझे परीक्षा देनी पड़े। दैवी ताकतें आपस में इस तरह के टकराव से बचती हैं। फिर हो सकता है कि इस जिन्न का यहाँ पूरा पड़ाव मौजूद हो। हमें कुछ और करना पड़ेगा। कोई और तरकीब सोचनी पड़ेगी। यह जिन्न पूरे तौर पर अपने क़दमों पर जमा हुआ है। मुझे कुछ सोचने का अवसर दो।”
“आप जानते हैं बब्बन अली कितना जलील इंसान है ?” मैंने उस नौजवान को संबोधित किया जो मुस्कराकर मुझे देख रहा था।
“हमें इससे कोई मतलब नहीं है। हम सिर्फ इतना जानते हैं कि रुखसाना और शबाना बिल्कुल मासूम हैं।”
“क्या आप यह समझ रहे हैं कि मैं साधारण लोगों से भिन्न हूँ।”
“हमें मालूम है इसीलिए हम आपसे दरख्वास्त कर रहे हैं।”
“मगर मैं आपसे एक बात कहूँगा। इस वक्त तो मैं चलता हूँ लेकिन मैं उसे छोड़ूँगा नहीं। उसकी बहनों को भी नहीं छोड़ूँगा।”
“जब तक हम हवेली में हैं बराबर आपके रास्ते में आने के लिये तैयार होंगे।”
“बेहतर है आप रास्ते से हट जाएँ। जो कुछ आप देख रहे हैं, मेरे पास इससे भी अधिक है।”
“बाखुदा, जो कुछ आप देख रहे हैं वह भी कम है। हम आपको सही मशवरा दे रहे हैं।”
“लेकिन यह एक चैलेंज है। यह एक धमकी है। मुझे धमकियाँ पसंद नहीं हैं। मैं दोबारा आऊँगा।”
उसी समय मोहिनी ने मुझे बताया कि बब्बन अली को होश आ गया है और हवेली के लोग जमा होने शुरू हो गए हैं।
“हम आपके इस्तकबाल के लिये मौजूद होंगे।” यह कहकर वह वहाँ से गायब हो गया।
मैंने फिर ऊपर चढ़ना चाहा परन्तु मोहिनी ने बड़ी सख्ती से रोक दिया। बहुत बेबसी की हालत में मुझे नीचे आना पड़ा। यहाँ शोर हो रहा था। शयनागार से बचता बचाता मोहिनी पर ताव खाता हवेली से बाहर आ गया। रास्ते में मोहिनी खामोश रही। मैंने भी उससे बात करना उचित न समझा।
रात खासी गुजर गयी थी।
नवाब बब्बन अली से हार खाना मैं स्वीकार नहीं कर सकता था। घर आकर मैंने इस सिलसिले में नये सिरे से गौर करना शुरू किया। और फिर मुझे अशर्फी बेगम का ख्याल आया जो नवाब साहब के गुनाहों की साझीदार थी। अशर्फी बेगम एक कोठा चलाने वाली जालिम औरत थी जिसके यहाँ अमीरों के लिये अय्याशी का सामान जुटाया जाता था। मोहिनी ने मेरे विचारों की तह तक पहुँचते हुए कहा।
“मैं आज बहुत तरोताजा हूँ राज!”
“तुम्हें खून की ज़रूरत तो महसूस होती होगी ?”
“हाँ, कल मेहता का खून मेरे कंठ में उतर गया था!”
“ओह, तो यह वजह है तुम्हारी ताजगी की ?”
“मगर मेरे लिये तुम्हें कोई इंतज़ाम करना पड़ेगा राज।” मोहिनी इठलाकर बोली।
“जब तक दुनिया में बुरे लोगों की बहुतायत है, उस समय तक तुम्हारी गिजा की भी बहुतायत है। बब्बन अली के संबंध में क्या ख्याल है ?”
“वह।” मोहिनी ने मजे लेकर कहा। “लेकिन उसमें अभी बहुत देर है।”
“मुझे उसकी वह पुरानी हवेली पसंद आ गयी मोहिनी और बब्बन को वह हवेली खाली करनी पड़ेगी।”
“ऐसा ही होगा राज!”मैं अशर्फी बेगम के बाला खाने की तरफ बढ़ रहा था। लोगों की भीड़ से गुजरता हुआ मैं अशर्फी बेगम के बाला खाने तक पहुँच गया। ऊपर से किसी के गाने की आवाज आ रही थी। मैंने सीढ़ियों की तरफ कदम बढ़ा दिए। ऊपर पहुँचा तो महफ़िल गर्म थी। अशर्फी बेगम साजिन्दों के करीब बड़े ठसके से बैठी थी और उस नई बिजली को देख रही थी जिसके गले में सोज था। निःसंदेह वह एक खूबसूरत लड़की थी। कमरे में आठ-दस अमीरजादे गावतकियों से लगे बैठे थे और सुन्दरी को वासना भरी नजरों से देख रहे थे। मैं चूंकि दरवाजे की ओट में था इसलिए अशर्फी बेगम और साजिन्दों की नज़रें मुझ पर नहीं पड़ीं। चंद एक तमाशबीनों ने देखा, परन्तु वह सुन्दरी के लबरेज हुस्न की चांदनी में इतने गुम थे कि मुझ पर उचटती नज़र डालकर फिर उधर ही आकर्षित हो गए।
मोहिनी ने मुझे इस नई सुन्दरी के बारे में बताना शुरू किया ।
“राज! अशर्फी बेगम ने अपनी दुकान सजाने के लिये बड़े अनमोल मोती का चयन किया है। यही दिलनशीं है। तीन-चार दिन पहले इस कूचे में जयपुर से आयी है। कश्मीरी है। जयपुर में नृत्य और संगीत की शिक्षा प्राप्त कर रही थी। अशर्फी बेगम ने एक मोटी रकम देकर खरीदा है। यह सौदा फिर भी सस्ता था। अब इसका नीलाम होगा और लखनऊ के अमीरों में खलबली मच जाएगी। लखनऊ के अमीरों में अभी दिलनशीं के चर्चे नहीं पहुँचे हैं। अशर्फी बेगम ने इसके हुस्न के चर्चे आम करने के लिये चन्द दलाल छोड़ रखे है। लेकिन यह काम अब मेरे और तुम्हारे जिम्मे होगा। हम इसकी कीमत बढ़ायेंगे। यहाँ अगले चन्द दिनों में तिल धरने की जगह नहीं होगी। लाखों रुपये अशर्फी बेगम इसकी नथ के वसूल कर सकती है।”
मैंने दिलनशीं को गौर से देखा। उसमें लोगों को दीवाना बनाने की तमाम अदायें मौजूद थी। दिलनशीं तो कोई कयामत थी। मैं दरवाजे की ओट से निकलकर सामने आया। फिर अंदर जाकर बेधड़क एक गावतकिए से टिक गया। अशर्फी बेगम की दृष्टि मुझ पर पड़ी तो उसकी हालत पतली हो गयी। गुस्से से उसका चेहरा लाल हो गया। साजिन्दों ने मुझे देखा तो उनके चेहरों के रंग फीके पड़ गए। मैंने जेबों को खोलना शुरू कर दिया। रुपये न्यौछावर कर दिए। जब मैंने पहला नोट निकाला तो महफिल के अदब के अनुसार दिलनशीं उठकर मेरे पास आ गयी और मेरे सामने बैठकर मिसरा दोहराने लगी। मैंने नोट उसके कदमों पर न्यौछावर कर दिया। फिर दूसरा नोट उठाकर उसकी तरफ बढ़ाया। दिलनशीं ने दिल नवाज मुस्कराहट के साथ मेरा शुक्रिया अदा किया। उसकी यह अदा दिल को बहुत भाई।
नोट थामकर वह जाने के इरादे से उठी तो मैंने दूसरा नोट निकाल लिया। फिर सिलसिला जारी रखा ताकि दिलनशीं मेरे सामने बैठी रहे और किसी के सामने न जा सके। अशर्फी बेगम काँटों पर लोट रही थी। मैं दिलनशीं से फरमाइश करता रहा और रुपये निकालता रहा। महफिल में मौजूद लोगों के चेहरे लटके हुए थे। उन्होंने यह रंग देखा तो बुरा मानकर उठने लगे। मैं एक घंटे में हजारों रुपये लुटा चुका था और अब वहाँ मेरे सिवाय कोई तमाशबीन नहीं रह गया था।
मैं अशर्फी बेगम को कनखियों से देख रहा था। वह उस समय टक-टक दीम दम न कशीदम का मुहावरा बनी हुई थी। लेकिन कब तक ? जब दिलनशीं ने गजल खत्म की और दूसरी गजल शुरू करने से पहले मेरी आँखों में आँख डालकर गुनगुनाना शुरू किया तो अशर्फी बेगम चुप न रह सकी।
जहाँ बैठी थी वहीं से बोली– “बस करो, दिलनशीं! तुम्हारी तबीयत पहले ही नासाज है। अब ख्वाबगाह में जाकर आराम करो। खुर्शीद तुम्हारी कमी पूरी करने की कोशिश करेगी। दिलनशीं ने आश्चर्य से अशर्फी बेगम की ओर देखा। आँखों ही आँखों में इशारे हुए। फिर वह बड़े अदब से अपना हिनाई हाथ माथे तक ले जाकर मुझे ‘तस्लीम’ कहती हुई उठने लगी।
मैंने उसका हाथ थाम लिया।
“अगर आपके मिजाज नासाज हैं तो मैं नगमासराई की जहमत नहीं दूँगा। आपसे गुफ्तगू भी तो सुरों से कम नहीं। आप तो खुद एक गजल हैं।”
“आपकी जर्रानवाजी है। कनीज हुक्म की तामील करेगी।” दिलनशीं तीखे अन्दाज में कह कर फिर मेरे करीब होकर बैठ गयी।
अशर्फी बेगम हाथ मल रही थी। साजिन्दे खामोश बैठे भयभीत नजरों से मुझे घूर रहे थे। उनके लिये मैं नया नहीं था। मेरे खेल तरन्नुम के मामले में उन्होंने देखे थे। मैंने उन सबको नज़रअन्दाज कर दिया और दिलनशीं का हाथ थाम कर बोला-
“आप शायद इस कूचा ए इशरत में नई आयी हैं ?”
“जी हाँ, कनीज का यह तीसरा दिन है!” दिलनशीं ने शरमाते हुए कहा।
“जहे नसीब! हम भी उन खुशनसीबों में शामिल हो गये जिन्होंने आगाज शबाब में आपका दीदार कर लिया।”
दिलनशीं का चेहरा शर्म से गुलनार हो गया।
मैंने कहा- “यकीन कीजिए जो अर्ज किया गया है, वह दिल की आवाज है।”
दिलनशीं ने एक नज़र मुझे फिर देखा, फिर लजाकर बोली- “कदर अफजाई का शुक्रिया।”
अशर्फी बेगम जो अब तक दूर ही बैठी थी तेजी से अपना भारी गरारा संभालती हुई मेरे करीब आ गयी और दिलनशीं से बोली- “दिलनशीं जानेमन! तुम्हें आराम की जरूरत है, ख्वाबगाह तुम्हारी मुंतजर है।”
दिलनशीं ने सहम कर अशर्फी बेगम के चेहरे पर निगाह डाली। फिर कनखियों से मेरी तरफ देखकर माफी माँगी। तस्लीम करती हुई उठी और अन्दर चली गयी। अशर्फी बेगम खड़ी-खड़ी ताव खा रही थी। मैंने मुस्काते हुए कहा- “तशरीफ रखिए, अशर्फी बेगम! आपका पुराना नियाजगद बारगाह हुस्न में हाजिर है। क्या आपने मुझे पहचाना नहीं ?”
“कुँवर साहब।” अशर्फी बेगम शब्द चबाकर बोली। “मैं एक बार पहले भी आपसे अर्ज कर चुकी हूँ कि खुदा के लिये मुझसे कोई वास्ता न रखिए। अजराह करम, आप यहाँ आने से गुरेज किया करें। मेरा कारोबार यही है। आप क्यों हम लोगों को परेशान करने आ जाते हैं ?”
“बहुत खूब!” मैंने अशर्फी बेगम की झल्लाहट का आनंद उठाते हुए कहा। “गोया आपको अब मेरा यहाँ आना भी गँवारा नहीं है। मैं यहाँ आता हूँ तो खाली हाथ नहीं आता। यह दरवाजा तो सबके लिये खुला होता है। वैसे अर्ज करूँ कि मैं पहले भी आपको परेशान करने नहीं आया था। मेरे ख्याल से आपको अपने मेहमानों के साथ ऐसा सलूक नहीं करना चाहिए कि वह गुस्ताखी पर उतर आएँ।”
“देखिये कुँवर साहब! अब बहुत हो चुका। तरन्नुम का अब तक पता नहीं है। कैदखाना, गोलियाँ, क़त्ल हम इन झगड़ों में नहीं। आप जब भी आते है तो कोई न कोई कयामत आती है। खुदा के लिये हमें माफ कीजिए।”
“अर… र… रे! आप तो बहुत खौफजदा हैं। मैं तो हुस्न का पुजारी हूँ। सुना था आपके यहाँ एक नायाब चीज मौजूद है। सौदा करने चला आया।”
“अगर आपका इरादा दिलनशीं की तरफ है तो मैं माजरत चाहूँगी। तरन्नुम के बाद लखनऊ के उमरा के लिये बड़ी मुश्किल से यह लड़की तलाश की है।”
“सच, आप हुस्न की जौहरी हैं! आपके कयामत का मैं दिल से कायल हूँ। सारा शहर आपकी मुठ्ठी में है। बहरहाल मैं दिलनशीं की तारीफ सुनकर चला आया था। इस कली की सुपुर्दगी के लिये आपने क्या नजराना तय किया है ?”
“नजराना आदमी देखकर तय किया जाता है।”
“आप फिर मेरी तौहीन कर रही है।” मैंने व्यंग्य किया।
“नहीं, ऐसी बात नहीं है!” अशर्फी बेगम संभलकर बोली। “कुँवर साहब! आप इसकी नीलामी में बोली लगा सकते हैं। लेकिन मेरा ख्याल है आपको मायूसी होगी। आपसे डर लगता है।” अशर्फी बेगम ने अचानक कहा।
“मैं इतना बदसूरत तो नहीं हूँ।”
“आप कोई जिन्न, देव हैं कुँवर साहब। आपके बारे में बहुत कुछ सुना है। आपने पूरे शहर में हंगामा खड़ा कर दिया। मेहता ने हैरतअंगेज तौर पर खुदकुशी कर ली। तरन्नुम पुर असरार तरीके से गायब हो गयी। यह सब काम आदमी के बस का नहीं है।” अशर्फी बेगम का स्वर भयपूर्ण था।
“मैं एक सीधा-सादा आदमी हूँ लेकिन हुस्न का पुजारी हूँ। आपने शुरू से ही मुझे गलत समझा और तकलीफ उठायी। लेकिन मैं पुरानी बातें याद दिलाने नहीं आया हूँ। अब आप मुझे हुक्म दीजिए, कितना नजराना पेश किया जाए ?”
“कुँवर साहब! मैं फिलहाल इसका सौदा करने के लिये तैयार नहीं हूँ। मुझे इसकी कीमत का अन्दाजा नहीं है।”“वह भी कर लीजिए और मेरी भी सुन लीजिए! मैं एक लाख रुपये अदा करने के लिये तैयार हूँ।”
अशर्फी बेगम ने हैरत से मुझे देखा लेकिन फिर तुरन्त ही संभल गयी।
“एक लाख रुपए ? कुँवर साहब, आपको हीरे की पहचान है फिर भी ऐसी बाते कर रहे हैं। यह नगीना जब नवाब अवध के आगोश में जगमगाएगा, तब आपको इसकी सही कीमत का अन्दाजा होगा।”
“मैं रकम बढ़ा सकता हूँ। सौदेबाजी मुझे अच्छी नहीं लगती, दो लाख रुपये।”
“मुझे सोचने का मौका दीजिए।”
“मैं यहाँ आता रहूँगा। आप सोच लीजिए और कोई अच्छी सी गजल सुनवा दीजिए। आप खुद भी तो अच्छा गाती होंगी ? अब भी आपके तेवरों में अनगिनत हसीनाओं का तीखापन है, काट है।” मैंने तफरीह के मूड में आकर कहा।
“कुँवर साहब! मैं अब कहाँ रही ? तरन्नुम के जाने के बाद तो मेरी कमर टूट गयी। आप मेरा मजाक न उड़ाएँ।”
“तौबा कीजिए लेकिन आप मुझे अच्छी लगती हैं।
“खुदा करे ऐसा ही रहे।”
अशर्फी बेगम फौरन उठकर चली गयी। दुबले-पतले नयन नक्श की एक लड़की खुर्शीद वहाँ आयी और उसने गाना शुरू कर दिया। मैं कुछ देर वहाँ रहा और अपने पहले दिन का काम निपटाकर चला गया।
दूसरे दिन सुबह मैं दलालों के उस होटल में गया जहाँ अधिकतर उनकी भीड़ रहती थी। मैंने उनके कानों में यह बात डाल दी कि मैं दिलनशीं की कीमत दो लाख लगाता हूँ। मुझे मालूम था कि रात तक यह खबर तमाम उमरां तक पहुँच जाएगी और फिर रात को अशर्फी बेगम के यहाँ बहुत हुजूम होगा और यही हुआ। दूसरी रात जब मैं वहाँ पहुँचा तो शहर के उमरां वहाँ अधिसंख्यक थे। अशर्फी बेगम ख़ुशी से फूली न समाती थी। मैंने उस दिन भी खूब रुपये लुटाए लेकिन सावधानी के साथ।
रात गए तक शहर के उमरां अशर्फी बेगम से दिलनशीं के बारे में बातें करते रहे। मोहिनी फुदक-फुदक कर उनके सिरों पर जाती रही, टोह लेती रही और उनका उत्साह बढ़ाती रही। मुम्बई के एक मनचले सेठ दाऊ भाई ने उसी दिन तीन लाख रुपये दिलनशीं के लिये तय कर लिये लेकिन वह मुस्कराकर टाल गयी। उसने मेरी तरह उससे भी कुछ सोचने का वक्त माँगा। मुझे मालूम था कि नवाबेन एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिये और शहर के उमरां पर अपना सिक्का बिठाने के लिये किस कदर बढ़-चढ़कर बोलियाँ लगाएँगे और वह कमबख्त बब्बन अली।
बस, अब तमाशा शुरू होना था। एक कश्मीरी लड़की शहर के तमाम उमरां और मैं। दौलत की यहाँ कोई अहमियत नहीं थी। जिन लोगों के पास बैठे-बिठाए बेहिसाब दौलत आती है उन्हें भला दौलत की क्या परवाह। और रंडी के कोठे पर आने वाला हर शख्स अपनी नाक ऊँची देखना पसंद करता है। दिलनशीं को मैं नाक का सवाल बनाना चाहता था लेकिन बब्बन अली अभी इस खेल में शामिल नहीं हुआ था। वह तो जैसे आँखों पर पट्टी बाँधे सो रहा था। परन्तु यह कैसे संभव था कि उसके गुर्गे अशर्फी बेगम के यहाँ लगने वाली बोलियों की खबर न पहुँचाते हों और वह फिरदोशों का बेताज बादशाह इस कश्मीरी लड़की के गुदाज जिस्म से महरूम हो जाए। यह किस तरह मुमकिन था।
मुझे इसी का इन्तजार था। रोज रात मैं अशर्फी बेगम के कोठे पर जाता। वहाँ दिलनशीं का नशीला नाच-गाना होता। इस बारे में बेशुमार बातों का बयान करना जरा मुश्किल है कि वहाँ क्या-क्या होता है। हालाँकि जी यही चाहता है कि हर उस रात की चर्चा आम की जाए जो मैंने अशर्फी बेगम के बाला खाने पर गुजारी थी। फिर भी कुछ बातें तो सुनानी ही होगी।