Fantasy मोहिनी

मैंने एक ऐसी बात कह दी थी कि कुलवन्त अपने तमाम जोग तपस्या और त्याग के बावजूद हँस पड़ी।

“कभी-कभी अच्छी चीज़ें देखने और अच्छी औरतों से मिलने को जी चाहता है।”

“अब इन शरारतों से बाज आ जाओ।” कुलवन्त ने मुझे प्यार से घूरते हुए कहा। “माला रानी जैसी सुंदर पत्नी के होते दूसरी औरतों के बारे में नहीं सोचना चाहिए।”

“यह तुम कह रही हो। क्या तुम्हें याद नहीं कि तुमने डॉली के होते हुए भी मेरी दासी बनने की इच्छा प्रकट की थी।”

मैंने कुलवन्त को और निकट लाने के लिये पिछली बातों को उखाड़ना शुरू कर दिया। कुलवन्त के परी पैकेट को देखकर मेरे हवास जवाब देने लगे थे।

“उस समय मुझे इतनी सूझ-बूझ कहाँ थी।” कुलवन्त ने शर्माकर कहा।

शर्म की सुर्खी ने उसका चेहरा अंगार कर दिया था। मेरी महबूबा कुलवन्त मेरे साथ रहती थी और मैं उसके क़रीब दूसरे कमरे में सोता था। मुझे वह दिन याद आ जाते जब कुलवन्त मेरे साथ रहा करती थी। यहाँ आकर शुरू-शुरू में तो मैं इस कुटिया और यहाँ के वातावरण से सहमा-सहमा सा रहा। किंतु जब कुलवन्त से बहुत सी बातें हुई और उसने मेरी आवो-भगत में कोई कसर उठा न रखी तो मेरी झिझक खत्म हो गयी। उस अरसे से मेरे बाज़ू अनेक बार कुलवन्त को अपने बंधन में लेने के लिये तरसे और उस समय जब बात शर्म-ओ-हया की लाली तक जा पहुँची तो फिर मैं उठा और बिना किसी बात की परवाह किए कुलवन्त को बढ़कर सीने से लगा लिया।

“यह पाप है राज।” वह कसमसाने लगी। “दूर हटो!”

“नहीं कुलवन्त, यह पाप नहीं है! प्रेम है। पाप नहीं है। पाप और प्रेम में सदियों का फासला होता है।”

मैंने उसके कसमसाने और तड़पने के बावजूद उसके लबरेज होंठों पर अपने होंठों की मुहर लगा दी। कुलवन्त किसी जख्मी हिरनी की तरह तड़पी। तड़पती रही; और मैं अपने अनाधिकार शब्दों, सदियों से ईजाद प्रेम भरे संवादों, फुसफुसाहटों और शर्म की दीवारों को तोड़ती, झनझनाती हरकतों से अपने प्रेम को प्रकट करता रहा। कुलवन्त तड़पटी रही। उसमे जोग भरा था। परंतु वह जोगन थी। उसके अंदर सबसे पहले एक औरत थी। रेशम से बनी, फूलों से लदी। लचकती डाली सी औरत। गोश्त-पोश्त की औरत। मैंने उसके अंदर छिपी उसी औरत को आवाज़ दी। उसके सीने में छिपी दिल को मोहब्बत की दस्तक से ठकठका दिया तो उसके जज्बात में हलचल मच गयी। भीतर छिपी औरत में हलचल हुई और अपने महबूब के लम्स की गरमी में पिघलने लगी। वह मना करती रही, पर मैंने उसे बोलने का अवसर ही कब दिया।

मैंने उसके होंठों पर पहरे बिठा दिए थे। मैंने उसके मचलते बाजुओं को अपने मज़बूत बाजुओं से शिकस्त दे दी थी और जब वह पूरी तरह से मेरे सीने से लग गयी और मुझे उसका साँस उखाड़ता हुआ मालूम हुआ तो मैंने नरमी से उसके बालों पर हाथ फेरे। कुलवन्त फिर मेरे सीने से नहीं हटी। शायद उसे अंदाज़ा हो गया था कि मैं क्या चाहता हूँ। उसके भीतर की औरत बाहर आ गयी थी जिसने मर्द के मर्दानगी के सामने हथियार डाल दिए थे। उसके लबों की चाशनी मेरे जिस्म में घुली तो मुझे अपने पैरों पर खड़ा होना दुभर हो गया। कुलवन्त के भीतर जो ज्वालामुखी दफ़न था वह मेरी हरारत पाकर फटने के लिये बेचैन था। उसने बेखुदी के आलम में मेरे बाल पकड़ लिये। अब उसने मेरे अंदर के असली मर्द को आवाज़ दी तो मैंने उसे बुरी तरह अपने आगोश में लेकर शोलों को हवा दे दी। फिर न जाने क्या हुआ। वह अचानक तड़प कर बिजली की तरह मेरे सीने से हट गयी। उसकी आँखें शोले उगलने लगीं। वह अपना निचला होंठ बेचैनी से चबाने लगी। उसके चेहरे पर ग़म और ग़ुस्से के आसार थे। मैं एक क्षण के लिये सहम गया। उसके अंदाज़ में ऐसी दहशत थी कि मुझे यूँ लगा जैसे कुलवन्त मेरी हरकतों से सख्त नाराज़ हो गयी है। मुझे अपनी ग़लती का अहसास हो गया।
और मैंने दबी-दबी आवाज़ में कहा–
“कुलवन्त, तुम्हें देखकर खुद पर क़ाबू नहीं रहा। मैं अतीत में गुम हो गया।”

कुलवन्त ने मेरी बात का कोई उत्तर नहीं दिया। उसकी आँखों के गोले फटने लगे थे। वह निढाल सी होकर गिर पड़ी और उसने अपना सिर पकड़ लिया।

“मैं वादा करता हूँ कुलवन्त, भविष्य में ऐसी ग़लती नहीं होगी।”

“राज, अब इन बातों का क्या लाभ!” कुलवन्त ने रुँधी हुई आवाज़ में उत्तर दिया। फिर हाथों में अपना चेहरा छिपाकर सिसकने लगी।

“कुलवन्त! कुलवन्त!” मैंने तड़प कर कहा। “तुम्हें देवी-देवताओं का वास्ता। मुझे माफ़ कर दो। मेरी नीयत बुरी नहीं थी। अपने आँसू पोंछ डालो। यह मेरे दिल में नश्तर की तरह चुभ रहे हैं।”

मेरी विनती के उत्तर में कुलवन्त की सिसकियाँ और तेज हो गयी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक उस पर यह किस क़िस्म का दौरा पड़ गया है। आख़िर बात क्या है ? मैंने बुझी हुई आवाज़ में कहा-
“कुलवन्त आँसू रोक लो। मैंने तुम्हारा पवित्र शरीर छूकर भूल की है। तुम जो चाहो सजा दे लो लेकिन मुझसे रूठो नहीं। मुझे माफ़ कर दो। तुम्हें माला रानी की सौगंध।”

मेरा यह वाक्य असर कर गया। कुलवन्त ने माला का नाम सुनकर शीघ्रता से आँसू पोंछ डाले लेकिन उसके चेहरे पर कोई परिवर्तन नहीं आया। चेहरा अब भी गजबनाक बना हुआ था। चंद क्षणों तक वह स्वयं में उलझी रही और मुझे घूरती रही। अभी मैं उससे कुछ कहने का इरादा कर ही रहा था कि उसने अपने होंठ काटते हुए कहा।
“हरि आनन्द की बर्बादी का समय आ गया है राज! मैं तुम्हें बताऊँगी उसका अंजाम कितना भयानक होगा। मैं उसे ऐसा श्राप दूँगी कि उसकी आत्मा प्रलय के दिन तक व्याकुल रहेगी।”

कुलवन्त के मुँह से उस समय हरि आनन्द का नाम सुनकर मेरा माथा ठनका। कोई आंतरिक भय मेरे दिल को कचोटने लगा।

मैंने कुलवन्त से पूछा। “तुम्हें इस समय वह मनहूस पंडित कैसे याद आ गया ?”

“राज, सिर्फ़ चंद क्षणों की चूक हो गयी। मुझे जीवन भर इसका दुख रहेगा। मुझ जोगिन की पवित्र आत्मा को अपवित्र करने की अच्छी सजा मिली।” कुलवन्त ने कहर भरे स्वर में कहा। “वह हमारी भूल से लाभ उठा गया। हमने अवसर दे दिया कि वह अपना वार कर सके। तुम्हारी बाँहों में सिमटकर मैं अतीत में चली गयी थी। बस, उस एक पल की बात थी। वह पापी उसी पल वार कर गया। उसके गंदे वीर माला रानी के ताक में बैठे थे। मेरी दृष्टि ओझल हुई तो उन्होंने अपना काम कर दिया।”

“क्या… ? नहीं कुलवन्त!”

मैं चीख पड़ा। कुलवन्त के अंतिम वाक्य का अर्थ समझकर मुझे ऐसा लगा जैसे ज़मीन मेरे पैरों तले से निकल गयी हो। मेरा सारा अस्तित्व काँपने लगा। मस्तिष्क में भूचाल सा आ गया। आँखों के सामने अंधेरे लपक उठे। मैंने कुलवन्त को एक हाथ से झिझोड़ते हुए कहा।
“तुम क्या कह रही हो कुलवन्त ? क्या उस मनहूस ने माला को मुझसे छीन लिया ?”

“हाँ राज!”

“माला।!” मैंने एक आकाशभेदी चीख मारी और पागलों की तरह उठकर बाहर की तरफ़ भागा।

मुझे कुछ होश नहीं था कि मैं किस दिशा में जा रहा हूँ। उस असहनीय समाचार ने मेरे दिमाग़ को जकड़ कर रख दिया था। मैं अपने आपे में नहीं था। मेरी दुनिया लुट चुकी थी। मैं पागलों की तरह भागता हुआ नीचे उतर रहा था कि अचानक मुझे ठोकर लगी और मैं पत्थरों पर उलट गया। न जाने वह किसी चोट का असर था या मेरे सब्र ही जवाब दे गए थे कि मेरी चेतना लुप्त हो गयी थी।

जब मुझे होश आया तो मैं अपने घर पर था। मैं अपने घरवालों से घिरा हुआ था। होश में आते ही मैंने माला का नाम लेकर चीखना शुरू किया। फिर मुझ पर दौरा सा पड़ गया और मैं फिर बेहोश हो गया। एक हफ़्ते तक मेरी यही हालत रही। घरवाले मेरी हालत से परेशान थे। तरह-तरह की सांत्वनाएँ दे रहे थे। डॉक्टरों को दिखा रहे थे। जब भी मुझे होश आता, चाचा मेरे पास होते। मुझे दिलासा देते तो मैं फिर माला की याद में चीखने लगता। कोई दस-बारह रोज़ बाद मेरी हालत सुधरी। मुझे कुछ भी याद नहीं था कि मैं मैसूर की पहाड़ियों से वहाँ तक किस तरह पहुँचा था। दिमाग़ काबू में आया तो मैं सर्वप्रथम कुलवन्त के पास जाना चाहता था। ताकि हरि आनन्द को कुत्ते की मौत मारने का जतन कर सकूँ।

लखनऊ से मेरा दिल उचाट हो चुका था। मैंने मैसूर वापस जाने की ठानी। अब यही इरादा था कि हरि आनन्द को खत्म करके कुलवन्त के साथ मैसूर की पहाड़ियों में दिन गुजारूँ। चाचाजी ने मुझे रोकने-समझाने की बहुत कोशिशें की। परंतु अंत में उन्हें मेरी ज़िद के सामने हथियार डालने पड़े। आख़िर मुझे उनसे वायदा करना पड़ा कि मैं शीघ्र ही लौट आऊँगा। घर से निकलकर मैं सीधा स्टेशन की ओर चल पड़ा। स्टेशन पर जिस समय मैं तांगे से उतर रहा था तो उसी समय किसी मे मुझे आवाज़ दी। आवाज़ जानी-पहचानी थी। मैंने पलटकर देखा तो साधु जगदेव मेरी पुश्त पर मौजूद था। उसके चेहरे के भाव देखकर मैंने अंदाज़ा लगा लिया कि उसे हालात का इल्म हो चुका है। मेरा अनुमान ग़लत नहीं था।

जगदेव ने मेरे निकट आकर कहा।
“बालक! तेरे ऊपर जो बीती है। उसका मुझे अफ़सोस है। मैं मण्डल में बैठा हुआ था इसलिए बाहर नहीं आ सकता था। माला रानी मेरे मित्र प्रेमलाल की निशानी थी। उसका दुख मुझे कम नहीं हुआ। परंतु सब भाग्य का खेल है। तुम्हें अब सब्र और हिम्मत से काम लेना होगा।”

“महाराज! उसका क़ातिल तो मैं हूँ। आप मण्डल में बैठे हुए थे और दूसरी ओर मैंने कुलवन्त का ध्यान बँटा दिया था। अब मेरे अंदर सब्र की हिम्मत कहाँ। उसका पैमाना तो छलक चुका है। मुझे हरि आनन्द का खून चाहिए। उस कमीने ने पहले डॉली को निशाना बनाया और अब माला को मार डाला। महाराज, अब तो मेरी सहायता करो।”

“बालक! तेरे मन में ज्वालामुखी सुलग रहा है। उसे देख रहा हूँ। हरि आनन्द ने मुझे भी ललकारा है। मैं तेरी सहायता करने को तैयार हूँ। परंतु तुझे अभी इंतज़ार करना होगा।” जगदेव ने दुख भरे स्वर में कहा। “हरि आनन्द ने काली मंदिर से बाहर आते समय दो मौसमों की रक्षा दान माँगी थी। जिसे देवी ने हरि आनन्द के जाप से ख़ुश होकर मंजूर कर लिया था। जब तक यह समय पूरा न हो ले हम उसे कष्ट नहीं दे सकते।”

जगदेव की यह बात सुनकर मेरा चेहरा लटक गया। कुलवन्त ने भी कदाचित यही बात कहनी चाही थी। चंद क्षणों तक मैं मन ही मन बल खाता रहा। फिर कुछ सोचकर बोला।
“महाराज! अगर वह देवी के दान किए हुए समय से पहले ही मठ में जा छिपा तो ?”

“इसकी चिंता मत करो बालक! इसका उपाय भी हो जाएगा। हरि आनन्द अब काली की शरण में नहीं छिप सकेगा और मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि इस अरसे में वह तुम्हें कोई हानि नहीं पहुँचा सकेगा।”

मैं जगदेव की यह बात सुनकर ख़ामोश हो गया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अब मुझे क्या करना चाहिए। मुझे रह-रहकर अपनी उस नादानी का ख़्याल आ रहा था जो मैंने कुलवन्त के साथ की थी।

“जो कुछ हो चुका है उसे भूल जाओ बालक! मनुष्य बनो और अपने अंदर साहस रखो।” जगदेव ने प्रेम भरे स्वर में कहा। “मेरी मानो तो समुद्र पार किसी जगह चले जाओ। वहाँ तुम्हारा ग़म भी ग़लत हो जाएगा और टूटे हुए हाथ का इलाज भी हो जाएगा।”

“अब टूटे हुए हाथ का इलाज करा के क्या करूँगा महाराज ?” मैंने मुँह बिसूरते हुए कहा।

“जीवन से निराश होना पाप है मेरे बच्चे! कौन जाने आज के अंधेरे कल फिर रोशनी में बदल जाए। तुमने पहले ही मेरी बात मानी होती तो आज यह हालत न होते।”

जगदेव देर तक मुझे समझाता रहा और मैं रोता रहा। फिर उसका सुझाव मानकर मैं उसकी आज्ञा मानने के लिये तैयार हो गया। यूँ भी मेरे लिये हर जगह एक सी थी क्योंकि जब आदमी का दिल टूट चुका हो तो जगहों और मौसमों की तब्दीली क्या हैसियत रखती है।

“सुखी रहो बालक! तुमने मेरी बात मानकर मेरा मान बढ़ाया है। मैं इसी समय तुम्हें कुछ दान करना चाहता हूँ।” जगदेव ने मुझे आशीर्वाद देते हुए कहा।

जगदेव के चेहरे पर पल भर के लिये मुस्कराहट फैल गयी। पर दूसरे ही क्षण वह किसी गहरे झील के मानिंद शांत था।

“बालक! तुमने यह नहीं पूछा कि जब तुम कल्पना की तलाश में उस कुटिया तक गए थे तो मैं वहाँ किस जाप में मग्न था। मैंने हरि आनन्द से मोहिनी को छीन लिया है। मैं तुम्हारी मोहिनी रानी को प्राप्त करने के लिये जाप कर रहा था। देवी-देवताओं की इच्छा थी कि मैं ऐसा करूँ।

“महाराज!” मैं एकदम आश्चर्य से उछल पड़ा। मोहिनी का नाम सुनकर मेरी हालत ही कुछ ऐसी हो गयी थी। मैंने साधु जगदेव से कुछ पूछना चाहा कि मोहिनी अब कहाँ है ? लेकिन इससे पहले कि मैं अपने दिल की बात जुबान पर लाता मेरे सिर पर कोई चीज़ कुलबुलायी। मैं चौंक पड़ा।

मैंने कल्पना के झरोखे से सिर पर देखा तो छिपकली रेंग रही थी। उसके नन्हे-नन्हे पंजों की चुभन जानी-पहचानी थी। वह मोहिनी थी। सचमुच मोहिनी मेरे सिर पर वापस आ गयी थी। पलक झपकते ही वह नारी के रूप में थी।

“मैंने हरि आनन्द से मोहिनी को छीन लिया मेरे बच्चे।” जगदेव की आवाज मेरे कानों में गूँजी। “अब यह खिलौना संभाल कर रखना। यह माला रानी का गम किसी सीमा तक दूर कर देगी।”

मेरी समझ में नहीं आता था कि मैं किस जुबान से साधु जगदेव का शुक्रिया अदा करूँ। उसने तो हद ही कर दी थी। उसने मोहिनी जैसी महान शक्ति को मेरी झोली में डाल दिया था जैसे वह बच्चों के दिल बहलाने का खिलौना भर हो। किन्तु उसने मुझे शुक्रिया अदा करने का अवसर ही नहीं दिया। वह तुरंत ही मेरी दृष्टि से ओझल हो गया और मैं उसे चारों दिशाओं में आवाज देता रहा।

“वह जा चुका है।” मोहिनी ने मुझसे कहा।

मैंने कल्पना की दुनिया में अपने सिर की तरफ देखा, वहाँ मोहिनी बैठी हुई थी। साधु जगदेव मेरी नजरों से ओझल हो चुका था। मुझे आश्चर्य था कि उसने चालीस दिन का कठिन जाप करके मोहिनी को प्राप्त किया। फिर क्यों मेरी झोली में दान कर दिया, जैसे वह उसके लिये कोई साधारण सी चीज हो। जमाने भर के सितम सहने के बाद मेरी मोहिनी फिर मेरे पास थी। उससे बातें करते हुए मुझे कुछ झिझक सी महसूस हो रही थी। शिकवे-शिकायतों का एक दफ्तर था, पर यह पुरानी बात हो गयी थी। मोहिनी के चेहरे पर गम्भीरता विराजमान थी। मैंने दृष्टि उठाकर ऊपर देखा तो उसने नजरें झुका लीं। शर्मिंदगी का अहसास उसके चेहरे पर था। कुछ देर यूँ ही खामोशी रही, फिर मैंने धड़कते दिल से सुकून तोड़ा।

“मोहिनी कैसी हो ?”

वह कसमसाकर बोली। “ठीक हूँ।”

“इस कदर खामोश क्यों हो ? क्या तुम्हें दोबारा मेरे पास आने की ख़ुशी नहीं हुई ?”

“राज!” मोहिनी ने नजरें उठायी। उसकी खूबसूरत पलकों के किनारे नम थे। उसके नर्म व नाजुक होंठ कुछ कहने के लिये कंपकंपा रहे थे। उसकी आवाज में बड़ा दर्द था।

मैंने उसकी मजबूरियाँ समझते हुए कहा– “नहीं! मुझे अहसास है कि तुम कितनी मजबूर थी। तुम तो परिस्थिति की गुलाम हो लेकिन तुम्हारी जुदाई ने मुझ पर क्या सितम तोड़े, क्या जुल्म ढाए, यह दास्तान बहुत लम्बी और दर्दनाक है।”

“मुझे मालूम है राज! मुझे मत बताओ।” मोहिनी ने ठंडी आह भरते हुए कहा। “काश, मेरे वश में कुछ होता।”

“कितने बड़े इन्कलाब आए हैं पूरी जिंदगी में। माला की मौत ने तो मेरी कमर ही तोड़ दी है। उसका खून मेरी गर्दन पर है। आखिर यह हरि आनन्द मेरे घर के पीछे क्यों पड़ गया ?” मैंने तड़पकर पूछा।

“हरि आनन्द ने डॉली को इसलिए ख़त्म किया था कि तुमने वचन के अनुसार मुझे उसके हवाले करने से इनकार कर दिया था और माला रानी को इस वजह से ख़त्म किया है कि वह समझता था कि तुम प्रेमलाल की शक्ति की शरण में तब तक रह सकते हो, जब तक माला जिन्दा है। प्रेमलाल की शक्ति का उपहास उड़ाने और उसे भयभीत करने का इससे बेहतरीन और कौन सा अवसर मिल सकता था। मगर राज! मेरा वचन है कि तुम हरि आनन्द का अन्जाम अपनी आँखों से देखोगे। उसका अन्जाम तुम्हारे कष्टों से कहीं अधिक भयानक होगा। बस, कुछ दिन की बात और है।”मोहिनी की हमदर्दी ने दिल का गुब्बार किसी सीमा तक दूर कर दिया। मैंने उससे अपने दिल का हाल एक बच्चे की तरह बयान किया और मोहिनी मुझे तसल्ली देती रही। मैं स्टेशन के निकट खड़ा देर तक मोहिनी से बाते करता रहा। हम दोनों इस तरह मिले जैसे बरसों के बिछुड़े प्रेमी हों। बातें न जाने कहाँ से कहाँ तक हुईं। जब मैं सब कुछ कह सुन चुका तो मोहिनी ने कहा।

“अब तुम्हारा क्या इरादा है ? इस समय कहाँ जा रहे हो ?”

“कहाँ जाऊँ ? लखनऊ से दूर चला जाना चाहता हूँ।” इस शहर ने बड़े दुःख दर्द दिए हैं। जगदेव महाराज ने मुझे सुझाव दिया है कि इस शहर से दूर चला जाऊँ। इस मुल्क से दूर समुन्दर पार।

“तुम्हारे दिल पर जो गुजरी है उसका मुझे अहसास है। मगर मैं तुम्हारे पास आ चुकी हूँ। तुम्हारी कनीज मोहिनी, तुम्हारी गुलाम मोहिनी, तुम्हारी महबूबा मोहिनी! मेरी जान अपने दिल का सन्नाटा दूर करो। मेरी तरफ देखो।” मोहिनी ने भावनात्मक स्वर में कहा। “तुम्हें अभी लखनऊ नहीं छोड़ना चाहिए। न मालूम कि फिर कभी यहाँ आना हो या न आना हो। इस समय तुम अपने घर अपने प्रियजनों के बीच रहोगे तो खुश रहोगे। घर से अधिक सुकून तुम्हें कहीं नहीं मिल सकेगा।”

“मगर वहाँ हर समय माला की याद आती है।” मैंने बेताबी से कहा।

“माला…! राज, माला अब ऐसी जगह जा चुकी है जहाँ से कोई वापिस नहीं आता। तुम्हें उसे भूलना होगा। उसकी आयु इतनी ही थी। भाग्य का लिखा हुआ पूरा होता है। तुम उसे याद करके उसकी आत्मा को दुःख पहुँचाओगे। चलो, घर चलो।”

“घर ? किसका घर मोहिनी ? अब वहाँ दहशत बरसती है। मैं जितने दिनों वहाँ रहा काँटों पर लोटता रहा।” मैंने बेदिली से कहा।

“तुम नहीं मानते हो तो न मानो लेकिन राज, इस शहर को इस तरह छोड़कर न जाओ। तुम अपने वादे भी भूल गए। तुम अपने अगले-पिछले हिसाब बराबर करके यहाँ से रवाना होगे तो तुम कहीं भी सुकून से रह सकोगे।” जब तुम्हें यहाँ के लोग और इनके सितम याद आयेंगे तो तुम्हारा क्या हाल होगा ? यहाँ के जख्म तुम्हारे साथ रहे तो तुम फिर बेचैनी महसूस करोगे।”

मैं मोहिनी के चेहरे पर छायी गम्भीरता का निरीक्षण कर रहा था। उसकी सुर्ख आँखें इस बात की गवाह थीं। मैं इतना मुरझाया हुआ था कि उसकी बातों का मतलब न समझ सका।

“इरादे क्या हैं तुम्हारे ? खुलकर बात करो।” मैंने मोहिनी से कहा।

“राज! मेरे इरादे तुम्हारे इरादों से अलग नहीं हो सकते। लेकिन मैं देख रही हूँ कि इस बार तुम बिल्कुल टूट चुके हो। माला की अचानक मौत ने तुम्हारे दिलो-दिमाग पर गहरा असर डाला है। मैं चाहती हूँ कि तुम उदास न रहो। लखनऊ की महफ़िलें तुम्हें पुकार रही हैं। अशर्फी बेगम याद है तुम्हें ? उस बदकार औरत को किस पर छोड़े जा रहे हो ? तुम नवाब बब्बन अली को किस तरह भूल गए। बब्बन अली की दिनचर्या आज भी वही है। एक तरन्नुम की बर्बादी की कहानी ही उसके साथ नहीं जुड़ी है। उसकी हवेली में आज भी सुन्दरियों का बाजार गर्म है। तुमने उसकी सुन्दरियों को छीना। उससे आजादी दिलायी थी और तुम तो यह भी न जानते होगे कि यह नवाब बब्बन ही था जिसकी वजह से तुम्हें जेल की हवा खानी पड़ी। उसके साथ तुम्हारा दूसरा दुश्मन मेहता भी मिल गया था। वह भी इसी शहर में है। अगर तुम यूँ हार खाकर यहाँ से चले गए तो ये सब शैतान मिलकर तुम्हारे घर को कुचल डालेंगे। तुम्हारी बहनें हैं, एक भाई है। भले ही वे तुम्हारे चाचा की संतानें हैं परन्तु उन्हें किस भरोसे छोड़े जा रहे हो ? ये लोग फिर उन महफ़िलों के बादशाह होंगे। जहाँ तुमने उनकी बादशाहत छीन ली थी। यहाँ से जाना ही है तो दिल ठंडा करके जाओ। बब्बन अली का सुर्ख व सफ़ेद चेहरा देखकर मेरे मुँह में पानी भर आता है।” मोहिनी ने अपनी जुबान से चटखारे लेते हुए कहा।

“मोहिनी! मैं इन सबका खून पीने के लिये तड़पता हूँ लेकिन फिर सोचता हूँ कि इन बातों से क्या हासिल होगा ? मेरा सबसे बड़ा दुश्मन तो हरि आनन्द है और वह जिन्दा है। अब मैं थक चुका हूँ और मुझे सुकून चाहिए।”

“यह बात मैं तुम्हारे सुकून के लिये ही कह रही हूँ। सबका हिसाब साफ़ करते जाओ। यह क़र्ज़ उतार दोगे तो दिल का बोझ हल्का हो जाएगा। अपने-आपको हंगामों के आदी बनाओ। जिन्दगी इस तरह नहीं गुजरती जिस तरह तुम सोच रहे हो। मेरी मानो तो घर चलो। वहाँ बहुत से लोग तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं।”

मोहिनी ने मेरी गैरत को इस तरह झिंझोड़ा कि मुझे महसूस हुआ जैसे मैं गहरी नींद से जाग गया हूँ। अतीत के जख्मों पर मोहिनी की बातों का नश्तर कुछ इस तरह चला कि सारे जख्म हरे हो गए। रगों का लहू गर्म हो गया। मोहिनी ने इन्तकाम के शोलों को हवा दे दी थी। मेरे सीने में जलन सी होने लगी। वह मुझे पुरानी बातों की याद दिला रही थी। मैं इन छोटे-मोटे दुश्मनों की कभी परवाह भी नहीं करता था और न इनके बारे में कुछ बयान करने की आवश्यकता समझता था। ये लखनऊ के अमीरजादे थे और मैंने इनकी बादशाहत छीनी थी। मोहिनी उन दिनों भी मेरे साथ थी। मुझे याद आया मेहता ने किस तरह मुझे यातनाएँ दी थी। मेहता जैसे पुलिस ऑफिसर की हिम्मत ही क्या थी जो मुझ पर हाथ डालता। वह किसी की शह पाकर ऐसा कर गुजरा था और यह शह उन अमीरजादों ने दी थी।

मेरे कदम वापिस घर की तरफ उठ गए। जिन्दगी का क्या भरोसा। आज है तो कल नहीं, और कल किसने देखा ? मेरे जैसे आदमी के लिये अब जिन्दगी के क्या मायने थे। जब मरना ही था तो इस तरह क्यों मरूँ ?
बस कुछ दिन की बात थी। फिर मैं जगदेव महाराज की इच्छा का पालन करने के लिये कूच कर जाता। मैंने मोहिनी को यह बात भी बता दी थी। जब मैं घर पहुँचा तो भाई-बहनों और चाचा ने मुझे हाथों-हाथ लिया। घर की रौनक लौट आयी थी। रहने के लिये मैंने वही कमरा चुना जहाँ माला के साथ जिन्दगी के हसीन लम्हे गुजारे थे। परन्तु रात के समय वह मुझे काट खाने को दौड़ता। उसके दरो-दीवार में माला की सिसकियाँ मचलती थीं। मेरी हालत देखकर मोहिनी ने मुझे समझाया।

“इस तरह तुम उस पवित्र आत्मा को क्यों दुःख पहुँचा रहे हो राज। जाने वाले आँसुओं से लौटकर नहीं आते। उन्हें दुःख ही होता है। जरा सोचो तो राज, मेरे अलावा जगदेव का आशीर्वाद भी तुम्हारे साथ है। जहाँ-जहाँ तुम्हारे कदम पड़ेंगे, वहाँ की ज़मीन भय और आतंक से थर्रा जाएगी।”

“मोहिनी, मैं जगदेव महाराज का अहसान कभी नहीं भूल सकता। हाँ, इस बात से जी डरता है कि कहीं तुम भी मुझसे रूठकर…।”

मैंने आँसू पोंछ लिये और बिस्तर पर आ लेटा।

“अब ऐसा नहीं हो सकता मेरे आका।” मोहिनी ने मेरा वाक्य को काटते हुए कहा। “जगदेव की शक्ति का क्या ठिकाना। उसने जाप करके मुझे पण्डित हरि आनन्द से प्राप्त किया और फिर तुम्हें दान कर दिया। एक बात याद रखो कि मेरा हर मतवाला पुजारी जाप करने से पहले यह इत्मीनान अवश्य हासिल कर लेता है कि मैं किस शक्ति के पास हूँ। अगर वह शक्ति उससे बढ़कर है, तो वह ऐसी मूर्खता नहीं करता। त्रिवेणी कोई बड़ा पुजारी नहीं था। उसने जब मुझे तुम्हारे पास देखा तो आसानी से जाप शुरू कर दिया और मुझे प्राप्त कर लिया। हरि आनन्द ने भी यही किया। हरि आनन्द, साधु जगदेव या उसके बराबर की शक्ति ही मुझे प्राप्त कर सकती थी। अब साधु जगदेव ने मुझे प्राप्त कर लिया तो यह बात इतनी आसान नहीं रही। उससे बड़ी या कम से कम उसके बराबर की शक्ति ही मेरे बारे में सोच सकती है और ऐसी किसी शक्ति को भला मेरी क्या ज़रूरत पड़ी है। इसलिए कि उसके पास खुद क्या अपनी शक्ति कम होती है। समझे।”

“समझा।” मैंने इत्मीनान का साँस लिया। “लेकिन मोहिनी, अब आराम से गुजर बसर हो जाए तो ठीक है। भाग्य की इन ठोकरों का सिलसिला समाप्त हो जाना चाहिए। किसी जगह जाकर तो हमें ठहरना ही पड़ेगा। यह सिलसिला कब तक चलता रहेगा ?”

“इत्मीनान रखो, मैं अब तुम्हारे साथ हूँ। तुम्हारे लिये यह अहसास ही काफी है। हम दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। न तुम्हें मेरे बिना चैन आता है, न मुझे तुम्हारे बगैर।”

कुछ सोचकर मैंने पूछा– “मुझे यह बताओ मोहिनी, क्या तुमने भी माला की मौत में हिस्सा लिया था ?”

कुछ पल मोहिनी खामोश रही, फिर बोली।
“उस समय मैं मजबूर थी मेरे आका! हरि आनन्द किसी चालाक चीते की तरह माला रानी की घात लगाए बैठा था। उसने अपनी शक्ति के जोर से यह मालूम कर लिया था कि कुछ रहस्यमय शक्तियों ने माला के इर्द-गिर्द सुरक्षा का किला बना रखा है जिसे तोड़ना उसके बस की बात नहीं थी। इसके बावज़ूद भी वह एक क्षण के लिये भी अनभिज्ञ न था। जिस रोज माला जुल्म का निशाना बनी। उस रोज वह सुबह से ही बेचैन था। वह बार-बार मंत्र पढ़ता और रहस्यमय शक्तियों को पुकारता। फिर उसके वीरों ने उसे एक क्षण के लिये यह सूचना दी कि माला के इर्द-गिर्द का वह किला टूट गया है। उसने तुरन्त अपनी शक्तियों की सहायता से ऐसा भरपूर वार किया कि तुम्हारी खुशियों का चिराग पल भर में बुझ गया।”

मोहिनी की जुबानी यह वर्णन सुन मैं तड़प उठा। एक बार फिर सावन-भादो की झड़ी लग गयी। मैं फूट-फूट कर रोने लगा। इस आलम में मैंने मोहिनी को संबोधित किया।

“मोहिनी! मैं जानता हूँ, तुम्हारी हालत क्या थी। किन्तु माला को जुल्म का निशाना बनाते समय तुम्हें धक्का नहीं लगा ?”

“राज!” मोहिनी भर्राई हुई आवाज में बोली। “वह कमीना पंडित बड़ा चालाक और अय्याश है। माला रानी के सिलसिले में उस कमीने ने मेरी बजाय अपने वीरों की शक्ति से काम लिया था। उसे खतरा था शायद मैं उसके हुक्म की तामील न कर सकूँ। हालाँकि यह उसका वहम था। वह मुझे जो भी आदेश देता, मेरे लिये उसके इनकार का सवाल ही पैदा न होता था।”

“यानी तुम माला को मार डालती।” मैंने हैरत से पूछा।

“हाँ! मुझे ऐसा करना पड़ता।” मोहिनी ने धीमे स्वर में उत्तर दिया।

“उफ़्फ़…! तुम अपने महबूब की अमानत ख़त्म कर देती ?” मैंने रूँधी आवाज में कहा।

“मैं और क्या करती। मगर अब इन बातों से क्या हासिल राज ? मेरी खातिर सब्र करो।” मोहिनी ने डूबते हुए स्वर में कहा।

सम्भव है मेरी आपबीती के प्रसंग लोगों के लिये ख्याली बातें हों। किंतु जिन लोगों ने मुसीबतें झेली है और दुःख-दर्द उठाए हैं। उन्हें मेरे दर्द का अहसास होगा। मेरा दर्द, मेरी जात का दर्द। मेरी गर्दिश। मेरे पाप और मेरे पुण्य ऐसे नहीं हैं कि साधारण इन्सान उनकी कल्पना कर सके। एक के बाद एक घटनाएँ। परीक्षाओं के बाद फिर परीक्षाएँ और अजीबोगरीब परिस्थितियाँ। मोहिनी के सुझाव पर मैं घर तो आ गया परन्तु वहाँ आकर एक पल भी सुकून से न गुजार सका। मोहिनी ने मुझे बहुत समझाया कि मैं घर से बाहर निकलूँ। अपने लिये ऐश के साधन जुटाऊँ परन्तु माला की तेरहवीं तक मैं घर की दीवारों में ही कैद रहा।

यूँ तो चाचा की दुकान खासी चल रही थी। मैंने ही उन का कारोबार खड़ा किया था। फिर भी मैं चाचा के ऊपर भार तो न बनना चाहता था। भला जब मोहिनी मेरे पास थी तो दौलत की क्या कमी थी ? परन्तु मोहिनी कोई सोने की खान नहीं थी। वह दौलत प्राप्त करने का रास्ता बता सकती थी जिसके लिये मेरा घर से निकलना आवश्यक था। धीरे-धीरे स्थिति सामान्य होने पर मैंने सबसे पहले आर्थिक ढाँचे को सुधारने के लिये घर से बाहर कदम रखा। मोहिनी मुझे ऐसे स्थानों पर ले गयी जहाँ दौलत की हेराफेरी होती थी और फिर मैं हर दाँव जीतता चला गया। हर रात जब मैं घर लौटता तो नोटों के बण्डल जेबों में ठूँसा होता। मैंने उन नोटों को गिनने की कभी ज़रूरत ही नहीं समझी। उन्हें यूँ ही अलमारी में ठूँस देता।

दौलत…दौलत और दौलत। जिंदगी बदलने लगी। मैंने वह पुराना घर बेचकर चाचा के लिये धनवान इंसानों के एक क्षेत्र में शानदार बंगला खरीद लिया। नौकर चाकर, माली, ड्राइवर सब कुछ आ गया। नए शानदार फर्नीचर से बंगला सज गया और इस तरह मैं फिर एक अमीर इंसान बन गया। लोगों को अमीर बनने में बरसों लगते होंगे परन्तु मेरी जिन्दगी तो अजीब ही थी। पल भर में मैं अमीर होता और पल भर में फकीर।

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