अचानक मुझे मोहिनी का ख्याल आया। मेरी इस रहस्यमय गुत्थी का उत्तर सिर्फ मोहिनी दे सकती थी। मैंने कल्पना के झरोखे से उस पर दृष्टि डाली तो वह सिर पर लेटी थी और छत की तरफ टकटकी लगाये देख रही थी जैसे मुझसे कटी हुई हो या मुझसे बात ही न करना चाहती हो।
मैंने मुँह से एक भी शब्द नहीं निकाला इसलिए कि कुलवन्त सामने बैठी थी। मगर मोहिनी मेरे दिल में छिपे प्रश्नों को ताड़ गयी। उसने अचानक करवट ली और उठ बैठी।
“मुझे क्षमा कर दो राज। मैंने एक अरसे के लिये तुम पर अधिकार जमा लिया था और तुम्हारी याददाश्त गँवा दी थी। अगर मैं ऐसा न करती तो मुझे संदेह था कि तुम अपना मानसिक संतुलन खो बैठते। अगर तुम कोलकाता चले गये होते तो तुम हरि आनन्द के मठ का रास्ता जरूर नापते। जहाँ पहुँचने के बाद मैं तुम्हारी कोई मदद न कर सकती और तुम ज़िन्दा न लौटते। हरि आनन्द ने तुम्हारे लिये वहाँ पूरा इंतजाम कर रखा था। वह जानता था तुम वहाँ जरूर पहुँचोगे।”
“क्या उस घटना को सचमुच एक साल बीत गया ?” मैंने मन ही मन मोहिनी से पूछा। “मेरी तो कुछ समझ में नहीं आया। जरा विवरण से बताओ।”
“हाँ, एक साल के करीब!” मोहिनी ने उत्तर दिया ।”जब मुझे यकीन हो गया कि तुम मठ के काली मन्दिर तक जरूर पहुँचोगे और अपना संतुलन गँवा बैठे हो और अब कोई ताकत तुम्हें तुम्हारे खतरनाक इरादे से नहीं रोक सकती तो मुझे एक ही सूरत नज़र आयी कि मैं तुम्हारे मस्तिष्क पर पूरी तरह अपना अधिकार जमा लूँ। वरना मठ की सीमा में एक बार पहुँचने के बाद तुम बचकर नहीं निकल सकते थे। उसके बाद मैं तुम्हें विभिन्न शहरों में ले गयी। मुम्बई, इलाहाबाद, पहाड़ों पर, खेल के मैदानों में, रेस में, क्लब में। तुम इस पूरे अरसे में बड़ी शानदार ज़िन्दगी बिताते रहे। मैंने तुम्हें हर तरह खुश रखा। रातों को जब तुम गहरी नींद में होते तो समय-समय पर मैं तुम्हारे सिर से जुदा हो जाती थी। मुझ निगोड़ी को अपने भोजन की व्यवस्था भी करनी होती थी। वरना प्यारे मैं तुम्हें एक पल के लिये भी नहीं छोड़ती। बहरहाल अब मुझे यकीन है कि तुम बुद्धि से काम लोगे। कुलवन्त तुम्हारी वजह से बहुत परेशान रही है। मैंने मुम्बई में इसे पागलों की तरह तुम्हें तलाश करते देखा था। पहले मैं तुम्हें उससे दूर-दूर रखती रही पर जब कुलवन्त के पागलपन में कोई कमी नहीं आयी तो मैं तुम्हें पूना ले आयी और उसे भी पूना आने पर मजबूर किया। और देखो अब वह तुम्हें पाकर खुश है।
“हनी, तुमने अच्छा नहीं किया! क्या तुम समझती हो कि वक्त मुझसे डॉली का गम छीन लेगा ? तुमने मुझे मार ही क्यों न दिया। ऐसी ज़िन्दगी से तो मौत बेहतर है। डॉली के बिना ज़िन्दगी कैसी, खुशियाँ कैसी ?”
“वक्त के मरहम से हर ज़ख्म भर जाता है राज! सब्र करो और वक्त का इंतजार करो! उस वक्त तक इंतजार करो जब तक हरि आनन्द मठ से बाहर नहीं आ जाता।”
“तो क्या वह शैतान अब भी वहीं है ?”
“हाँ! और उसे यकीन है कि अगर उसने बाहर कदम निकाला तो उसकी ज़िन्दगी खतरे में पड़ जाएगी।”
“यह इंतजार कितना लम्बा होगा ?”
“कौन कह सकता है! फिर भी उसे किसी न किसी दिन तो जरूर बाहर आना है।”
“और उस वक्त तक मैं उसके इंतजार में दीवाना बना रहूँगा, क्यों ?”
“तुम कुलवन्त की तरफ देखो। मैं तुम्हारे साथ हूँ। एक बड़ी रहस्यमय शक्ति जिसे प्राप्त करने के लिये लोग कठिन तपस्या करते हैं और अपनी ज़िन्दगी तक दाँव पर लगा देते हैं।”
“मैं मानता हूँ कि तुम एक रहस्यमय शक्ति हो लेकिन इस मामले में तुमने क्या तीर मारा है ? तुम भी तो मायूसी की बातें कर रही हो।”
“मैं तुम्हें इसका उत्तर देना नहीं चाहती।”मैं दिल ही दिल में मोहिनी से बातें कर रहा था और कुलवन्त मेरे निकट बैठी टकटकी बाँधे मुझे देखे जा रही थी। मुझे देर तक खामोश पाकर उसने दबी जुबान में कहा ।
“राज! जो कुछ तुम पर गुजरी है उसका मुझे भारी खेद है। भगवान की सौगंध खाकर कहती हूँ कि अगर डॉली जीवित होती तो मैं सारा जीवन उसके चरण धो-धोकर पीती परन्तु उसका अधिकार कभी न छीनती।”
“कुलवन्त! तुमसे मुझे कोई शिकायत नहीं है। लेकिन मेरी खातिर तुमने अपनी ज़िन्दगी बर्बाद करके अच्छा नहीं किया। मैं एक ज़िंदा लाश हूँ और तुम्हें एक ज़िंदा लाश से कुछ हासिल नहीं होगा। उचित होगा कि तुम अपने माँ-बाप के पास वापस चली जाओ।”
“ईश्वर के लिये ऐसा न कहो राज।” कुलवन्त एकदम से मुझसे लिपट गयी। तुम्हारे बिना मेरा जीवन बेकार है। मैं तुम्हारी दासी हूँ। मुझे चरणों में ही रहने दो राज। मैं इससे अधिक तुमसे कुछ नहीं माँगूँगी। तुम्हारे सीने में दिल है तो मुझे महसूस करो।”
कुलवन्त मेरे सीने पर सिर रखे रोती रही। मैंने उसे बहुत समझाया लेकिन वह किसी भी सूरत में मुझसे अलग होने के लिये तैयार न थी। मोहिनी खामोशी से सब कुछ सुन रही थी। कुलवन्त की हालत देखकर बोली-
“यह एक शरीफ और इज्जतदार लड़की है। इस गरीब को किस जुर्म की सज़ा दे रहे हो राज ?”
“तुम इसकी इतनी सिफारिश क्यों कर रही हो ?” मैंने चुभते हुए स्वर में कहा।
“इसलिए कि वह तुमसे प्यार करती है। मेरी तरह। डॉली की तरह। और यूँ भी अब तुम्हें किसी सहारे की जरूत है।”
“मेरा दिल अब किसी चीज में नहीं लगता मोहिनी।”
“कुलवन्त का जी भी तुम्हारे सिवा किसी में नहीं लगता।” मैंने कुलवन्त की तरफ देखा। उसकी कुर्बानियाँ देखकर मेरे दिल में उसके लिये बेअख्तियार प्यार का जज़्बा उमड़ आया। मैं उसके उलझे बालों में उँगलियों से कंघी करने लगा।
तीन दिन इसी तरह गुजर गये। होटल में पड़े-पड़े मेरा जी उक्ता गया था। मोहिनी हरि आनंद पर नज़र रखे हुए थी। मैं बहुत बेचैनी महसूस कर रहा था। जैसे मेरे सिर पर कोई बोझ मौजूद हो। चौथे रोज मैं मोहिनी से बातें कर रहा था कि अचानक मुझे त्रिवेणी याद आ गया। मैंने सोचा लगे हाथों उसका हिसाब भी साफ कर दूँ। एक दूसरी बात जो मेरे दिमाग में आयी वह यह कि त्रिवेणी भी उसी मण्डल का एक सदस्य रह चुका है जिसका कि हरि आनन्द है। अतः मैंने उसी शाम त्रिवेणी से मिलने का प्रोग्राम बना दिया।
कुलवन्त से मुझे अकेले बाहर जाने के लिये रोकने की बहुत कोशिश की। उसका संदेह था कि अभी मेरा मानसिक संतुलन दुरुस्त नहीं हुआ है। लेकिन मैं उसे समझा-बुझाकर होटल से बाहर आ गया। टैक्सी में बैठकर जब मैं त्रिवेणी की तरफ रवाना हुआ तो मोहिनी ने स्वयं ही कहा–
“त्रिवेणी आज कल ठाठ का जीवन व्यतीत कर रहा है, राज। उसने पूना के एक और पुजारी से गठजोड़ कर लिया है। कुछ मंतर-जंतर पहले ही जानता था। काम चला रहा है अपना।”
“हो सकता है त्रिवेणी के लिये यह शाम ज़िन्दगी की आखिरी शाम साबित हो।” मैंने सरसरी अंदाज में कहा। “मुझे याद है कि उसने मेरे साथ क्या व्यवहार किया था।”
“उसे जरूर सजा दो राज! वह बड़ा अय्याश व्यक्ति है। मुझसे अधिक उसे कौन जानेगा।”
टैक्सी जब त्रिवेणी के मकान के सामने पहुँचकर रुकी। तो मैं आश्चर्यचकित रह गया। क्योंकि जो हवेली मैंने मोहिनी के जरिये जलाकर राख कर दी थी । वह अब पहले से भी अधिक शानदार रूप में मेरे सामने खड़ी थी। फाटक पर खड़े दरबान को मोहिनी ने अपने अधिकार में ले लिया था इसलिए उसने मेरी तरफ देखा तक नहीं। हवेली का भीतरी नक्शा पहले जैसा ही था। मैं सीधा त्रिवेणी के शयनकक्ष की ओर चल पड़ा। अन्दर पहुँचा तो त्रिवेणी के पास दो-तीन सुन्दर लड़कियाँ बैठी नज़र आयी। मेरी रगों का खून तेज हो गया। जिस त्रिवेणी को मैं बदतर हालत में देखने का इच्छुक था, वह मेरे सामने बेहतरीन हालत में मौजूद था।त्रिवेणी की नजरें मुझसे चार हुई तो वह स्तब्ध रह गया। शायद उसे अपनी नज़रों पर संदेह हो रहा था। वह आश्चर्य से मुझे ताकता रहा। फिर एक लड़की को अपने पहलू से हटाकर तेजी से उठा और मेरे निकट आकर हाथ बाँध कर बोला-
“मेरे बड़े भाग कुँवर साहब जो आपने मुझे याद रखा।”
लड़कियाँ अपना अस्त-व्यस्त लिबास संभालती हुई दूसरी कमरे में जा चुकी थीं। मैंने त्रिवेणी की आँखों में आँखें डालकर नफरत से जवाब दिया।
“त्रिवेणी! तुमने यह कैसे सोच लिया कि मैं तुम्हें भूल जाऊँगा। तुमने तो मुझ पर बड़े अहसान किए हैं। आज तक मुझे तुम्हारा व्यवहार अच्छी तरह याद है। मुझे हैरत है कि तुम अभी तक ज़िन्दा हो। तुम्हें तो मर जाना चाहिए था। या अपने ढीठपन की वजह से ज़िन्दा ही हो तो तुम्हें फुटपाथ पर भीख माँगते नज़र आना चाहिये था।”
“पधारिये कुँवर साहब!” त्रिवेणी ने चापलूसी से कहा। “गुजरी हुई बातें भूल जाइए।”
“चापलूसी बन्द करो त्रिवेणी ? तुम खूब समझ रहे हो कि मैं किस इरादे से आया हूँ।” मैंने संयत स्वर में कहा। “पिछली बार मैं जरा जल्दी में था इसलिए तुम्हारे अहसानों का बदला नहीं चुका सका था। लेकिन आज मैं अगले पिछले सभी हिसाब करने के इरादे से आया हूँ।”
त्रिवेणी ने मेरे बिगड़े हुए तेवर को देखा तो हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। “कुँवर साहब। मुझे क्षमा कर दीजिये। मैं हाथ जोड़कर विनती करता हूँ।”
“क्षमा कर दूँ और तुम्हें… ?” पहली बार मेरे होंठों पर व्यंग्य भरी मुस्कराहट उभरी। “पिछली बातें याद करो त्रिवेणी दास। तुमने भी कभी मुझे क्षमा करने की कोशिश की थी।”
जवाब में त्रिवेणी ने झुककर मेरे पैर पकड़ लिये और गिड़गिड़ा कर बोला- “कुँवर साहब ? मैं जानता हूँ कि मैंने आपके साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया। परन्तु पहले मेरी आँखों पर पर्दा पड़ा हुआ था। मैं अँधा हो गया था। मुझे क्षमा कर दीजिये कुँवर साहब।”
मैंने क्रोध से त्रिवेणी के सिर के बाल पकड़ लिये और उसे उठाकर खड़ा करते हुए नफरत से कहा।
“त्रिवेणी दास! तुमने मुझसे मोहिनी छीनकर मेरी ज़िन्दगी बर्बाद कर दी थी। तुम अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि तुम्हारी इस हरकत से मुझे कितनी भारी हानि उठानी पड़ी। सुनो त्रिवेणी। मैं यहाँ वक्त ज़ाया करने नहीं आया हूँ। तुमने बहुत दिन आराम से गुजारे। आज से तुम्हारे बुरे दिनों का प्रारम्भ होता है। मैं तुम्हें अपाहिज करके सड़क पर भीख माँगने के लिये मजबूर कर दूँगा। आवारा कुत्तों की तरह गंदी नालियों में पड़े रहोगे और कोई व्यक्ति तुम पर तरस न खाएगा। मैं तुम्हें सिसक-सिसककर, तड़पा-तड़पा कर बड़ा घिनौना जीवन बिताने पर मजबूर कर दूँगा। इत्मीनान रखो, मैं तुम्हें जान से नहीं मारूँगा।”
त्रिवेणी सिर से पाँव तक इस तरह लरज रहा था। जैसे उसने कड़कड़ाती सर्दी में ठण्डे पानी से स्नान कर लिया हो। उसकी आँखों में मौत के साए काँप रहे थे। चेहरे की रंगत जर्द पड़ चुकी थी। वह मुझे रहम भरी दृष्टि से देखकर हकलाता हुआ बोला–
“कुँवर साहब! आपकी धर्म पत्नी पर जो कुछ बीती है उसने आपको व्याकुल कर दिया है, परन्तु अब आप मुझे अपना मित्र समझिए। शायद मैं आपके किसी काम आ जाऊँ। अगर आप मेरी सुने तो मैं आपको ऐसा उपाय बता सकता हूँ। जो पंडित हरि आनन्द को मठ से बाहर निकलने पर मजबूर कर देगा।”
“त्रिवेणी ?” हरि आनन्द का नाम सुनकर मैंने त्रिवेणी के बाल छोड़ दिए। और फिर उसे जहरीली नजरों से घूरता हुआ बोला।
“जल्दी बताओ। क्या तुम उस कमीने पंडित को मठ के बाहर निकालने में मेरी मदद कर सकते हो ?”“हरि आनन्द महान शक्ति का स्वामी है कुँवर साहब! मैं उसका बाल भी बांका नहीं कर सकता, परन्तु मैं एक ऐसे धर्मात्मा को जनाता हूँ जो आपकी सहायता कर सकते हैं। अगर वह चाहें तो हरि आनन्द आपके चरणों में भी लौटने को तैयार हो सकता है। मुझे विश्वास है कि आप अवश्य सफल होंगे। मुझ पर विश्वास करें, एक बार आजमा कर देखें।”
“खुशामदी कुत्ते! जल्दी बता कि वह कौन है ? और मुझे कहाँ मिल सकता है ? याद रख, अगर तूने गलतबयानी से काम लिया तो अच्छा न होगा।”
मोहिनी बराबर मेरे सिर पर मौजूद थी। वह भी त्रिवेणी पर दृष्टि जमाए हुए थी। त्रिवेणी ने काँपते स्वर में कहा-
“मैं आपसे धोखा नहीं करूँगा कुँवर साहब! मैसूर की पहाड़ियों पर एक धर्मात्मा है। उनका शुभ नाम प्रेमलाल है। वह न जाने कितने वर्षों से ज्ञान ध्यान में मग्न हैं। उनकी शक्ति बजरंग बली की शक्ति के समान है। उसका कहा देवी-देवता भी नहीं टालते। अगर आपने उसका आशीर्वाद प्राप्त कर लिया तो हरि आनन्द मठ से बाहर निकलने पर मजबूर हो जाएगा। आप मोहिनी देवी से भी पूछ सकते हैं।”
“राज!” मोहिनी ने मेरे कानों में सरगोशी की। “त्रिवेणी बिलकुल सच कह रहा है। लेकिन प्रेमलाल तक तुम्हारा पहुँचना बहुत कठिन है। क्योंकि वह किसी व्यक्ति से मिलता नहीं है।”
“मैं हरि आनन्द के लिये बड़ा से बड़ा जोखिम उठा सकता हूँ।” मैंने दिल ही दिल में मोहिनी से कहा फिर त्रिवेणी को सम्बोधित करके पूछा- “डॉली की मौत का ज्ञान तुम्हें कैसे हुआ ?”
“आपकी कृपा है कुँवर साहब! पंडित पुजारियों की सेवा करके दो-चार गुर सीख लिये हैं। मोहिनी के आने से पहले थोड़ा बहुत आता-जाता तो था ही।”
“कुछ दिन और चैन की बंसी बजा लो त्रिवेणी! हरि आनन्द को ठिकाने लगाने के बाद तुमसे मिलूँगा।”
फिर मैं तेजी से पलट कर हवेली से बाहर निकल आया।
“अगर मेरा कहा सच निकले तो मुझे अवश्य क्षमा कर दीजिये कुँवर साहब!”
चलते समय त्रिवेणी की आवाज़ मेरे कानों से टकराई। किन्तु कोई उत्तर दिए बिना मैं चला आया।
मोहिनी किसी सोच में डूबी हुई थी। मैंने उसे छेड़ना उचित नहीं समझा। उधर मैं प्रेमलाल से मिलने का प्रोग्राम बना रहा था। होटल पहुँचकर मैंने सारी रात इसी पर गौर किया। मेरा दिल चाह रहा था कि उसी वक्त पूना से मैसूर के लिये रवाना हो जाऊँ। लेकिन मोहिनी की खामोशी देखकर मैंने बात दूसरे दिन पर टाल दी। मोहिनी हैरतअंगेज तौर पर खामोश सी थी।