शिवचरण को मौत के घाट उतारने का वायदा करके मैं पूना से सूरत के लिये रवाना हो गया। मैं अपनी इस आज़ादी को बरकरार रखना चाहता था। ऐसा कौन सा जुल्म था जो त्रिवेणी दास ने मुझपर नहीं तोड़ा था। मेरी जगह कोई और व्यक्ति होता तो कब का इस जहाँ से रुखसत हो जाता लेकिन यह मैं था जो जुल्म ओ सितम बर्दाश्त करने का आदी हो चुका था। जो अपनी एक आँख की रोशनी और एक हाथ से पहले ही मरहूम हो चुका था। ज़िंदगी उसके लिये मुर्दों से भी बदतर थी।
त्रिवेणी ने पूना से रवाना के समय अच्छी-खाँसी रक़म मेरे हवाले की थी और मुझे यक़ीन दिलाया था कि अगर मैं शिवचरण को मारने में कामयाब हो गया तो वह भविष्य में हमेशा मुझे दोस्त समझेगा।
मुझे त्रिवेणी की बातों का कुछ अधिक विश्वास न था। मगर यही एक बेहतर सूरत थी कि मैं त्रिवेणी के प्रस्ताव को उस सूरत में सफल बनाऊँगा जब मोहिनी त्रिवेणी के कब्जे से निकल जाए।
गरज यह है कि मैं ज़िंदगी के एक ऐसे दौर पर था जहाँ एक तरफ़ मौत अपना भयानक मुँह खोले मुझे हड़प कर जाने के लिये बेचैन थी और दूसरी ओर त्रिवेणी का मुझे दिया हुआ वचन था।
परंतु मुझे ज़िंदगी की ख़ुशियों से अधिक अपनी भयानक मौत का विश्वास था। इसलिए कि मण्डल में बैठे किसी पुजारी को मारने का अनुभव मुझे पहले भी प्राप्त हो चुका था। अगर मैं उस समय सफल हो गया होता तो इस स्थिति में कभी न पहुँचता। मोहिनी त्रिवेणी की बजाय मेरी हो रही होती। वह मुझसे जुदा न होती।
सूरत पहुँचकर रात मैंने एक साधारण से दरजे के होटल में गुजारी। फिर सुबह होते ही नर्वदा नदी को ओर रवाना हो गया। अगले रोज़ मैं नर्वदा के तट पर पहुँच गया। इस यात्रा में मुझे जिन जानलेवा रास्तों का सामना करना पड़ा वह सब मेरा दिल ही जानता था। अगर मैं विवरण से उन हालातों का वर्णन करूँ तो एक अलग कहानी बन सकती है।
बहरहाल मैं किसी न किसी तरह वीरान स्थलों और गुंजान आबादियों से गुजरता नर्वदा नदी के तट पर पहुँचकर उस पुराने मंदिर की तलाश में लग गया जहाँ मुझे शिवचरण से दो-दो हाथ करने थे। दो रोज़ तक मैंने निरंतर अपनी यात्रा जारी रखी। जहाँ भी मुझे कोई नया या पुराना मंदिर नज़र आता मैं धड़कते हुए दिल से उसके अंदर देखता मगर मायूस होकर बाहर आ जाता। पैदल चलते-चलते मेरे हौसले जवाब देने लगे। मैं एक-एक दिन का हिसाब कर रहा था। त्रिवेणी ने मुझे हिसाब बताया था। उस हिसाब से केवल ग्यारह दिन शिवचरण के जाप के शेष रह गए थे।
दूसरे रोज़ जब मैं दिन भर यात्रा करने के बाद रात को एक वृक्ष के नीचे सोने के इरादे से लेटा तो मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे वह रात मेरी जिंदगी की आखिरी रात प्रमाणित होगी। मेरा जोड़-जोड़ दुख रहा था। मच्छरों ने काट-काट कर मेरा सारा जिस्म दागदार बना दिया था। मुझे हल्का-हल्का बुखार भी हो चला था। सिर दर्द के कारण फटा जा रहा था। लेकिन इन तमाम मुसीबतों के बावजूद मुझे इस बात की खुशी भी थी कि अगर मैं इस वीराने में मर गया तो यह मौत एक आज़ादी की होगी।
दिन भर की थकावट के कारण मुझे लेटते ही नींद आ गयी और मैं दीन-दुनिया से बेख़बर हो गया। बहुत देर बाद जब मैं हड़बड़ाकर जागा तो उस समय सारा क्षेत्र धुप्प अंधकार में डूबा हुआ था।
दूर से जंगली जानवरों की आवाज़ें आ रही थीं। अभी मैं सोच ही रहा था कि मेरी आँख क्योंकर खुली कि अचानक मेरे सिर पर तेज पंजों की चुभन शुरू हो गयी। मेरा दिल धड़कने लगा। मैं इन पंजों की चुभन से अच्छी तरह वाकिफ था। वह जहरीली छिपकली, वह मोहिनी, भयानक मोहिनी ही थी।
मैंने डरते-डरते दृष्टि उठाकर अपनी कल्पना की दुनिया में देखा तो मोहिनी को अपने सिर पर पाया। मेरा दिल चाहा कि उस बेवफा से कोई बात न करूँ लेकिन इस समय उसके चेहरे पर कुछ ऐसी उदासी थी कि चाहने के बावजूद भी मैं मोहिनी से नफ़रत न कर सका और टकटकी बाँधे उसे देखता रहा। उसके आगमन पर मुझे ऐसा प्रतित हुआ जैसे मैं अपने बिछड़े हुए किसी अजीज से मिल गया हूँ। अपनी महबूबा से जिसे मुझसे किसी ने छीन लिया और जो हालात के सितम से मजबूर अपने उदास खोए हुए महबूब के पास आई हो।
मैंने धीमे स्वर में कहा- “मोहिनी, क्या यह तुम हो ?”
“हाँ मैं! यह मैं हूँ राज।” मोहिनी ने उदास स्वर में उत्तर दिया।
“तुम यहाँ कैसे आ गयी ? आख़िर तुम्हें मेरा ख़्याल क्योंकर आ गया ?”
मैंने महसूस किया कि मोहिनी की आँखों में ग़म की परछाइयाँ तैर रही थीं। चुप-चुप और खामोश-ख़ामोश सी। कुछ देर तक मेरी बात का उत्तर दिए बिना वह अपने पंजों को बेचैनी की हालत में मेरे सिर पर मारती रही। फिर उसके होंठों ने जुम्बिश की।
“राज! मैं अपने आका के आदेश पर यहाँ तुम्हारे मदद के लिये उपस्थित हुई हूँ।”
“आका!” मैं झुंझला कर बोला, “क्या तुम्हें वास्तव में अब मुझसे कोई हमदर्दी नहीं ? क्या तुम्हें इस बात का अहसास कभी नहीं सताता कि मैं इस हालत में सिर्फ़ तुम्हारे कारण पहुँचा हूँ। तुम्हारी मोहब्बत की वजह से।”
“यह समय इन बातों का नहीं है।” मोहिनी एक ठंडी साँस भरकर बोली, “प्यार की बातें भूल जाओ। जो था वह सब एक सुनहरा सपना था। वह सब सपने की बातें थीं कुँवर राज ठाकुर! उनकी याद से कोई लाभ नहीं है। मैं तुम्हें कितनी बार बताऊँ। तुम यह भूल क्यों जाते हो कि अब मैं तुम्हारी नहीं रही ? मैं तो त्रिवेणी दास की ग़ुलाम हूँ। और उसके आदेश के बिना कोई कोई कदम उठाना मेरे बस की बात नहीं।”
मोहिनी के स्वर में जो कसक थी, उसे महसूस करके मेरी हालत और खस्ता हो गयी लेकिन मैंने मोहिनी से आगे कुछ कहना उचित नहीं समझा। मैं जानता था कि मेरी पुकार बेकार होगी इसलिए कि मोहिनी सिर्फ़ और सिर्फ़ त्रिवेणी दास की दासी थी। मुझसे उसकी जुदाई में रहस्यमय शक्तियों का हाथ था। मैं बस मोहिनी को हसरत भरी दृष्टि से ताकता रहा। मेरा दिल चाहा कि मैं इस कदर रोऊँ, इस कदर चीखूँ कि मुझे मौत आ जाए। मैं पागल हो जाऊँ।
“कुँवर राज ठाकुर! कोई और बात करो और मेरी बात सुनो, मैं जिस काम से आई हूँ। तुम अपनी राह से भटक चुके हो। तुम्हें जिस पुराने मंदिर की तलाश है वह नदी के दूसरे किनारे पर स्थित है। सुबह होते ही तुम किश्ती द्वारा दूसरे किनारे पहुँचों।
“दूसरे किनारे पहुँचकर तुम्हें बाईं तरफ़ चलना होगा और उस रास्ते पर जो पहला मंदिर आएगा वही तुम्हारी मंज़िल होगी। शिवचरण तुम्हें उसी मंदिर में मिलेगा।”
मैं खामोशी से मोहिनी के निर्देश सुनता रहा। जब वह ख़ामोश हुई तो मैंने कहा- “मोहिनी, क्या तुम्हें विश्वास है कि मैं शिवचरण को मारने में सफल हो जाऊँगा ?”
“जब तक शिवचरण मण्डल में है, मैं उसके बारे में कुछ नहीं कह सकती।” मोहिनी के स्वर में मायूसी थी।
“मुझे खुशी है मोहिनी कि तुमने मेरा मार्गदर्शन किया लेकिन क्या तुम एक रोज़ सिर पर नहीं रह सकती ? मेरा मतलब है कि हो सकता है मुझे फिर तुम्हारी सहायता की आवश्यकता पड़े।”
मैंने धड़कते हुए दिल से मोहिनी को संबोधित किया। मेरी हार्दिक इच्छा थी कि वह किसी भेष में भी मेरी बात मान ले। उसकी उपस्थिति में मेरा उत्साह ऊँचा रह सकता था। लेकिन मोहिनी ने बड़ी बेरुखी से मेरी इच्छा को ठुकराते हुए कहा- “यह कठिन है राज! मेरे आका ने मुझे केवल इतना आदेश दिया है कि मैं तुम्हारा मार्गदर्शन करूँ फिर वापस चली आऊँ। अतः मैं जा रही हूँ। जो कुछ मैंने कहा है उसका ध्यान रखना।”
“मैं जानता हूँ मोहिनी कि तुम मजबूर हो लेकिन क्या तुम मुझे इतना भी नहीं बता सकती कि आने वाली परिस्थितियाँ मेरी ज़िंदगी में और क्या गुल खिलाने वाली हैं ?”
“मैं तुम्हें कुछ बता नहीं सकती कुँवर राज ठाकुर। मुझसे कुछ मत पूछो।” मोहिनी ने उत्तर दिया।
“यह तुम मेरा पूरा नाम क्यों लेती हो मोहिनी ? इससे मुझे ऐसा महसूस होता है जैसे मैं तुमसे बहुत दूर हूँ। कम से कम मेरे इस अहसास को चूर तो न करो कि तुम किसी और के पास रहकर मेरी हमदर्द हो। तुम मुझे केवल राज क्यों नहीं कहती ? जैसा तुम पहले कहा करती थी। मैं यह सब कुछ तुम्हारे लिये ही तो कर रहा हूँ।”मैंने भावनाओं में बहकर न जाने क्या कहा। परंतु मोहिनी मेरे इस भावनात्मक बातों में प्रभावित नहीं हुई। उसका स्वर अब भी वैसा ही था।
“कुँवर राज ठाकुर! मेरा सारा अस्तित्व त्रिवेणी का ग़ुलाम है।”
“तुम मेरे लिये अजनबी हो। हाँ, मैं तुम्हें एक सुझाव दे सकती हूँ कि मुझे मत याद किया करो। मुझे प्राप्त करने के लिये जो कुछ तुम कर रहे हो करो, मुझे इससे कोई सरोकार नहीं।”
“मुझे तुम्हारी याद बहुत सताती है। इतनी दूर जाना था तो मेरे पास आई ही क्यों ?” मैंने लगभग रोने वाले अंदाज़ में कहा।
उत्तर में मोहिनी ने एक पल के लिये मुझे नफ़रत और हिकारत में देखा।
फिर उसकी नज़रों में बेबसी का अहसास झलक उठा। उसकी आँखों में पल भर के लिये प्यार सिमट आया। मगर फिर अचानक से वह मेरे सिर से फुदककर मेरे जिस्म पर से रेंगती हुई नीचे उतर आई। मैं उसे आवाजें देता रहा लेकिन निरर्थक।
मोहिनी त्रिवेणी के आदेश से वापस जा चुकी थी। वह रात मैंने बड़ी वेदना के साथ काटी। मोहिनी की कल्पना मुझे रह-रह कर बेचैन कर रही थी। मैं सारी रात मोहिनी के बारे में सोचता रहा और उसे दोबारा प्राप्त करने के मंसूबे बनाता रहा।
सुबह हुई तो मैं साहस बटोरकर उठा और नदी के किनारे-किनारे चलने लगा। कुछ दूर जाकर मुझे वह घाट मिल गया जहाँ से यात्री किश्तियों द्वारा दूसरे तट पर जाते थें। मैंने एक किश्ती ली और अपनी यात्रा पर आगे बढ़ने लगा।
नदी के दूसरे तट पर पहुँचकर मैंने एक लम्बी साँस ली। निकट और दूर के क्षेत्र पर एक सरसरी दृष्टि डाली। फिर मोहिनी के सुझाव के अनुसार बाईं तरफ़ कदम उठाने लगा। दोपहर तक गिरते-पड़ते ही कई कोस का फासला तय किया। लेकिन कोई मंदिर नज़र न आया। भूख और प्यास से बुरा हाल था लेकिन मुझमें इतनी शक्ति नहीं रही कि मैं किसी वृक्ष पर चढ़कर फल तोड़ सकता। दूर तक ऐसी कोई सराय भी नज़र नहीं आती थी जहाँ से खुराक प्राप्त कर सकता। अतः मैंने एक तालाब से चंद घूँट पानी पिए और अपने आपको ताज़ा करने के लिये वहीं पड़ा रहा।
ताज़ा हवा के सुखदायी झोंको ने मुझ पर मदहोशी सी तारी की और मेरी आँख लग गयी। दोबारा मेरी आँख खुली तो दिन ढल चुका था और वृक्षों के साये लम्बे होने लगे थे। दूधिया बगुलों की डार-की-डार अपने बसेरों की ओर उड़ने लगे थे। मैं शीघ्रता से उठा और फिर आगे बढ़ने लगा। अभी मैंने बड़ी कठिनाई से एक कोस का सफ़र तय किया था कि मुझे एक पुराना मंदिर नज़र आने लगा जो तट से कुछ दूर एक ऊँचे टीले पर स्थित था। मैंने रफ्तार तेज कर दी।
मंदिर के निकट पहुँचकर मैंने चारों तरफ़ का निरीक्षण किया। दूर-दूर तक सन्नाटा छाया हुआ था। एक पल तक मैं स्तब्ध सा खड़ा वातावरण का निरीक्षण करता रहा फिर काँपते क़दमों से मंदिर के खस्ताहाल दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा।
दरवाज़े के निकट पहुँचकर मैंने अंदन झाँका तो मेरी धड़कन की रफ्तार कुछ तेज हो गयी। मंदिर के अंदर धुप्प अंधेरा था लेकिन मैं उस नंग धड़ग पुजारी को बखूबी देख सकता था जो टूटे-फूटे फर्श के मध्य आलथी-पालथी मारे बैठा था। उसके हाथ सन्दवी दानों वाली माला पर बड़ी तेजी से चल रहे थे। मैं ठीक तौर से उस पुजारी की सूरत तो न देख सका लेकिन इतना मुझे विश्वास हो गया था कि वही पुजारी शिवचरण होगा। मोहिनी का मार्गदर्शन ग़लत नहीं हो सकता था।
मैं दरवाज़े पर स्तब्ध सा खड़ा कुछ देर तक देखता रहा फिर उल्टे क़दमों से लौट आया। मैंने अंधेरे की बजाय उजाले में उससे निपटने का फ़ैसला किया था।
रात मैंने पुराने मंदिर में एक फलांग दूर खुली चट्टान पर गुजारी। सुबह हुई तो मैंने उठकर नदी स्नान किया। वृक्षों से कुछ फल तोड़कर खाए फिर उसी मंदिर की ओर चल पड़ा जिसमें रात शिवचरण को जाप में मग्न देख चुका था। मैं बुरी तरह थक चुका था।
लेकिन इस वक्त मैं स्नान इत्यादि के बाद फिर से तरोताजा था। इसका एक कारण यह भी था कि अपनी मंज़िल पर मैं एक थका देने वाली यात्रा के बाद पहुँचा था। कुछ और नहीं तो मुझे इतना विश्वास तो था ही कि अगर मैं शिवचरण को किसी तरह मारने में सफल हो गया तो मेरी ज़िंदगी बदल जाएगी। त्रिवेणी दास ने चूँकि मोहिनी की उपस्थिति में मुझे दोस्त बनाने का वचन दिया था इसलिए संभव था कि वह अपनी वचन पर अडिग रहे।
पूना से रवाना होते हुए मैंने तय किया था कि शिवचरण दास को ऐन उस समय मारे जब मोहिनी त्रिवेणी दास के कब्जे से निकलकर शिवचरण के पास जा रही हो। लेकिन रात को अच्छी तरह सोचने-समझने के बाद मैंने अपना यह इरादा त्याग दिया। अव्वल तो यह कि मेरे लिये शिवचरण को मारना ही कठिन था फिर समय का इंतज़ार मेरे बस के बाहर था।
मुझे ही न मालूम था कि शिवचरण का जाप पूरा होने के कितनी देर बाद मोहिनी त्रिवेणी के सिर पर आ जाएगी जबकि मोहिनी एक छलावा थी। दूरियाँ उसके लिये कोई महत्व नहीं रखती थीं।
अगर मुझे इस बात का विश्वास होता कि शिवचरण का जाप पूरा होने के बाद एक निश्चित समय मोहिनी को उसके सिर पर आने में लगेगा तो मैं यह ख़तरा मोल ले सकता था। मगर मुझे इसका कोई अनुमान नहीं था।
मैंने हर पहलू पर गौर किया और इस नतीजे पर पहुँचा कि अगर मोहिनी शिवचरण के कब्जे में चली जाती है तो न जाने और कौन-कौन सी ख़तरनाक परिस्थितियाँ सामने आएँगी। अतः मैंने त्रिवेणी के दिए हुए वचन पर भरोसा कर लिया और यही फ़ैसला किया कि जितनी जल्दी हो सकेगा शिवचरण को ठिकाने लगा दूँगा। त्रिवेणी अगर वचन से फिर भी जाएगा तो मेरी स्थिति में क्या फ़र्क़ पड़ेगा।
पुराने मंदिर में इस समय अच्छी-खासी रोशनी थी इसलिए मैं उस पुजारी को बखूबी देख सकता था। उसने अपने चौड़े सीने पर भभूति मल रखी थी। उसके सिर और दाढ़ी के बाल झाड़-झंखाड़ों की तरह बढ़े हुए थे। आँखें मूँदे वह माला का जाप कर रहा था। जिस तरह वह बैठा था उसके चारों तरफ़ सफ़ेद दायरा सा बना हुआ था।
मैं समझ गया कि यही वह मण्डल है जिसके अंदर मोहिनी की रहस्यमय शक्ति भी बेकार है।
चंद क्षणों तक मूर्तिबद्ध खड़ा शिवचरण को देखता रहा। फिर कदम उठाता सफ़ेद लकीर के पास गया और ऊँची आवाज़ में शिवचरण को संबोधित करते हुए बोला- “अरे ओ मूर्ख! तू जो तपस्या कर रहा है उसमें तेरा सफल होना असंभव है। अगर तुझे अपना जीवन प्यारा है तो मण्डल छोड़कर बाहर आ जा नहीं तो मैं तुझे ऐसा कष्ट दूँगा कि सारा जीवन नष्ट हो जाएगा।”
मैंने केवल हवा में तीर छोड़ा था और इसका प्रभाव तुरंत ही पड़ा। शिवचरण की उँगलियाँ माला पर चलते-चलते रुक गयी। उसने आँखें खोलकर मेरी तरफ़ आश्चर्य से देखा। उसकी आँखों में दहकते हुए शोले देखकर मैं एक पल के लिये काँप उठा। लेकिन फिर साहस बटोरकर बोला- “शिवचरण, मैं तेरे मन की आशा को पढ़ चुका हूँ! तू मोहिनी की रहस्यमय शक्ति को अपने कब्जे में करने के सपने देख रहा है। परंतु तेरा यह सपना पूरा नहीं हो सकता। मेरी मान और मण्डल से बाहर आजा। जान बचाने के लिये केवल एक यही उपाय है। याद रख, यदि तूने मेरी इच्छा का पालन नहीं किया तो तुझे सारा जीवन कठिनाइयों में बिताना होगा।”
शिवचरण निरंतर अपनी सुर्ख-सुर्ख आँखों से मुझे घूर रहा था। मेरा दिल बाहर आ रहा था। मैंने अंधेरे में जो तीर चलाया था। वह अभी तक मुझे यूँ घूरता रहा जैसे मेरी बातों के तह तक पहुँचने की कोशिश कर रहा हो। फिर अचानक उसकी आँखों के शोले नाचने लगे।
उसने अपना हाथ हिलाकर ज़ोर से मुझे धुतकार दिया और फिर दोबारा आँखें बंदकर करके अपने जाप में मग्न हो गया। माला पर उसकी उँगलियाँ दोबारा चलने लगीं। मेरी पहली कोशिश बेकार सिद्ध हुई। मैंने दो-तीन बार फिर साहस करके देवी-देवताओं के उल्टे-सीधे नाम लेकर उसे डराना चाहा लेकिन परिणाम शून्य रहा। शिवचरण ने न तो मेरी बातों का कोई ध्यान दिया और न आँखें ही खोलीं। वह पूरी तल्लीनता के साथ अपने जाप में मग्न रहा। तिलमिला कर मैं बाहर आया और चट्टान से एक भारी पत्थर बड़ी कठिनाई से उठाकर लाया। मण्डल के पास पहुँचकर मैंने वजनी पत्थर को हाथों में ऊँचा उठाया और शरीर की सारी शक्ति एकत्रित करके उसे शिवचरण की तरफ़ उछाल दिया।
पत्थर अगर शिवचरण के सिर से टकराता तो वह निश्चित ही मर गया होता। लेकिन जो कुछ हुआ वह मेरे फरिश्ते कूच कर देने के लिये काफ़ी था। मेरे फेंका हुआ पत्थर शिवचरण के सिर पर पहुँचकर हवा में ही स्थिर हो गया फिर तेजी से मेरी तरफ़ वापस पलटा। मैंने बौखलाकर एक तरफ़ होकर स्वयं को बचाना चाहा परंतु इसके बावजूद पत्थर मेरे बाएँ कंधे से इतनी ज़ोर से टकराया कि मैं कराह कर फर्श पर उलट गया। शिवचरण की स्थिति में कोई अंतर नहीं आया। वह उसी प्रकार अपने जाप में मग्न था।
मैंने अपने कंधे पर दृष्टि डाली तो देखा खून उबल-उबल कर मेरे शरीर को लहू-लुहान कर रहा था।
अब मेरे अंदर शिवचरण से मुक़ाबला करने की क्षमता नहीं रही थी। यहाँ तक कि जब मैं वहाँ से भागने को हुआ तो मेरे पाँव काँपने लगे। मालूम पड़ता था जैसे किसी ने सारे शरीर का खून निचोड़ दिया हो और मौत दबे कदम मेरी ओर बढ़ रही हो।
किसी तरह गिरता-पड़ता मैं मंदिर के चौखट से बाहर निकला। मुझे इतना भी होश न रहा कि मेरे कदम कहाँ पड़ रहे हैं। हर पल मेरी आँखों के सामने अंधेरा बढ़ता ही जा रहा था और फिर अचानक ही मैं लहराकर गिर पड़ा। बेहोशी से पूर्व मैं समझ चुका था कि मौत के बेरहम हाथों ने मुझे बचा लिया।
अंधेरा, और गहरा अंधेरा।
जब मुझे होश आया तो काफ़ी देर तक मुझे यक़ीन ही नहीं आया कि मैं होश में आ चुका हूँ, और ज़िंदा हूँ। बहरहाल, नर्क की जो कल्पना मेरे मस्तिष्क में थी, वह मुझे नज़र नहीं आ रही थी। न कोड़े बरसाने वाले जल्लाद थे, न आग में दहकते सरिये नज़र आ रहे थे। जो कुछ नज़र आ रहा था वह एक कुटिया का दृश्य था।
कुटिया…
आख़िर मैं कहाँ आ गया। स्पष्ट था कि मैं स्वयं चलकर नहीं आया था। कोई तो मुझे उठाकर लाया होगा। मुझे यह भी नहीं पता था कि मेरी बेहोशी कितनी देर रही। इस कारण जो पहला विचार मेरे मस्तिष्क में आया, वह यह था कि निश्चय ही शिवचरण का जाप समाप्त हो गया है और अब मैं उसके रहमो करम पर ज़िंदा हूँ।
अब अगर उसका जाप पूरा हो गया है तो मोहिनी को उसने प्राप्त कर लिया होगा और जिस तरह त्रिवेणी ने मुझसे गिन-गिन कर बदले लिये थे, उससे भयानक अंजाम मेरा होने वाला है।
अचानक मुझे आहट सुनाई दी। मैं सावधान हो गया। आने वाला कुटिया के दरवाज़े पर आकर रुका फिर वह मेरे सामने था। उसके हाथ में दूध का गिलास और होंठों पर मंद-मंद मुस्कराहट थी।
मैं टकटकी बाँधे उसे देखता रहा। वह मेरे लिये कोई अजनबी था। और कोई साधु-संत या किसी मंदिर का पुजारी ही हो सकता था। उसने गेरुए रंग के कपड़े पहन रखे थे। बाल कंधों को स्पर्श कर रहे थे। माथे पर तिलक था और आँखें सुर्ख थीं। उन आँखों में न जाने क्या बात थी कि मुझे एकदम से नज़रें झुका लेनी पड़ी।
वह अंदर आ गया।
“मैं कहाँ हूँ ?” मैंने कराहते हुए पूछा।
“चिंता मत करो!” उसका गंभीर आवाज़ गूँजा, “तुम इस कुटिया में मेरे पास हो, और जब तक तुम यहाँ हो, तुम्हारा कोई बाल बाँका नहीं कर सकता।”
“मगर आप कौन हैं महाराज ? और यह जगह कहाँ है ?”
“धीरज रखो, तुम्हें सब मालूम हो जाएगा। लो, यह गिलास का दूध पियो। मैंने तुम्हारी चोट पर जड़ी-बुटियों की दवा लगा दी है। शीघ्र ही तुम्हारी पीड़ा समाप्त हो जाएगी और तुम स्वस्थ हो जाओगे।”
मैं उसके हाथ से दूध का गिलास लिया और पी गया। दूध पीने के बाद मुझे कुछ राहत सी महसूस हुई। मुझे यों लगा जैसे मेरे शरीर में एक नई ज़िंदगी फूँक दी गयी है।
“अब तुम आराम करो बालक। मैं तुम्हें कुछ समय बाद मिलूँगा।”
“परंतु महाराज, मेरे मन में कई प्रश्न हैं जिसका उत्तर न मिला तो फिर आराम तो क्या मैं एक पल भी चैन से नहीं रह पाऊँगा।”
“मैं जानता हूँ कुँवर राज ठाकुर!” वह मुस्कुराया, “मैं जानता हूँ कि तुम्हारे मन में क्या-क्या उथल-पुथल है। परंतु अभी तुम आराम करो। समय आते ही तुम्हें हर प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा।”
“किंतु महाराज, आप मुझे किस तरह जानते है ?”
“यह कोई ऐसी महत्वपूर्ण बात नहीं। तुम केवल नाम की बात करते हो। मैं तुम्हारी ज़िंदगी की हर वह बात जानता हूँ जो भीतर है और जिसे सिर्फ़ तुम जानते हो।”
वह उठ खड़ा हुआ। उसने मेरा कंधा थपथपया फिर मुझे आश्चर्य में छोड़ बाहर निकल गया।
हालाँकि शारीरिक रूप से मुझे आराम पहुँच रहा था और मेरी पीड़ा भी किसी सीमा तक समाप्त हो गयी थी परंतु मेरी मानसिक उलझनें बढ़ती ही जा रही थीं। तरह-तरह के विचार मेरे मन में आते जा रहे थे और मेरा दिल तेज-तेज धड़कता जा रहा था। फिर जब वह वापस आया तो मैं उसके इंतज़ार में ही था।
उसकी आँखों की चमक कुछ तेज नज़र आ रही थी या यह मेरे कमज़ोर मस्तिष्क का भ्रम ही था।
“बालक! अब मैं तुम्हें तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देता हूँ। तुम्हारी बहुत सी उलझनें उससे दूर हो जाएँगी।
“मेरा नाम हरि आनन्द है और मैं तुम्हारी सहायता के लिये ही यहाँ पर उपस्थित हुआ हूँ। क्या भूल गए कि तुम किस उद्देश्य से यहाँ आए हो ?” उसने रहस्यपूर्ण मुस्कराहट के साथ कहा, “तुम्हें त्रिवेणी ने किस काम से भेजा था ?”
“ओह महाराज, आप तो बहुत कुछ जानते हैं।”
“हाँ बालक!” उसने शून्य में अपनी आँखें स्थिर कीं, “परंतु शिवचरण जब तक मण्डल में है उसे मारना इतना आसान नहीं है और अगर शिवचरण ने जाप पूरा कर लिया तो मोहिनी उसकी दासी बन जाएगी फिर तुम्हारा सारा जीवन नष्ट हो जाएगा। तुम एक भाग्यवान व्यक्ति हो बालक कि मोहिनी स्वयं तुम्हारे सिर पर आई थी और तुमने उसे खो दिया। और अब तुम उसी मोहिनी के लिये अपने प्राणों की बाज़ी लगाने यहाँ आए हो।”
“महाराज, जब आप सब जानते हैं तो इसका कुछ उपाय बताइए। आप तो बहुत महान पुरुष हैं और कुछ देर पहले आपने ही तो कहा था कि आप मेरी सहायता के लिये यहाँ आए हैं।” मैंने हाथ जोड़कर विनती की।
“सो तो ठीक है परंतु…” वह कुछ सोचने लगा।
“परंतु क्या महाराज ? आप मेरे प्राण ले लीजिए। मैं सब कुछ करने के लिये तैयार हूँ।”
“बालक, मैं यह सोच रहा हूँ कि अगर तुमने शिवचरण को जाप पूरा करने से पहले मार भी दिया तो तुम्हें क्या मिल जाएगा ?”
“त्रिवेणी मुझे अपना दोस्त बना लेगा और मेरे सारे कष्ट दूर कर देगा।”
“त्रिवेणी!” हरि आनन्द ने नफ़रत से मुँह सिकोड़ा, “वह तुम्हारे कष्ट दूर कर देगा। तुम्हें विश्वास है कि वह ऐसा दयालु इंसान है ?”
“विश्वास तो नहीं महाराज, परंतु मैं उस पर एक अहसान तो कर दूँगा। शायद उसे मुझ पर दया आ जाए।”
“राज ठाकुर, क्या इससे अच्छा यह नहीं होगा कि मोहिनी तुम्हारी दासी बन जाए और फिर त्रिवेणी से तुम अपने उन अपमानों का गिन-गिन कर बदला लो ?”
“यह किस तरह हो सकता है महाराज ?” मेरा स्वर काँप गया।
“सब हो सकता है। इंसान सब कुछ कर सकता है। त्रिवेणी भी इंसान है और इसी तरह शिवचरण भी। और तुम भी उसी मिट्टी के बने हो।”
“महाराज!” मैं ख़ुशी से झूम उठा, “क्या आप ऐसा जतन कर सकते हैं ?”
“अवश्य कर सकता हूँ।”
मेरे दिल में अचानक एक सवाल उछला कि पूछूँ यह तुम क्यों नहीं कर सकते। भला मोहिनी को कौन अपने कब्जे में नहीं रखना चाहेगा। लेकिन मैं अपना यह प्रश्न घोंटकर रह गया कि कहीं यह धर्मात्मा नाराज़ न हो जाए।
“इसके लिये क्या मुझे भी जाप करना पड़ेगा ?” मैंने पूछा।
“नहीं! जाप तो एक कठिन कार्य है और उसमें संकट ही संकट है। यदि उसने जाप के लिये मण्डल से जाने की तैयारी बना ली तो त्रिवेणी को उसी समय मालूम हो जाएगा। जाप वही लोग कर सकते हैं जो पहले भी तपस्वी होते हैं। अगर ऐसा होता तो हर आदमी मोहिनी को पाने के लिये जाप करता।”
“फिर महाराज ?”
“तुम्हें कुछ विशेष नहीं करना पड़ेगा। यदि तुमने शिवचरण को ठीक उसी समय मार डाला जब उसका जाप पूरा होने वाला हो तो तुम्हारे भाग्य के दरवाज़े खुल जाएँगे। लेकिन इसमें सबसे ख़तरनाक एक और सबसे बड़ा रोड़ा शिवचरण को ही हटाना है।”
“मैं सब कुछ करने के लिये तैयार हूँ।”
“मैं जानता हूँ।” वह मुस्कराते हुए मेरी तरफ़ देखने लगा, “परंतु बालक! तुम्हें एक वचन देना होगा।”
“कैसा वचन महाराज ?”
मैं यह सोच-सोचकर ख़ुश हो रहा था कि मोहिनी मुझे मिल जाएगी जिसके लिये मैं कुछ भी कर गुजरने के लिये तैयार था। एक बार अगर मोहिनी मुझे मिल जाती तो मेरी ज़िंदगी में ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ और बहार होती। मैं मोहिनी के रहस्यमय शक्तियों के बारे में अच्छी प्रकार जानता था।“सुनो राज! तुम्हें यह वचन देना होगा कि जब भी मोहिनी की आवश्यकता मुझे होगी तुम अस्थाई रूप से उसे मुझे दोगे। अगर तुम मुझे यह वचन देते हो तो तुम्हें वह उपाय बताता हूँ जिससे तुम सफल हो सकते हो।”
“मैं वचन देता हूँ महाराज!” मैंने बिना सोचे-समझे कह दिया।
“ध्यान रहे, वचन से अगर गिर गए तो बड़ा अनिष्ट हो जाएगा।”
“आप मुझ पर विश्वास रखिए महाराज।”
“बस तो फिर अब आराम करो। मैं वह उपाय करता हूँ जिससे कि तुम शिवचरण का मुक़ाबला कर सको।”
हरि आनन्द के जाने के बाद मैं पुनः सोचों में गुम हो गया। वह एक ऐसा उपाय करने जा रहा था जिससे मोहिनी पुनः मुझे प्राप्त हो जाती। मोहिनी की जुदाई के बाद मुझे क्या-क्या कष्ट झेलने पड़े। मेरे वह सब दुख-दर्द दूर होने वाले थे और मैंने उन लोगों को उँगलियों पर गिनना शुरू कर दिया जिनसे मुझे इंतकाम लेना था।
इस सूची में त्रिवेणी का नाम सबसे ऊपर था।
दो दिन और बीत गए।
मुझे हरि आनन्द ने इस बात की सख़्त मनाही की थी कि मैं कुटिया से बाहर कदम न रखूँगा और मैंने उसकी आज्ञा का उल्लंघन भी नहीं किया। हालाँकि मेरे मन में इस बात की तीव्र इच्छा थी कि उस कुटिया से बाहर जाकर देखूँ कि यह कुटिया कहाँ पर उपस्थित है। वह पुराना मंदिर इस स्थान से कितना दूर है। परंतु मैंने अपनी इच्छा को दबाए रखा।
तीसरे दिन हरि आनन्द मेरे पास आया।
“अब वह समय आ गया है बालक जब तुम्हारी इच्छा पूर्ण होने वाली है परंतु याद रखना इसमें तुम्हारी जान भी जा सकती है। अगर तुमसे जरा भी चूक हो गयी तो फिर मौत से अपने आपको न बचा सकोगे। सुनो बालक, तुम्हें रावी को अपनी भेंट चढ़ानी है। क्या तुम अपने शरीर से माँस का एक टुकड़ा उतारकर महाकाली का भेंट चढ़ा सकते हो ?”
“अवश्य महाराज!” मैंने कहा। हालाँकि अपनी भेंट चढ़ाने वाली बात से ही मैं लरज उठा था।
“तो ठीक है! कल रात पूर्णमासी की रात है। इसी रात शिवचरण का जाप पूरा होगा। वह समय मैं तुम्हें बताऊँगा। पहले मैं काली का जाप करके तुम्हारी भेंट चढ़ाऊँगा। उसके बाद तुम मण्डल की रेखा तोड़ सकते हो। तुम्हें सब कुछ उसी प्रकार करना है जैसा कि मैं कहूँ।”
मैं हर प्रकार से तैयार था।
अगले रोज़ शाम ढलते ही हरि आनन्द ने मेरी जाँघ से थोड़ा सा माँस उतार लिया और उसमें कोई काला सा पाउडर भर दिया। मेरे मुँह से चीखे निकल गयी। हरि आनन्द मुझे चीखता छोड़कर बाहर चला गया। मेरे शरीर में बेहद पीड़ा हो रही थी। जिस इंसान के शरीर से इस तरह माँस उतार लिया जाए आप स्वयं सोचिए उसका क्या हाल होगा। कुछ देर बाद मेरी पीड़ा कम होने लगी। उस दवा ने खून बहाना भी रोक दिया था और तेजी के साथ मेरे शरीर में अपना प्रभाव डालना शुरू कर दिया था।
रात का अंधेरा घिर गया था। कुटिया में दीपक जल रहा था। मैं गुमसुम सा लेटा हरि आनन्द की प्रतीक्षा कर रहा था। एक-एक पल मेरे लिये युग-युग समान था। और इंतज़ार की यह घड़ियाँ लम्बी होती गईं। यहाँ तक कि मैं ऊँघने लगा। हालाँकि वह इंतज़ार कई युगों के समान था पर हक़ीक़त दो-ढाई घंटे से अधिक नहीं बीते होंगे कि हरि आनन्द आ गया।
हरि आनन्द के हाथ में मिट्टी की एक हंडिया थी। उसकी आँखें सुर्ख हो रही थीं। चेहरा तना हुआ था। माथा सिलवटों से भरा हुआ था।
“उठो बालक!” उसने मुझे संबोधित किया। दोनों हाथों से वह हंडिया उठा लो और महाकाली का शुभ नाम लेकर पश्चिम की दिशा में एक कोस चलना। अगर तुम्हें पीछे से कोई आवाज़ दे, कोई आहट महसूस होए, या कोई तुम्हें पीछे देखने के लिये डरा-धमका कर विवश करे तो हरगिज मुड़कर न देखना। अगर तुमने एक बार भी पीछे मुड़ कर देख लिया तो यह हंडिया तुम्हारी जान ले लेगी। एक कोस के बाद तुम्हें मंदिर का द्वार दिखाई देगा। तुम सीधे शिवचरण के मण्डल में पहुँचोगे। वह जाप में मग्न होगा और फिर एक स्थिति वह आएगी जब शिवचरण आँखें मूँदे जाप करता एक टाँग पर खड़ा होगा। बस उसी समय तुम्हें यह हंडिया मण्डल में शिवचरण पर फेंक देनी है।
“अगर तुमने यह सब कुछ बिना डरे इसी तरह किया तो शिवचरण नर्क की आग में जलकर राख हो जाएगा। उस वक्त तुम्हारी असली परीक्षा होगी। तुम्हें ऐसे दृश्य, ऐसी आवाज़ें सुनने को मिलेंगी कि तुम मारे खौफ के या तो बेहोश हो सकते हो या वहाँ से भाग सकते हो। अगर इन दोनों में से कोई एक बात हुई तो शिवचरण तो मर ही जाएगा परंतु मोहिनी तुम्हें प्राप्त न होगी। अलबत्ता वह त्रिवेणी की ही रहेगा और तुम्हें खाली हाथ लौटकर त्रिवेणी का दास बनकर ही अपना जीवन बिताना होगा। परंतु इन दोनों में से कोई बात न हुई तो एक कार्य करना…”
वह कुछ पल रुककर बोला- “तुम मेरी बात अच्छी तरह समझ रहे हो न ?”
“जी महाराज!”
“हाँ तो आगे सुनो। जब तुम रुक जाओ तो एक काम करना। शिवचरण के भस्म होते ही मण्डल का घेरा टूट जाएगा। जब तक वहाँ आग जलती रहे, तुम अंदर मत जाना। फिर जैसे ही आग शांत हो जाए शिवचरण के राख से थोड़ी सी राख उठाकर एक पोटली सी बाँध लेना। उसके बाद तुम्हारा काम सिर्फ़ इतना होगा कि इस राख को काली कलकत्ते वाली के विशाल मंदिर में चढ़ा देना है और फिर सीधे त्रिवेणी से मिलना जैसे ही तुम यह काम पूरा करोगे, मोहिनी तुम्हारी हो जाएगी। परंतु बालक, यह काम अगली पूर्णमासी से पहले पहल निपटा लेना। अच्छा, अब तुम जाओ! काली का शुभ नाम लेकर प्रस्थान करो।”
मैंने हंडिया सँभाली और काली का शुभ नाम ‘जे काली’ पुकारकर अपने मार्ग पर चल पड़ा। पश्चिम की तरफ़ बढ़ रहा था। आकाश का पूरा चाँद अपनी शान के साथ चमक रहा था। उसकी रोशनी में दूर-दूर तक साफ़ दिखाई पड़ता था। मैं सीधा चल रहा था।
रास्ते में तरह-तरह की आवाज़ों ने मेरा पीछा किया। अगर मुझे हरि आनन्द ने पहले ही सतर्क न कर दिया होता तो निश्चय ही पलटकर देखता। यहाँ तक कि एक बार तो मुझे अपनी प्यारी पत्नी डॉली की आवाज़ अपने को पुकारती सुनी। उस वक्त तो मैं ठिठक ही गया था। अगले ही सेकेंड ध्यान आया कि डॉली भला यहाँ कैसे आएगी। यह सब काले जादू की खालें है। मैं पुनः बढ़ गया। एकाध बार मैंने जानवरों के चिंघाड़ने की आवाज़ें भी सुनी परंतु मैं पूरी तरह सतर्क था। मुझे अब कोई भी ताक़त पीछे देखने के लिये विवश नहीं कर सकती थी।
मैं बढ़ता ही रहा। यहाँ तक कि मंदिर मुझे नज़र आने लगा। फिर मैं मंदिर के द्वार पर प्रविष्ट हुआ तो उन आवाज़ों ने मेरा पीछा छोड़ दिया।
मैंने अपने हौसले को बनाए रखा। परीक्षा की असली घड़ी तो अब शुरू होने वाली थी। मैं अपनी मंज़िल तक पहुँच तो गया था परंतु मंज़िल अभी भी उतनी ही दूर थी।
शिवचरण अपने आप में मग्न था। फिर मुझे अधिक देर तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी जब शिवचरण अपने आसन से उठ खड़ा हुआ। उसने दायीं टाँग उठाकर अपनी बायीं टाँग की जाँघ पर रखी और उसी प्रकार जाप करने लगा।
अब वह सकपका गया था। मैंने पूरी शक्ति से हंडिया उस पर फेंक मारी। हंडिया एक तेज सनसनाती आवाज़ के साथ उसके शरीर के ऊपर चकराने लगी। फिर चंद क्षणों में ही उससे शोले निकलने लगे।
शिवचरण का ध्यान सहसा भंग हो गया। उसने सिर उठाकर हंडिया की तरफ़ देखा फिर मुझसे चीख कर कुछ कहा। उसके बाद तेज-तेज मंत्रों का जाप करने लगा।
परंतु उसी क्षण शोले सहित हंडिया उसके सिर से टकराई और अगले ही पल बड़ा भयानक दृश्य मेरे सामने था। शिवचरण पूरा का पूरा शोलों में घिरा था। वह चीख पुकार मचा रहा था और हाथ-पाँव पटक रहा था। उसके साथ ही मण्डल में ऐसी आवाज़ें गूँजी जैसे सैकड़ों दरिंदे आपस में लड़ रहे हो। मैंने भयानक क़िस्म के साँपों को लहराते देखा। किसी के सींग उगे हुए थे, तो किसी के दाँत खंजरों के बराबर दिखाई पड़ते थे। और उन सब भयानक दिल दहला देने वाली आवाजों, उन खौफनाक साँपों के बीच शिवचरण आग में जल रहा था।
मेरी टाँगे काँपने लगीं। मुझ पर बेहोशी छाने लगी। मेरा दिल चाहा कि भाग खड़ा होऊँ और किसी तरह अपनी जान बचाकर यहाँ से निकल जाऊँ। अन्यथा यह साये मुझे चीर-फाड़ डालेंगे। परंतु न जाने कौन सी शक्ति मुझे मेरे पाँव जमाए रखे थी। यहाँ तक कि मेरा संतुलन बनाए रखा।
यह मेरी ज़िंदगी का सबसे खौफनाक दृश्य था। काले जादू की ऐसी जंग मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। मैं मन ही मन काली का नाम जप रहा था। मेरा सारा शरीर पसीने से सराबोर था।
पंद्रह मिनट तक यह सब चलता रहा। फिर अचानक सब कुछ शांत हो गया। फिर जैसे वह जादू टूटा तो मैंने देखा मण्डल में राख के ढेर के अलावा कुछ भी शेष नहीं था।
मैं आगे बढ़ा और मण्डल की रेखा पार कर दी। चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था। यह रहस्यमय घटना भी मुझे भयभीत कर रहा था। मंदिर की पुरानी जर्जर दीवारें भांय-भांय कर रही थी।
मैंने पोटली में थोड़ी सी राख बाँधी और मण्डल से बाहर आ गया। फिर मंदिर से तेजी के साथ निकल गया। यह पोटली लेकर मैं वापस कुटिया की तरफ़ बढ़ चला ताकि उस महात्मा का आशीर्वाद प्राप्त करके अपनी सफलता की सूचना दे सकूँ।
मैंने कुटिया में कदम रखा तो मुझे वहाँ कोई नज़र नहीं आया। सुबह तक मैं हरि आनन्द की प्रतीक्षा करता रहा। परंतु सब निरर्थक रहा। हरि आनन्द फिर मुझे नज़र नहीं आया।
अब मेरे लिये वहाँ रुकना बेकार था। मैंने अपनी यात्रा शुरू कर दी।
पहले मेरे दिल में आया कि मैं त्रिवेणी के पास लौट चलूँ। वहाँ जब उसके सफलता की सूचना दूँगा तो वह निश्चय ही मुझ पर ख़ुश होगा। फिर मैं उससे बाहर घूमने-फिरने की अनुमति माँग कर कलकत्ता के लिये रवाना हो जाऊँगा।
किंतु दूसरा विचार जो मेरे मन में आया वह यह था कि यदि त्रिवेणी को इस बात का जरा भी संदेह हो गया कि मैं मोहिनी को वापस पाने की कोशिश कर रहा हूँ तो वह हरगिज मुझे ज़िंदा नहीं छोड़ेगा। मोहिनी अभी भी उसकी दासी थी और मैं उसके सामने कोई भी हैसियत नहीं रखता था।
अतः चाहे जैसा भी ख़तरा अब मेरे सामने आए मैंने सीधे कलकत्ते निकल जाने का फ़ैसला किया।