Fantasy मोहिनी

मोहिनी

यह एक काल्पनिक रचना है । विभूतियों, स्थानों और संस्थाओं के नामों का प्रयोग केवल कथ्य को प्रामाणिकता प्रदान करने के लिये किया गया है । कहानी में आये सभी चरित्र, नाम और घटनाएं लेखक की कल्पना पर आधारित हैं और किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध एक संयोग मात्र होगा ।

इंसान चाहे उम्र के किसी भी ढलान पर क्यों न हो, कुछ तस्वीरें स्क्रीनशॉट की तरह उसके मानस पटल पर हमेशा के लिये चिपक जाती हैं और वह चाहकर भी उन्हें नहीं हटा पाता। उसके अंतर्मन में चलचित्र की तरह यादों का भंडार हमेशा रहता है। वह जब भी अपने अतीत में झांकता है तो वह फिल्में रोल होने लगती हैं जो उसकी ज़िंदगी के अनगिनत विलक्षण मोड़ होते हैं, कभी कांटो भरे रास्ते, तो कभी फूलों की हसीन वादियां। कभी ठहरा हुआ मौसम, कभी रुका हुआ वक्त, कभी खुशनुमा नज़ारे। मैंने अपने अतीत को बहुत संभाल कर रखा है और आज मैं उस अतीत की पर्त दर पर्त खंगाल रहा हूँ, क्योंकि अपनी गुमनाम मौत से पहले दुनिया को बताना जरुरी समझता हूँ कि जिस राह पर मैं चलता गया और जो कुछ मैंने किया, वह हरगिज कोई भी इंसान भूल से न करे। पहला कदम बढ़ाने से पहले ही उसे पीछे खींच ले। चार दिनों की चांदनी की खातिर खुद को जहन्नुम की आग ने न झोंके।

मोहिनी, जिसका वर्णन मैं करने जा रहा हूँ, वह मेरी आपबीती है, वह मेरे लिये खुला आसमान लेकर आई तो घुटन भरा अँधेरा भी लेकर आई। उसे मैं जितना प्यार करता था उतनी ही नफरत भी करता था। मेरी यह प्रेमकथा ऐसी कथा है जिसमें अपनी प्रेयसी को मैं छू भी नहीं सकता था। वह कोई इंसानी वजूद नहीं था, वह एक चंडालिनी है जिसे हासिल करने के लिये तांत्रिक सिर-धड़ की बाजी लगा देते हैं।

अपने जीवन की अनगढ़ वस्त्रों को सिलने से पहले सुई के उस बारीक़ छेद पर फोकस कर रहा हूँ जहाँ से सुई में धागा पिरोया जाता है। उम्र होगी लगभग नौ बरस। नौ बरस की कमसिन उम्र में वह पहली घटना घटी जो मुझे ज्यों की त्यों याद है। बेहद निर्धन परिवार में मेरा जन्म हुआ। माँ-बाप जमींदार की खेती में काम करते थे और घर में हमेशा रोटी के लाले रहते थे। मैं बच्चा था, कभी-कभी भूखे पेट भी सो जाना पड़ता था। हम सात भाई बहन थे और मैं उन सबसे छोटा था। उन दिनों न जाने किन हालात में मेरे माँ-बाप ने सात बच्चों में से एक बच्चे को बेचने का फैसला किया। यह उस परिवार की आर्थिक तंगी का अत्यंत दुखदायी पहलू था वरना कौन अपने बच्चे को बेचता है। मुझे याद है मेरे पिता ने उस शख्स से कुछ रुपये हासिल किये थे और मुझे उसके सुपुर्द कर दिया था।

अपने झोपड़े नुमा घर को छोड़ते हुए मैं रोया भी बहुत था। पर मेरे आंसुओ की वहां कोई कीमत नहीं थी। वह दौर 1950 का था। आज मेरी उम्र अस्सी उम्र हो चुकी है। पर वह लम्हा मुझे आज भी ज्यो का त्यों याद है। मुझे खरीद कर ले जाने वाले व्यक्ति का नाम जयधर था। जब मैं उसके साथ उसके घर गया तो वहां एक खौफनाक इंसान धुनि रमाये नंगधड़ंग बैठा था। उसके आसपास अजीब किस्म की वस्तुएं रखी थी। उसकी जटायें लम्बी और गुथी हुई थी। मैंने इन बातों का पहले कभी जिक्र नहीं किया। उस वक्त वह कोई मन्त्र पढ़ रहा था और अपनी एक जटा से पानी की धार निकाल रहा था। धार एक बर्तन में गिर रही थी।

“जय गंगे…।” वह पानी की धार छोड़ते हुए फ़टी-फ़टी आवाज में बोला, “ले आया जयधर ?”

“हाँ, मैंने कहा था न आज सौदा पक्का हो जायेगा। देख लो कैसा नग है।”

उसने लाल-लाल आँखों से मेरी तरफ देखा फिर अपने पास रखी खोपड़ी उठा ली। खोपड़ी पर हाथ फेरा और कहा–“कालिया मसान! अब वक्त आ गया है, मैं तुझे खुश कर दूंगा। ऐसा भोजन दूंगा कि तू हमेशा के लिये मेरा गुलाम हो जायेगा।”

फिर उसने मेरी तरफ देखा– “इधर आ।”

मैं थर-थर काँप गया। उसकी शक्ल-सूरत ही ऐसी भयानक थी कि मेरी रूह फना हो गई।“अरे डरता क्यों हो, इधर आ…” इस बार उसने कुछ प्यार भरे स्वर में कहा। मैं डरता-सहमता उसके करीब आकर खड़ा हो गया। उसने दायां हाथ मेरे सर पर रखा फिर कुछ मन्त्र पढ़ा और धीरे-धीरे हाथ को नीचे लाया फिर अपने पीले-पीले दांतो की नुमाइश करके मुस्कुराया, उसके बाद वह मुझे इस प्रकार टटोल-टटोल कर देखने लगा जैसे कोई कसाई कुर्बानी के बकरे को टटोल कर उसके गोश्त का अनुमान लगाता है।”

“जयधर! तैयारी करो, कल हम भानगढ़ी के लिये कूच करेंगे। इसी अमावस्या की रात को सारा काम निपटा देना है। वरना चातुर्मास लग जायेगा और हम किसी देवी-देवता को जगा नहीं पाएंगे।”

मुझे खाना खिलाकर एक चटाई पर डाल दिया गया। पिछले दो दिन से मैंने कुछ खाया भी नहीं था। भूखे पेट होने पर भी खाने का मन नहीं करता था। पर भूख तो भूख होती है जब खाने लगा तो डट कर खाया और उसके बाद मुझे नींद आ गई। सुबह जयधर ने मुझे जगाया।

“मैं तो तेरे बाप से तेरा नाम पूछना ही भूल गया था।” उसने मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए पूछा – “क्या नाम है तेरा ?”

“राज!” मैंने पहली बार उसके सामने जुबान खोली और टुकुर टुकुर उसे देखने लगा।

“नहा-धोकर तैयार हो जा। अभी तू यही कपड़े पहन ले फिर मैं तेरे लिये नए कपड़े सिलवा दूंगा। उधर डोल में पानी रखा है…जा नहा ले।”

मैं चुपचाप उसी तरफ चल पड़ा।

“और हाँ टट्टी-पेशाब के लिये जाना हो तो पीछे जो आड़ है उसमे चला जा।”

☐☐☐भानगढ़ी के बारे में मुझे बहुत बाद में पता चला था। उस वक्त मैं नहीं जानता था कि भानगढ़ी तांत्रिकों की सिद्धपीठ है। वहां का शमशान घाट बहुत विशाल था, जहाँ दूर दराज के लोग भी अपने मुर्दे फूंकने आते थे। जगह-जगह तांत्रिकों की साधना के लिये गुमटियां बनी हुई थी। यह गुमटियां मिट्टी और गारे की बनी हुई थी और इन पर तरह-तरह के रंग पुते हुए थे। शमशान के पीछे दूर तक घना जंगल था।

भानगढ़ी पहुँचने के बाद हमने शाम तक का वक्त एक झोपड़ी में गुजारा फिर रात होते ही जयधर मुझे लेकर चल पड़ा, एक अंजाने से सफर की ओर। न जाने क्यों मेरा दिल तेज-तेज धड़कने लगा था। मेरी आत्मा जैसे चीख-चीख कर कह रही थी…भाग जा…भाग जा….पर मेरे कदम भागने के लिये मेरा साथ नहीं दे रहे थे। रात का अँधेरा फैलने लगा। वह मुझे उसी शमशान घाट में ले आया। वहां सन्नाटा पसरा हुआ था। जो तांत्रिक वहां साधना कर रहे थे वह अपनी गुमटियों में थे। कहीं-कहीं पर आग भी जल रही थी।

जयधर मेरा हाथ पकड़े आगे बढ़ रहा था। मेरी टांगे कांप रही थी। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे पैर मन-मन भर के हो गए हैं। एक अंजाना सा खौफ मेरे भीतर समाने लगा। आखिर जयधर मुझे यहाँ लेकर क्यों आया।

फिर एक ऐसी स्थिति भी आ गई जब वह मुझे घसीटते हुए जंगल में दाखिल हुआ।

कुछ दूर आगे चलकर एक जगह रौशनी नज़र आई…पर जयधर अँधेरे में भी सधे कदमो से चल रहा था। वह मुझे उस रौशनी के पास ले आया।

यहाँ वही तांत्रिक धूनी रमाये बैठा था।

“कपाली बाबा!” जयधर बोला, “लड़का बहुत डर रहा है।”

कपाली बाबा ने लाल-लाल आँखो से मुझे देखा। अँधेरे में भी उसकी आँखें अंगारो की तरह चमक रही थी। उसके पास एक और शख्स बैठा था। वह दुबला-पतला था और काला चोला पहने हुए था। उसने एक बार मेरी तरफ देखा फिर चिलम का धुंआ नथुनों से ख़ारिज करते हुए एक नारा-सा लगाया “जय काली माता! जय भोले भंडारी!”

पास ही एक चौकी रखी थी जिस पर लाल कपड़ा बिछा हुआ था। उसके चारो तरफ सिंदूर की रेखाएं बनी थी। ये रेखाएं तीन घेरों में बनी हुई थी।

कपाली बाबा धुनि में कुछ भस्म फेंकता मन्त्र पढ़ने लगा। धुनि में जो सामग्री डाली जा रही थी उससे अजीब सी दुर्गन्ध उठ रही थी – जैसे किसी जानवर के सड़ने से आती है। धुनि से धुंआ उठने लगा। कपाली बाबा ने खोपड़ी पर सिंदूर से तिलक लगाकर दूसरे तांत्रिक को खोपड़ी थमा दी।

दूसरा तांत्रिक उठा और उसने खोपड़ी एक चौकोर पत्थर पर चौकी के सामने रख दी।

“जयधर! इसके वस्त्र उतार और इसे चौकी पर बिठा दे।”

जब मेरे कपड़े उतारे जा रहे थे तो मैं थर-थर कांप रहा था। मेरी न तो जुबान खुल पा रही थी न जिस्म में ताकत थी। मेरे सारे कपड़े उतारकर मुझे चौकी पर बिठाया गया। फिर कपाली बाबा अपनी जगह से उठा और उसने मेरे नंगे जिस्म पर सिंदूर से कुछ निशान बना डाले। मेरे माथे पर तिलक लगाया। दूसरा तांत्रिक खोपड़ी के पास खड़ा था। धुनि के अलाव की रौशनी के साथ वहां एक लालटेन भी रोशन थी।

हवा में ठंडक थी पर वह कुछ रुक सी गई थी। आसपास के वृक्ष शांत खड़े थे। अमावस्या की रात होने के कारण घना अँधेरा चारो ओर फैला हुआ था…दूर से कहीं किसी कुत्ते के रोने की आवाज सुनाई दे रही थी।कपाली बाबा वापस मुड़ा। उसने अपने एक थैले से एक छोटी सी गुड़िया निकाली। गुड़िया ने लाल कपड़ा पहना हुआ था। लालटेन की रौशनी में मैंने वह खूबसूरत सी गुड़िया देखी। उसने उस गुड़िया को मेरे सामने ही एक दूसरे पत्थर पर टिका दिया। फिर वह दोनों हाथ उठाकर उस गुड़िया के सामने खड़ा हो गया और जोर-जोर से बोलने लगा।

“हे चंडालिनी देवी मोहिनी…रानियों की रानी! सभी शक्तियों की स्वामिनी… मैं तुम्हारा आह्वाहन करता हूँ…मैं कपाली बाबा तुम्हारे सामने नतमस्तक होकर तुम्हे प्रणाम करता हूँ।” उसने गुड़िया के पांव छुए फिर उसे तिलक लगाया, उसके सामने फूल सजाये और कुछ मन्त्रों का जाप करने लगा। मेरी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है। उसने लोबान को सुलगाकर चौकी में मेरे सामने रखा।

“शम्भू।” उसने अपने चेले को पुकारा–“अपना काम शुरू करो। समय निकला जा रहा है।”

शम्भू ने अपना सिर हिलाया। चिलम एक तरफ रखी और पत्थर से जो चौकोर तराशा हुआ था, जिस पर लाल-लाल धब्बे लगे थे, उसे उठाकर मेरे सामने रख दिया।

अब उसने अपने लिबास से एक चॉपर जैसा खंजर निकाला और मेरे पीछे चला गया। मेरी तो जैसे धड़कनें ही बन्द हो गई थी। पता नहीं वह क्या करने वाला था !

फिर डमरू ने मेरे सामने मेरी आरती उतारी और मुझे तिलक लगाया। उसके बाद वह पीछे हट कर खड़ा हो गया।

अचानक शम्भु ने मेरे बाल पकड़े और मेरा सिर झुका कर चौकोर पत्थर पर टिका दिया। वह मेरी दायीं तरफ आया। उसने वह चॉपर हवा में उठाया चॉपर एक झटके से मेरे सिर की ओर आया।

तभी कुछ हुआ। चॉपर मेरी गर्दन पर आकर जड़ सा हो गया। मुझे अपनी गर्दन पर उसकी चुभन महसूस हो रही थी फिर यह चुभन भी खत्म हो गई चॉपर ऊपर उठ गया। मैंने धीरे-धीरे अपना सिर ऊपर उठाया। अचानक शम्भू अपनी जगह से हिला चॉपर अब भी उसके हाथ में था…डमरू खौफजदा होकर चार कदम पीछे हट गया।

शम्भु आगे बढ़ा और जयधर के पास आकर रुका।

अचानक उसका चॉपर वाला हाथ लहराया। जयधर की चीख बड़ी भयानक थी जो सन्नाटे को तोड़ती चली गई।

जयधर का सिर कटकर ज़मीन पर गिरा गया। शम्भु अब डमरू की तरफ मुड़ा। डमरू ने एकदम से छलांग लगाई और जंगल के अँधेरे सायो में गुम हो गया। शम्भु उसका पीछा करने लगा।अब वहां मेरे अतिरिक्त कोई नहीं था और मैं थर-थर कांप रहा था। मेरे दांत आपस में जकड़ से गए थे। बड़ी मुश्किल से मैं उठकर खड़ा हुआ। पता नहीं मेरे कपड़े कहाँ पड़े थे। मैं नंगे बदन ही लड़खड़ाता, गिरता पड़ता वहां से चल पड़ा। घना जंगल उस पर घुप्प अँधेरा। झाड़-झंकार की शाखाओं से कहीं भी कांटे चुभ जाते। नंगे पांव में भी कांटे-कंकर चुभ रहे थे…मैं लड़खड़ा कर गिरता, फिर उठता फिर चलता फिर मैंने अपने पीछे कुछ आवाजें सुनी। कुछ रोशनियाँ जो शायद टॉर्चों की रोशनियाँ थी…चमक रही थीं। मैंने जान लगाकर दौड़ना शुरू कर दिया, फिर पता नहीं कहाँ-कहाँ से गुजरा और गिरकर बेहोश हो गया।
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जब मुझे होश आया तो मैं एक तालाब के किनारे रेत पर पड़ा था और नंग-धड़ंग ही था। कुछ लोगों की आवाजें सुनाई दे रही थीं। धीरे-धीरे आँखें खोली तो पहले हर दृश्य धुंधला नज़र आया फिर तस्वीर साफ़ होने लगी। वे गांव के देहाती लोग थे। उनके पीछे एक बैलगाड़ी भी खड़ी थी। वे लोग आठ-दस रहे होंगे। जो मेरे आस-पास खड़े थे। मुझे होश में आते देख उनमे से दो आदमी मेरे पास आये। मुझे रेत पर से उठाकर बैठाया। मेरे जिस्म पर जगह-जगह काँटों के निशान थे।

“कौन है तू ? किस गांव का है ?” एक ने पूछा।

मुझसे कुछ भी जवाब न बन सका। बोल मुंह से निकला ही नहीं।

“गूंगा है शायद।” दूसरा बोला।

फिर एक तीसरा आदमी बोला, “अरे इसे कोई कपड़ा ओढ़ा दो, नंगा है बेचारा।”

किसी ने मेरे ऊपर गमछा डाल दिया। मैंने अपने बदन पर गमछा लपेट लिया।

“इसे सरपंच के पास ले चलते हैं।”

सबने सहमति प्रकट की। वे लोग मुझे सहारा देकर एक गांव तक ले गए फिर सरपंच के घर पहुंचा दिया।

सरपंच ने मुझसे वही सवाल-जवाब किये, पर मैंने उसे भी कोई जवाब नहीं दिया। उन्होंने मुझे गूंगा समझ लिया। मैं बच्चा जरूर था पर अपने गांव का और अपने माँ-बाप का नाम जानता था। पर मैं उन लोगों के पास वापस नहीं जाना चाहता था जिन्होंने मुझे कुर्बानी के लिये बेच दिया था।

जब वे मेरे बारे में कुछ भी न जान सके तो मुझे अनाथालय पहुंचा दिया। बस उसी अनाथालय में मेरी परवरिश शुरू हुई। वहां पढ़ाई भी होती थी। मेरा जीवन वहीं सिमट कर रह गया। धीरे-धीरे मैं उन सब बातों को भूलता गया जो मेरे साथ गुजरी थीं।

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